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Monday, October 13, 2008

टीवी के लौंडे-लफाड़े

देशभर के अखबारों में आजकल टेलिविजन चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन पर खूब चर्चा हो रही है। सरकारी चैनल दूरदर्शन ने भी मीडिया के सरोकार के बहाने इसपर एक वृहद चर्चा आयोजित की। कमोबेश इस तरह से स्टिंग ऑपरेशन के बहाने खबरिया चैनलों पर लगाम लगाने के सरकार के इरादे को समर्थन मिल रहा है।
सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि न्यूज चैनलों पर नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाए जा रहे हैं। आलोचकों का ये भी कहना है कि न्यूज चैनलों से खबरें गायब हो गई है, बाकी सबकुछ है। इसके अलावा टीआरपी को लेकर भी खूब शोरगुल मचाया जा रहा है। जिन्हें टीआरपी की एबीसी भी पता नहीं है, वो भी न्यूज चैनलों की इस बात के लिए जमकर आलोचना करने में जुटे हैं कि वो टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
टीआरपी के बारे में आधी अधूरी जानकारी रखनेवाले विद्वान, लेखक और अपने आपको मीडिया के जानकार बतानेवाले टीआरपी के सैंपल साइज पर भी सवाल उठा रहे हैं। कोई कह रहा है कि दो हजार बक्से से ये कैसे तय हो सकता है तो कोई इसकी संख्या पांच हजार बता रहा है। तो कहीं इसकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। बात-बात में सीएनएन और बीबीसी के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन इसपर जो भी चर्चा हो रही है वो बहुत ही सतही और सुनी सुनाई बातों के आधार पर की जा रही है।
टीआरपी और इस व्यवस्था को कोसना आजकल फैशन हो गया है लेकिन न्यूज चैनलों पर लिखनेवाले मित्रों के लेखों को पढ़कर लगता है कि वो बगैर किसी तैयारी के लिख रहे हैं। टीआरपी और इस व्यवस्था की आलोचना करनेवालों को ये पता होना चाहिए कि ये व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। किसी भी और देश में टीआरपी के इतने बक्से नहीं लगे हैं।
पूरे भारत में अभी टीआरपी के सात हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्तेभर इसपर काम करती है। और अगर टीआरपी को ध्यान में रखकर कंटेंट तय किया जा रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या अखबार और पत्र-पत्रिकाएं सर्कुलेशन और रीडरशिप को ध्यान में रखकर अपना कंटेंट तय नहीं करते हैं। अगर टीआरपी के सैंपल साइज पर सवाल उटाए जा रहे हैं तो अखबारों के रीडरशिप सर्वे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता। पांच लाख के सर्कुलेशन वाले अखबार की रीडरशिप यानी पाठक संख्या पचास साठ लाख से ज्यादा दिखाई जाती है।
बारह लाख बिकनेवाली चालीस पृष्ठ की पत्रिका की पाठकसंख्या एक करोड़ से ज्यादा बताई जाती है। मतलब ये कि उक्त अखबार और पत्रिका की एक प्रति को लगभग दस लोग लोग पढ़ते हैं। क्या ऐसा संभव है। ये तो सिर्फ किसी बात की तरफ इशारा भर करता है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होता होगा तो फिर सवाल ये उठता है कि नेशनल रीडरशिप सर्वे और इंडियन रीडरशिप सर्वे का सैंपल साइज क्या होता है। क्या इन सर्वे के सैंपल साइज इतना बावेला मचा।
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इन रीडरशिप सर्वे के आधार पर पत्र-पत्रिकाएं विज्ञापनदाताओं के पास जाकर कितना शोर मचाते हैं।
दूसरी जो सबसे हल्की बात न्यूज चैनलों के बारे में कही जाती है कि वो नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाते रहते हैं। क्या इस तरह का फतवा जारी करने वाले किसी भी व्यक्ति ने सारे न्यूज चैनलों पर चलनेवाले कंटेट का अध्ययन किया है। कतई नहीं। अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करते तो इस तरह का स्वीपिंग रिमार्क नहीं आता। एकाध न्यूज चैनल हैं जो इसे दिखाते हैं तो क्या उसके आधार पर सारे न्यूज चैनलों के कंटेट को हल्का करार दिया जा सकता है।
क्या अखबारों में और पत्र-पत्रकिओं में भूत-प्रेत और नाग-नागिन के बारे में खबरें नहीं छपती। दरअसल हर मीडियम, में चाहे वो प्रिंट हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक, हर तरह के कंटेंट मिलते हैं कहीं मसाला ज्यादा होता है और कहीं गंभीरता ज्यादा होती है। दरअसल न्यूज चैनलों की आलोचना से पत्रकारिता का वर्ग-संघर्ष सामने आता है। कुछ लोगों के मन में कुंठा घर कर गई है कि वो पंद्रह बीस साल तक कलम घिसने के बाद एक छोटी सी गाड़ी में ही चल पा रहे हैं जबकि न्यूज चैनलों में चार पांच साल काम करके ही लोग लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने लगते हैं।
कई अखबारों के स्थानीय संपादक मेरे मित्र हैं जिन्हें मैंने ये कहते सुना है कि ये टीवी वाले लौंडे-लफाड़े ऐश कर रहे हैं और हम साले जीवन भर कलम ही घिसते रह जाएंगें। इसमें तो इन "लौंडे-लफाड़ों" का दोष नहीं है। बल्कि उन्हें तो अवसर मिला और जिस माध्यम में वो काम कर रहे हैं वहां आय हो रही है, तो पैसे मिल रहे हैं। साथ ही ये भी देखना होगा कि अखबारों में काम का दवाब कितना होता है और टीवी में कितना होता है। अखबार तो एक बार निकाल कर आप चौबीस घंटे के लिए निश्चिंत हो गए लेकिन न्यूज चैनलों में तो हर आधे घंटे में आपको एक अखबार निकालना होता है। काम के दवाब के हिसाब से कंपशेसन मिलता है।
और रही बात स्टिंग आपरेशन की तो क्या एक चैनल की गैरजिम्मेदारी के आधार पर ये कहना उचित है कि स्टिंग पर रोक लगा देनी चाहिए। क्या स्टिंग से देश का भला नहीं हुआ है। क्या स्टिंग से देश में सर्वोच्च स्तर पर चलनेवाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं हुआ। अगर एक व्यापक सामाजिक हित में स्टिंग किया जा रहा हो तो उसपर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन ये भी आवश्यक है कि स्टिंग को ऑन एयर डालने से पहले उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ये भी सोचना चाहिए कि इस स्टिंग से समाज का भला हो रहा है या नहीं । व्यक्तिगत दुश्मनी या बदला लेने की नीयत से किया जानेवाला स्टिंग सर्वथा निंदनीय है और कोई भी उसका पक्षधर नहीं है। राजनेता और सरकार तो हमेशा से ये चाहते रहे हैं कि मीडिया पर लगाम लगे ताकि वो स्वच्छंदतापूर्वक मनमाफिक काम कर सके।

12 comments:

ab inconvenienti said...

मैं न तो अखबारी रिपोर्टर हूँ न ही टीवी रिपोर्टर, मध्यप्रदेश के एक छोटे शहर का बाशिंदा, अंतर्राष्ट्रीय वित्त में पीजी करके केपीओ में परामर्शदाता का काम करता हूँ. पर सच में आज टीवी के नाम से ही चिढ होती है, कितने हिन्दी चैनल हैं जो समाचार विश्लेष्ण और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य की खबरें दिखाते हैं? एनडी टीवी और आईबीएन भी नहीं, बाकी तो भूतप्रेत, जादूटोना, अश्लील कॉमेडी के ही पिटारे हैं, क्या यह बात ग़लत है? छत्तीसगढ़ और आन्ध्र-उडीसा में नक्सालियों-माओवादियों का हाहाकार मचा हुआ है, और टीवी पर सिर्फ़ वहीं की खबरें (टाइम फिलर्स सही शब्द है) जहाँ इनकी ओबी वैन आसानी से पहुँच सके, यानि नोएडा और दिल्ली. और रही बात पब्लिक की मांग की तो सेक्स सबसे अधिक बिकता है, कल को एक्स-रेटेड सामग्री टीवी पर दिखाने की अनुमति मिल जायेगी तो क्या ब्लू-फिल्में परोसोगे न्यूज़ पर? अनारा और डीपीएस की सीडी नाममात्र के ब्लर के साथ टीवी पर सरेआम तुम दिखा ही चुके हो....... अपनी माँ और बेटी के साथ बैठकर यह दृश्य टीवी पर तुम देख सकते हो? मीडिया ट्रायल में इतनी गंदगी बिखेरी की अदालत को भी आपत्ति जतानी पड़ी. वे लोग जो थोड़े भी जागरूक हैं वे तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों पर जाने की बजाये ई-टीवी जैसे क्षेत्रीय चैनलों पर समाचार देखना ज़्यादा पसंद करते हैं.

और राजू श्रीवास्तव, रतन नूरा की कॉमेडी, भूत-जादूटोना, दिल्ली-नोएडा के आसपास की हत्या बलात्कार की खबरें, यू ट्यूब की क्लिप्स, और बाकी बचे टाइम में घटिया नेताओं की बयानबाजी .... इसमे ऐसी कितनी मेहनत लगती है जो तुम हर आदे घंटे में अख़बार निकलते हो?

और जो उन चैनलों की बात कर रहे हो जो जादू टोना नहीं दिखाते, उनमे भी मीडिया ट्रायल होता है, वे भी दिल्ली-नोएडा से शायद ही बाहर जाते हैं, वे भी कंटेंट के नाम पर दीवालिया हैं, उनके लिए भी दिल्ली के आसपास ही पूरा भारत है.

किसी का पति या बच्चा मर गया हो, पूछते हो ' आपके पति/बेटे की मौत हो गई है आपको कैसा लग रहा है?' संजय दत्त से उसके पिता की शवयात्रा में पूछा गया 'आपके पिता की मौत हो गई है आपको कैसा लग रहा है?' विनोद दुआ ने एड्स से मरते हुए आदमी से पूछा, 'आप एक महीने के अंदर मर जायेंगे यह जानकर कैसा महसूस हो रहा है?'

ज़रा आइना देखो फ़िर बात करो, प्रिंट में मनोहर कहानियाँ, सरस सलिल, सत्यकथा हैं तो आउटलुक, इंडिया टुडे, सन्डे इंडियन जैसी पत्रिकाएं भी हैं, हाँ समाचारपत्र (खासकर हिन्दी) ज़रूर चैनलों की लाइन पर चल पड़े है.

अब अगर सरकार मीडिया रेग्युलेशन बिल लाती है तो मुझे और बाकी पढ़े लिखे लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी.

विवेक सिंह said...

मैं भी इस सबके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानता . पर इतना है कि पहले टी वी पर न्यूज देखने का मन करता था . अब नहीं करता . अखबार से ही काम चलाते हैं

shama said...

Shabhagan badhaeeke saath....Rating kaise hotte hai ye mujh nahee pata, par haan, TV serialsme se to bilkul dilchaspee hat gayee hai...news bhee jab koyi phone karke kehta hai to dekhtee hun....Doordarshanpe aanewale serials tatha Z TV ke shuruati daurkr serials sab khatm ho gaye...ab epsode writers hote hain...ek epsode kee doosreke saath continuity...??Ye kya cheez hotee hai bhala??Mere gharke TV kaa astitv mai bhool chukee hun...kabhi kabar National Gegraphik pe chalee jaatee hun, warna redio pe laut aayee hun...jahan aankhonkaa koyi sarokar nahe...!Aur apne pasandeeda geetonko chun, chun CDs bana rakhee hain!

प्रदीप मानोरिया said...

सत्य को उजागर करता बहुत सार्थक आलेख बधाई आपका चिठ्ठा जगत में स्वागत है निरंतरता की चाहत है
बधाई स्वीकारें मेरे ब्लॉग पर भी पधारें

shama said...

Kshama chahtee hun..."Shubh agman" likhnaa chahtee thee....!
Gar dastandaazi na lage to pls word verification hata den, bura to nahee laga?

शोभा said...

अच्छा लिखा है आपने. चिटठा जगत मैं आपका स्वागत है.

प्रकाश गोविंद said...

भाई अनंत जी !
बहुत छोटा सा कलम घिस्सू हूँ मै भी ! मानता हूँ कि किसी भी चीज की आलोचना करना बेहद आसान होता है !
लेकिन सवाल ये है कि सामाजिक सरोकार जैसी भी कोई चीज़ होती है या नही ! आपका लेख पढ़ कर मुझे लगा कि शायद आप ठीक से स्वयं भी न्यूज़ चैनल्स नही देखते....... ठीक वैसे ही जैसे हलवाई अपनी मिठाई नही खाता ! पहले कितने चाव से मै न्यूज़ चैनल देखा करता था ! अब क्या देखूं ? आप ही बताईये ! किसी भी घटना को आप लोग ऐसा आलिफ लैला का किस्सा बना देते हैं कि उफ़ ....तौबा,,,,,तौबा ! जरा याद करिए जब एक माँडल का टॉप रैंप पे गिर गया था ......अभिषेक - ऐश्वर्या की शादी.......शिल्पा शेट्टी का 'किस' वाला प्रसंग ....
.....जाने दीजिये अनगिनत घटनाएं हैं ..... और अभी लेटेस्ट आरूषी मर्डर केस ..... जब सारे चैनल्स वाले शार्लेक होम्स टाइप जासूस बन गए थे ! खोपड़ी पका देते हैं आप चैनल्स वाले और मासूमियत से कहते हैं हमारा क्या कसूर ?

Dr. Anil Kumar Tyagi said...

भैया कमाल है आपका क्या लिखा है आपने, वास्तविक्ता से मूंह मोड्ना कोइ आप से सीखे, आप लम्बी गाडी में चलते होगें, लेकिन रोब दिखने को उसके शिशे पर बडा-बडा प्रेस जरुर लिखवाया होगा, यातायात नियम का उल्लघंन होने पर पुलिस वाले को कहते होगे कि पाता नहीं मैं रिपोर्टर हुं? क्या आपने कभी अपना आम आदमी की तरह इमानदारी से चलान कटवाया है। भैया बडी गाडी बडे होने का प्रमाण नही होती, बडा होता है चरित्र। जिस चित्र को टी वी चेनल अश्लील बताकर भांडा फोड करते हैं उसे पूरा दिन दिखाते हैं क्या यह नैतिक्ता है? बडी गाडी तो एक वैश्या, बेईमान्, भ्रष्टाचारी, लूटेरा भी ले सकता है, क्या ये तरक्की की श्रेणी में आता है? मेरे लिखने में त्रुटी हो सकती है लेकिन मै क्या कहना चाह्ता हूं, आप अच्छे से समझ गये होगें। कृ्पया अपनी आंखों से यह झूठ का आवरण उतार कर यथार्थ को समझने का प्रयस करो।

Amit K Sagar said...

kahaa ja saktaa hai ki, media ik had tak vishwasneey tha, magar iskee aantarik sachchai mediajan jaante hi hain, magar jo bharosaa aamjan ke liye thaa, inmein budhijiv varg ab samjhne lgaa hai,,,par ik bdaa tabkaa ab bhi...iskee us chapet mein hai...jahaan se kisi na kisi roop mein use haani ho rhee hai.

Vineeta Yashsavi said...

ab to TV mai news dekhne ka matlab hai ki samya ki barbadi. TV se kahi zyda achhi news radio mai sunne ko mil jati hai.

fgfgdg said...

इसे क्या कहू मजाक या कहानी शायद कहानी है। रामगोपाल वर्मा की किसी फिल्म की तरह सत्य से मतलब नही।

मिडीया बाले बरी गाडी से घुमते है क्यों कि उन्हें विदेश से पैसा मिलता है इस देश के साथ द्रोह करने के लिये हमेशा वैसी खबर दिखातें जो इस देश के लिये घातक है। हा अगर कोई मसाला खबर हो तो दिन भर चलता रहता है जैसे राखी सावंत का वैलेन्टान डे के दिन अपने दोस्त को थप्पड मारना। दिन भर विचारा टी.वी चैनल में मार खाता रहा। झूठा स्टिग बना कर टी.आर.पी बढाने का कोशीश करना। जम्मू में हिन्दु मरे उन्हे मतलब नही है लेकिन अगर एक आतंकवादि अगर
पुलिस से मारा गया तो चैनल बालों का कान खरा हो जाता है ।
ये है सच्चाई

सोनू said...

सरकारी रेटिंग एजंसी बनाने की एक धमकी पर दूरदर्शन की टीआरपी अचानक कैसे उछल गई थी? पढ़ें:

दूरदर्शन को नंबर वन घोषित करने का शिगूफा