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Sunday, May 17, 2009

बचपन पर हमला


कुछ दिनों पहले की बात है कि हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी ने बताया कि एक दिन वो अपनी छह सात साल की बिटिया के साथ आईपीएल मैच देख रहे थे, इस बीच अचानक ब्रेक में गर्भ निरोधक गोली आई -पिल का विज्ञापन आया । उनकी बिटिया ने मासूमियत से ऐसे-ऐसे सवाल पूछे कि पिता को जबाव देते नहीं बन रहा था । बिटिया उस विज्ञापन में कहे गए शब्दों की जानकारी लेने पर उतारू थी और पिता के सामने गंभीर संकट । किसी तरह से मामला निबटा । लेकिन बच्चों की जिज्ञासा को आप बहला फुसला कर टाल नहीं सकते, क्योंकि वो फौरन इस बात को भांप लेते हैं कि उनको टरकाया जा रहा है । इसी तरह का एक और वाकया हमारी एक महिला सहयोगी ने बताया । यह वाकया बेहद दिलचस्प था- हुआ यूं कि एक दिन वो पूरे परिवार के साथ टीवी देख रही थी कि अचानक उसका साढ़े पांच का साल का बच्चा चिल्लाया- देखो मम्मियों का डायपर आया । दरअसल उसवक्त टीवी पर सैनेटरी नैपकिन का विज्ञापन आ रहा था, बच्चा बगैर कुछ सोचे समझे चिल्ला रहा था, और  ड्राइंग रूम में एक साथ बैठ कर टीवी देख रहा पूरा परिवार सन्न । सब एक दूसरे से नजरें छिपा रहे थे । ये तो उस वक्त हुआ जब बच्चे परिवार के साथ या फिर अपने मां-बाप के साथ टीवी देख रहे थे, और उनके मन में विज्ञापनों को देखकर जो भी सवाल उठते हैं उसे वो जानने की कोशिश कर रहे थे । उस वक्त की कल्पना करिए जब बच्चे घर में अकेले टीवी देखते हैं और ऐसे विज्ञापनों को देखकर उनके मन में जो सवाल उठते हैं, उस वक्त इसका जबाव देने वाला कोई होता नहीं है और बाल मन पर इसका क्या असर पड़ता होगा, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है । 
इस बात को ज्यादा अरसा नहीं बीता है । मैं अपने परिवार के साथ दिल्ली के पास के एक मॉल में घूम रहा था । अपनी बिटिया के लिए कपड़ों की तलाश में भटकते हुए बच्चों के कपड़ों के सेक्शन में चला गया । मेरी बेटी को स्कर्ट और लंहगा बेहद पसंद है इसलिए हमलोग उसकी तलाश में जुट गए । हम जहां  कपड़े देख रहे थे वहीं पर कुछ और युवा मां भी अपनी छोटी छोटी बेटियों के साथ खरीदारी कर रही थी । सबलोग अपने बच्चों की पसंद नापसंद का ध्यान रख रहे थे और बच्चे थे कि बड़ों की तरह कपड़ों को रिजेक्ट किए जा रहे थे । मां-बाप अपने-अपने बच्चों को मनाने में जुटे थे । अचानक तीन चार साल की एक लड़की ट्रायल रूम से अपनी मम्मी के साथ रोती हुई बाहर आई और अपने पापा की ओर मुखातिब होकर कहा कि पापा मुझे ये स्कर्ट पसंद नहीं है, मुझे ये नहीं लेना है । युवा पापा ने अपनी युवा पत्नी से पूछा कि क्या हो गया ये रो क्यों रही है । मम्मी ने रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ कहा कि अपनी बिटिया से ही पूछ लो । जब उसने अपनी छोटी और प्यारी सी बिटिया से पुचकार कर पूछा तो उसने सुबकते हुए कहा कि पापा इसमें नेवल नहीं दिखता, इसलिए मुझे ये नहीं लेना है । उसकी ये बात सुनते ही मेरे समेत वहां मौजूद कई लोग चौंके, लेकिन उस छोटी बच्ची की मां ने कहा कोई बात नहीं बेटा दूसरा ट्राई कर लेते हैं ।उस बच्ची ने इतनी बड़ी बात कह दी लेकिन उनके मां-बाप ने इसे बेहद सहजता से लिया ।  इतनी बड़ी बात उस छोटी सी लड़की ने कहा और उसके मां बाप ने जिस अंदाज में लिया वो मेरे लिए न  सिर्फ चौंकाने वाला था बल्कि चकित करनेवाला भी । मैं जब उस सुपर स्टोर से बाहर निकला तो मेरे जेहन में बार बार उस छोटी सी बच्ची की प्रतिक्रिया गूंज रही थी । मैं लगातार अपने आप से ये जानने की कोशिश कर रहा था कि क्या वजह थी जो उस छोटी सी बच्ची ने कहा कि मम्मा नेवल नहीं दिखता । उसके लिए इसके मायने क्या थे, कहां से ये सोच उसके अंदर आई, किससे प्रभावित होकर उसने ये कहा और उसके मां बाप ने इसे उतनी सहजता से कैसे लिया । ये बात मुझे इतना परेशान कर रही थी कि मैं वापस उस स्टोर में गया तो वो लोग बाहर निकलते हुए मिल गए । मैंने उस बच्ची के पिता को रोका और उनसे पूछा कि उस बच्ची ने नेवल नहीं दिखने जैसी बात क्या सोचकर कही और उसके लिए इसके मायने क्या हैं । उसके पिता ने छूटते ही कहा अरे भाई साहब आप किस चक्कर में पड़े हो ये बिल्कुल नई पीढ़ी है और इनकी सारी सोच  टेलीविजन के हिसाब से चलती है ,आजकल ये टीवी पर आनेवाले डांस शो के ड्रेसेस देखकर अपनी ड्रेस तय कर रही हैं । ये कहकर वो युवा दंपत्ति सहज भाव से आगे बढ़ गया ।  
ये तीन घटनाएं ऐसी हैं जो हमें ये सोचने पर विवश करती हैं कि टेलीविजन ने हमारे समाज को, हमारे जीवन, हमारे रहन सहन को किस कदर प्रभावित कर दिया है कि तीन चार साल की बच्ची भी, जो देश का भविष्य है, इसके प्रभाव से अछूती नहीं रह सकी हैं । 
हमसे और हमारी पीढ़ी के पहले के लोग सिनेमा से जबरदस्त रूप से प्रभावित होते थे । अमिताभ बच्चन से लोग इतने प्रभावित हुए थे कि कई लोगों ने अपने बच्चों का नाम विजय रख दिया था जो आमतौर पर अमिताभ की हर फिल्मों में उसका नाम होता था । अमिताभ के बोलने के अंदाज भी लोगों को खूब भाया और उसकी भी जमकर नकल हुई । राजेश खन्ना के स्कार्फ का जादू भी उस जमाने के लड़कों के सर चढकर बोलता था । ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी के बाद तो कपड़े के एक खास डिजाइन का नाम ही बॉबी प्रिंट हो गया । फिर सलमान की एक फिल्म आई थी- मैंने प्यार किया- जिसमें उसने एक टोपी पहनी थी जिपर फ्रेंड लिखा था और बाजार में हर दूसरा लड़का उसी तरह की फ्रेंड लिखी टोपी पहने नजर आने लगा था । लेकिन फिल्मों से आमतौर पर युवा वर्ग प्रभावित होता रहा है, बल्कि अच्छी बुरी चीजें अपनाता भी रहा है । लेकिन ये तो टेलीविजन का ही कमाल है कि उसने घर-घर में बच्चों को भी अपनी जद में ले लिया । बच्चे ना केवल टीवी पर आनेवाले सिरियल से प्रबावित होते हैं बल्कि विज्ञापन भी उन्हें बेहद पसंद आते हैं और नवो उनकी नकल भी करते हैं । रियल्टी शो की नकल करने में कई बच्चों की जान भी जा चुकी है । ये सबकुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा है और देश के   भविष्य पर भी टीवी के माध्यम से प्रभाव कायम करने की कोशिश की जा रही है। 
मुझे तरस आ रहा है समाज में नैतिकता के उन तथाकथित ठेकेदारों पर जो लड़कियों के पहनावे पर पहरा लगाने की कोशिश में गाहे बगाहे हंगामा बरपाते रहते हैं । लड़कियों के बीयर बार में मौजूदगी पर उनपर हमले करते हैं और उनके साथ मार पीट भी करते हैं । तरस उन स्कूल कॉलेज प्रशासन पर भी आता है जो ड्रेस कोड के नाम पर गाहे बगाहे जींस और स्कर्ट पर प्रतिबंध लगाने की नाकाम कोशिश कर हंगामा को आमंत्रण देते हैं । उनकी इन हरकतों से कुछ भी नहीं होनेवाला है क्योंकि उनको ये नहीं पता कि टीवी के मार्फत कब हमारी पूरी की पूरी संस्कृति खामोशी से बदल गई इसका  इल्म न तो भारतीयता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों को है और न ही स्कूल कॉलेज में बैठे प्रशासकों को । भारतीय संस्कृति के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले भगवा ब्रिगेड की अज्ञानता पर तरस आता है । अब भी वो सतयुग में जी रहे हैं, दुनिया कहां से कहां चली गई और वो धोती कुर्ते और साड़ी में ही उलझे हुए हैं, समाज में हुई खामोश क्रांति का ना तो उन्हें इल्म है ना ही अंदाज । वो तो विश्वविद्यालय के उन आलोचकों की तरह हैं जो अब भी निराला और मुक्तिबोध में ही उलझे हुए हैं, कुछ तो मीरा और कबीर की रचनाओं में ही नया अर्थ ढूंढ रहे हैं । 
मुझे तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखी वो पंक्ति याद आ रही जहां दिनकर जी ने लिखा है -- "विद्रोह क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है....घाव भी फूटने के पहले काफी दिनों तक पकता रहता है " तो हमारी संस्कृति में जो खामोश बदलाव या कहें खामोश क्रांति आई वो भी अचानक नहीं आई है । इस खामोश बदलाव के पीछे भी कई सालों तक फिल्मों या टीवी का प्रभाव रहा जो कि अपनी सभ्यता और संस्कृति को छोड़ पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में जुटे रहे और आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता परोसते रहे । नतीजा ये हुआ कि जो उम्र बच्चों के खेलने और मासूमियत भरी शैतानी करने की होती है उसमें वो अपने ड्रेस के बारे में सोच रहे है । 
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2 comments:

विवेक रस्तोगी said...

बहुत ही सरलता से गंभीर मुद्दों को समझाया है, कई बार ऐसी ही परिस्थितियाँ अपने बच्चे के सामने हमारे परिवार की भी हो जाती है।

Ganesh Prasad said...

क्या जनाब ! कहा है आप. सचमुच बताइयेगा क्या आप कभी टीवी पर ब्लू फिल्म देखे है ! अगर आपका जवाब हा हैं तो बाकि के जवाब आपको खुद मिल जायेगा !