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Monday, May 17, 2010

शीला, श्लाका और छीछालेदार

हिंदी के वरिष्ठ और बेहद प्रतिष्ठित लेखक कृष्ण बलदेव वैद के अपमान का संगीन इल्जाम झेल रही दिल्ली की हिंदी अकादमी ने आखिरकार अपना पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित कर ही लिया । लेकिन इस बार पुरस्कार अर्पण समारोह की भव्यता और लोगों की सहभागिता के बगैर आयोजित की गई । राजधानी के सबसे बड़े ऑडिटोरियम में से किसी एक में आयोजित होने वाला अकादमी का यह सालाना समारोह इस बार दिल्ली सचिवालय के एक कमरे में आयोजित हुआ। सबकुछ बेहद सरकारी और गुपचुप तरीके से किया गया । हिंदी अकादमी की यह परंपरा रही है कि वो किसी भी कार्यक्रम के लिए दिल्ली के लेखकों-पत्रकारों को आमंत्रित करती है । अकादमी की अपनी एक मेलिंग लिस्ट है जिनको हर कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाता है । लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ । यहां तक कि अकादमी के गवर्निंग वॉडी के सदस्यों तक को सिर्फ कार्ड भेजकर रस्म अदायगी कर ली गई । नतीजा यह हुआ कि जन कार्यक्रम होने की बजाए यह आयोजन सरकारी कार्यक्रम में तब्दील होकर रह गया । वरिष्ठ साहित्यकार और हंस के संपादक ने बेहद सटीक टिप्पणी की और कहा कि अगर अकादमी को पुरस्कार वितरण की रस्म अदायगी ही करनी थी तो लेखकों को कूरियर से चेक और स्मृति चिन्ह भेज देती । समारोह में शीला दीक्षित ने हिंदी अकादमी की स्वायत्ता को लेकर बड़ा लंबा चौड़ा भाषण दिया लेकिन अकादमी की स्वायत्ता का जिस तरह से गला घोंटा गया उसके लिए शीला दीक्षित ही जिम्मेदार हैं । दरअसल हिंदी अकादमी अब पूरी तरह से सरकार का भोंपू बनकर रह गया है । हिंदी के प्रचार प्रसार की आड़ में सरकार के मंत्रियों और विधायकों को खुश करने और जनता के बीच उनकी छवि बनाने का काम होता है । इसके अलावा बड़े और रसूखदार लोगों की साहित्यिक लिप्सा को भी दिल्ली की हिंदी अकादमी संतुष्ट करती है । इसका एक उदाहरण आपको देते चलें । इसी पुरस्कार वितरण समारोह में हिंदी अकादमी की पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती के एक अंक का लोकार्पण भी किया गया । इस अंक में एक बड़े बिल्डर को खुश करने के लिए अंत समय में हिंदी के एक वरिष्ठ कवि की कविता हटाकर उनकी कविता प्रमुखता से छाप दी गई । इस खेल का अंदाज तो पाठक स्वयं लगा सकते हैं कि बिल्डर की कविता को अंत समय में क्यों शामिल किया गया । अगर कविता उतनी ही अच्छी थी तो क्या अगले अंक का इंतजार नहीं किया जा सकता था । तो अकादमी में जिस तरह के खेल चल रहे हैं उसको देखते हुए यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि ये सरकार की छवि को बिगाड़ने का काम ज्यादा कर रहे हैं, बनाने का कम ।
दरअसल इस पूरे विवाद को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा । वर्ष 2008-09 के लिए अकादमी की कार्यकारिणी ने हिंदी के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान देने की संस्तुति की थी । उसके बाद अकादमी की अध्यक्ष की हैसियत से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने तत्कालीन कार्यकारिणी के फैसलों पर मुहर लगा थी । लेकिन बाद के दिनों में हिंदी अकादमी में प्रशासनिक अराजकता की वजह से उस वर्ष के सम्मान नहीं दिए जा सके । लेकिन अब जब अकादमी ने वर्ष 2009-10 के पुरस्कारों के साथ 2008-09 के पुरस्कारों का ऐलान किया तो 2008-09 के लिए श्ललाका सम्मान के लिए किसी का नाम घोषित नहीं किया गया । सूची से कृष्ण बलदेव वैद का नाम गायब था । बताया जा रहा है कि एक अनाम से कांग्रेसी नेता ने अकादमी की अध्यक्ष दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पत्र लिखकर कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान नहीं देने का अनुरोध किया था । कांग्रेसी नेता का आरोप है कि वैद के उपन्यास नसरीन में कई जगह अश्लील शब्दों और स्थितियों का चित्रण किया गया है । कांग्रेसी नेता की आपत्ति को तरजीह देते हुए शीला दीक्षित की अध्यक्षता वाली कमिटी ने वैद जी का नाम रोक दिया ।
कृष्ण बलदेव वेद को श्ललाका सम्मान नहीं दिए जाने पर हिंदी साहित्य में विरोध के स्वर उठने लगे थे । हिंदी के आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल, पुरुषोत्तम अग्रवाल की चिट्ठी के बाद 2009-10 के श्ललाका कवि केदारनाथ सिंह ने भी पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया । केदार जी के इस कदम के बाद तो जैसे पुरस्कार ठुकरानेवालों की लाइन लग गई । कवि-पत्रकार विमल कुमार, कवि पंकज सिंह, कवयित्रि और स्वर्गीय निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल, रेखा जैन ने भी हिंदी अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कार लेने से मना कर दिया है । लेकिन हैरानी की बात है कि पहले सार्वजनिक तौर पर विरोध जताने के बाद भी गगन ना केवल समारोह में पहुंची बल्कि मंच पर शीला दीक्षित के हाथों पुरस्कार भी ग्रहण किया । तमाम हिंदी दैनिकों ने गगन गिल की तस्वीर को प्रमुखता से छापा । गगन गिल का वहां पहुंचान हैरानी की बात थी क्योकि उनको अशोक वाजपेयी खेमे का माना जाता है और वैद जी भी उसी स्कूल ऑफ राइटर्स हैं । गगन के अलावा असगर वजाहत भी पुरस्कार लेने पहुंचे । असगर वजाहत ने शुरू से ही अपना स्टैंड साफ रखा था इस वजह से उनकी मौजूदगी को लेकर किसी को हैरानी नहीं हुई ।
इस पुरस्कार वितरण समारोह के आयोजन से कुछ बेहद अहम और बड़े सवाल खड़े हिंदी के साहिय और साहित्यकार के सामने खड़े हो गए हैं । हिंदी लेखकों का ढुलमुल चरित्र एक बार फिर से उजागर हुआ है । अकादमी के कर्ताधर्ताओं को यह मालूम है कि हिंदी के लेखकों का विरोध फौरी होता है और वो ज्यादा समय तक अपने स्टैंड पर कायम नहीं रह सकते हैं । इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाने पर हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने घोर आपत्ति जताई थी । अशोक चक्रधर को मसखरा और मंचीय कवि कहकर खिल्ली उड़ाई थी, लेकिन चंद दिनों बाद वही साहित्यकार अशोक चक्रधर के सानिध्य में मंचासीन नजर आने लगे थे । चाहे वो राजेन्द्र यादव हों या फिर नामवर सिंह या फिर कोई और वरिष्ठ लेखक । वजह ये थी कि अशोक चक्रधर सत्ता प्रतिष्ठान के करीब है, हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के अलावा वो केंद्रीय हिंदी संस्थान के भी कर्ता-घर्ता हैं । हिंदी के लेखक सरकारी लाभ का चाहे जितना विरोध करें लेकिन वो इसका लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं । छोटे –मोटे फायदे के लिए बड़े सिद्धांतो को तिलांजलि देने में इन्हें वक्त नहीं लगता । वैद जी का अपमान पूरे साहित्य जगत का अपमान है और हिंदी समाज को पूरी ताकत के साथ इसका विरोध करना चाहिए था । अफसोस की बात है कि हिंदी के लेखक पुरजोर तरीके से शीला दीक्षित सरकार का विरोध नहीं कर सके और सरकार ने अपनी मनमानी कर ली । लेकिन इससे दिल्ली सरकार की जमकर किरकिरी हुई । आज नहीं तो कल शीला दीक्षित को इस बात का एहसास होगा लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी होगी ।

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