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Wednesday, July 28, 2010

उग्र और आक्रामक विमर्श

1.लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें – शिया धर्म गुरू कल्बे जव्वाद

2.महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ या देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए । नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है ।- राम जन्मभूमि न्यास अध्यक्ष महंथ नृत्यगोपाल दास

3.महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । -गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत
4. अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी- सामजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव
ये चार बयान अलग-अलग धर्म और विचारधारा के लोगों के हैं जो किसी समुदाय, वर्ग या सूबे की रहनुमाई करते हैं । दरअसल ये सारे बयान घोर सामंती व्यवस्था की पुरुषवादी मानसिकता का बेहद कुरुप चेहरा है । उस व्यवस्था का जहां महिलाएं बच्चा पैदा करने की मशीन हैं, बच्चा पालना उनका परम धर्म है । परिवार की देखभाल और अपने पति की हर तरह की जरूरतों पर जान न्योछावर करने की घुट्टी उसे जन्म से पिलाई जाती है । उस आदिकालीन वयव्स्था में महिलाएं गुलाम हैं जिनका परम कर्तव्य है अपने स्वमी की सेवा और स्वामी है पुरुष । इस पाषाणकालीन व्यवस्था में यकीन रखनेवाले पुरुषों को यह कतई मंजूर नहीं है कि महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करें । महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक और दर्जा मिले । महिलाएं देश की नीति नियंता बने । उपर बयान देने वाले चारो महापुरुष इसी सामंती और पुरुष प्रधान व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष हैं । महिलाओं का विरोध है किसी सिद्धांत, धर्म, आस्था, विश्वास या वाद के परिधि से परे है । जब भी महिलाओं की बेहतरी की बात होती है तो सभी सिद्धांत, वाद, समुदाय, धर्म धरे रह जाते हैं । प्रबल हो जाता है कठोर पुरातनपंथी विचारधारा जो महिलाओं को सदियों से दबा कर रख रहा है और आगे भी चाहता है कि वो उसी तरह दासता और पिछड़ेपन की बेड़ियों में जकड़ी रहें ।

लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी हैं और पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्व के विरोध में स्त्रियां उठ खड़ी होनी लगी हैं । राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श की जो आग सुलगाई थी अब वो लगभग दावानल बनता जा रहा है । स्त्री लेखिकाओं ने पुरुष की सत्ता को चुनौती देनी शुरू कर दी है । इन्हीं चुनौतियों के बीच पत्रकार गीताश्री की किताब– नागपाश में स्त्री- का प्रकाशन हुआ है । गीताश्री ने इस किताब का संपादन किया है जिसमें पत्रकारिता, थिएटर, साहित्य. कला से जुड़ी महिलाओं ने पुरुषों की मानसिकता और स्त्रियों को लेकर उनके विचारों को कसौटी पर कसा है । गीताश्री की छवि भी स्त्रियों के पक्ष में मजबूती से खड़े होने की रही है और पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने अपने लेखन से स्त्री विमर्श को एक नया आयाम दिया है । गीताश्री का बेबाक और आक्रामक लेखन पुरुषों की स्त्री विरोधी मानसिकता को शिद्दत से चुनौती देता है । अपनी इस किताब की भूमिका में लेखिका ने लिखा- आज बाजार के दबाव और सूचना-संसार माध्यमों के फैलाव ने राजनीति, समाज और परिवार का चरित्र पूरी तरह से बदल डाला है, मगर पितृसत्ता का पूर्वाग्रह और स्त्री को देखने का उसका नजरिया नहीं बदला है, जो एक तरफ स्त्री की देह को ललचायी नजरों से घूरता है तो दूसरी तरफ उससे कठोर यौन-शुचिता की अपेक्षा भी रखता है । पितृसत्ता का चरित्र भी वही है । हां समाज में बड़े पैमाने पर सक्रिय और आत्मनिर्भर होती स्त्री की स्वतंत्र चेतना पर अंकुश लगाने के उसके हथकंडे जरूर बदले हैं । गीताश्री ने अपने इस कथन ते समर्थन में कई उदाहरण दिए हैं । कमोबेश यही स्थिति समाज में व्याप्त है । यह हमारे समाज की एक कड़वी हकीकत है कि पुरुष चाहे जितने स्त्रियों के साथ संबंध बनाए उसकी इज्जत पर बट्टा नहीं लगता है बल्कि वो फख्र से सीना चौड़ा कर इसे एक उपलब्धि की तरह से पेश करता है । लेकिन वहीं अगर स्त्री ने अपनी मर्जी से अपने पति के अलावा किसी और मर्द के साथ संबंध बना लिया तो इसके चरित्र, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी शिक्षा-दीक्षा सभी सवालों के घेरे में आ जाते हैं । वो कुलटा तक करार दे दी जाती हैं ।

लेकिन अब हालात तेजी से बदलने लगे हैं, स्त्रियां भी अपने मन की करने लगी हैं । इसी किताब के अपने एक लेख में उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा है – औरत करती वही है जो उसका दिल करता है, दिखावा चाहे वो जो करे । समाज के लिए स्त्री के प्रेम संबंध अनैतिक हो सकते हैं मगर स्त्री के लिए नैतिकता की पराकाष्ठा है । मैत्रेयी पुष्पा ने माना है कि आवारा लड़कियां ही प्यार कर सकती हैं । अपने लेख में मैत्रेयी पुष्पा ने इस बात का खुलासा नहीं कि वो किस प्यार की बात करती हैं- दैहिक या लौकिक । क्योंकि उन्होंने लिखा है कि मेरे पांच सात प्रेमी रहे तो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर मुझे मिले । लेकिन लेख में नायब साहब और एदल्लला के साथ तो प्यार जैसी कोई चीज थी, देह तो बीच में कभी आई ही नहीं । इस किताब में बुजुर्ग लेखिका रमणिका गुप्ता का भी एक बेहद लंबा और उबाऊ लेख है । रमणिका गुप्ता ने बेवजह अपने लेख को लंबा किया है । किताब की संपादक को इस पर ध्यान देने की जरूरत थी । अपने लंबे और उबाऊ लेख के अंत में रमणिका गुप्ता ने भारतीय समाज में स्त्रियों की बदतर हालत के लिए धर्म और सामाजिक परंपरा को जिम्मेदार ठहराया है । अपने इस तर्क के समर्थन में गुप्ता ने दो उदाहरण भी दिए हैं । पहला उड़ीसा और दूसरा मध्यप्रदेश का है जहां अठारह बीस साल की लड़कियों का विवाह बालकों से कर दिया जाता है । परंपरा की आड़ में तर्क यह दिया जाता है कि खेतों में और घर का काम करने के लिए जवान लड़की चाहिए । लेकिन इस तरह के विवाह में योग्यता ससुर की परखी जाती है । पति के जवान होने तक बहू ससुर के साथ देह संबंध बनाने के लिए अभिशप्त होती है । मनुस्मृति में भी कहा गया है – पति की पूजा विश्वसनीय पत्नी द्वारा भगवान की तरह होनी चाहिए, यदि वह अपनी ‘सेवाएं’ देने में किसी तरह की भी कोई कोताही बरते तो उसे राजा से कहकर कुत्तों के सामने फिंकवा देना चाहिए । अपने इसी लेख में रमणिका गुप्ता ने यह भी कहा है कि दलित स्त्रियां सवर्ण स्त्रियों की तुलना में ज्यादा स्वतंत्र होती है । इस बात तो साबित करने के लिए भी रमणिका के अपने तर्क हैं ।

जैसा कि उपर बताया गया है कि इस किताब में साहित्य के अलावा अन्य क्षेत्र की महिलाओं के भी लेख हैं । आमतौर पर सारे लेख वयक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिख गए हैं । मशहूर गायिका विजय भारती का भी एक दिलचस्प लेख इस किताब में संग्रहीत है । विजय भारती ने अपने लेख में यह साबित करने की कोशिश की है कि समाज और परिवार में किस तरह से बचपन से ही लड़कियों को यौन शुचिता की घुट्टी पिलाई जाती है । जब बचपन में लड़कियां खेलने जाती हैं तो उनको यह कहा जाता है कि देखना लड़कों के साथ मत खेलना माने लड़कों के साथ खेलने से उसकी शुचिता नष्ट हो जाएगी । बचपन की बात क्यों जवान लड़कियां भी दजब घर से बाहर निकलती हैं तो परिवार के लोग उसके साथ छह सात साल के उसके भाई को लगा देते हैं, जो उसकी रक्षा करेगा । यह एक ऐसी हकीकत है जिससे आपको हर रोज दो चार होना पड़ता है । विजय भारती ने अपनी एरक कविता के जरिए अपनी बात रखी है – हैं कई गरमागरम उसके फसाने शहर में/घात के मेले लगे हैं इस बहारे शहर में/रुख हवाओं के, उसे लूटा किए हर कदम पे/बने अपने ही लुटेरे, कितने जाने शहर में/दुश्मनी उसकी किसी से कुछ न थी, कुछ नहीं है/आग लेकर क्यों खड़े हैं लोग अपने शहर में/

इनके अलावा फायरब्रांड और अपनी लेखनी को एके 47 की तरह इस्तेमाल करनेवाली मनीषा ने अपनी खास शैली में अपनी बात कही है । मनीषा लिखती हैं कि भारत में चालीस साल के उपर के लगभग नौ करोड़ आदमी स्वीकृत रूप से नपुंसक हैं, जाहिरा तौर पर उनकी सेक्स जाती रही हो । पर सामाजिक पारिवारिक दबावों में इनकी पत्नियां चूं तक नहीं कर पाती । ...और अगर स्त्री बच्चा नहीं जन सकती तो भी उसकी शारीरिक संरचना पुरुष को भरपूर यौनानंद देने के काबिल तो रहती ही है । मनीषा की जो शैली है वो बेहद तीखी और खरी-खरी कहने की है – लड़की बिन ब्याह के अगर किसी लड़के का लिंग छू ले तो ये भ्रष्ट हो जाएगी पर आप अपनी कोहनियां उसके स्तनों में खोंसते फिरें तो यह धार्मिकता मानी जाएगी । इसके अलावा जयंती, निर्मला भुराड़िया, असीमा भट्ट के भी पुरुष सत्ता के खिलाफ आग उगलते लेख इस किताब में हैं ।

कुल मिलाकर अगर हम स्त्री विमर्श के प्रथम पुरुष राजेन्द्र यादव को समर्पित इस किताब पर समग्रता से विचार करें तो यह लगता है कि राजेन्द्र यादव की पीढ़ी ने जिस विमर्श की शुरुआत की थी वो अब विरोध से आगे बढ़कर विद्रोह की स्थिति में जा पहुंचा है । इस लिहाज से गीताश्री की यह किताब अहम है कि युवा लेखिकाओं के विचार बेहद उग्र और आक्रामक हैं । जो बात स्त्री विमर्श का झंडा बुलंद करनेवाली लेखिकाएं खुलकर नहीं कह पा रही थी वो बात अब युवा लेखिकाओं के लेख में सामने आने लगी है । इन युवा लेखिकाओं के तेवरों से यह लगता है कि स्त्री विमर्श ने एक नया मुकाम और नई शब्दावली भी तैयार कर ली है । लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या सदियों पुरानी परंपराओं और मानसिकता को बदलना इतना आसान है जबाव है नहीं लेकिन इस वजह से प्रयास तो छोड़े नहीं सकते, और उसी का नतीजा है – नागपाश में स्त्री

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