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Saturday, September 4, 2010

हिंदी साहित्य में लालूवाद

अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा पर अरबों रुपये के घोटाले के आरोप लगे । मधु कौड़ा से जुड़ी खबरें हर रोज मीडिया में सुर्खियां बनती रही । उसके कई सहयोगियों के नाम भी सामने आने लगे । मधु कौड़ा और उनके सहयोगियों के बारे में तफ्तीश शुरू हुई । इस बीच अचानक से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व रेल मंत्री लालू यादव ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर यह सफाई दी कि उनका मधु कौड़ा से कोई लेना देना नहीं है । लालू की इस सफाई से लोगों को हैरानी भी हुई । कई पत्रकारों ने प्रेस कांफ्रेंस में उनसे सवाल भी पूछा कि वो क्यों सफाई दे रहे हैं,जबकि उनका नाम कहीं से मधु कौड़ा के घोटाले में शामिल नहीं है । लालू यादव ने अपने ही अंदाज में बात को हवा में उड़ा दिया और कहा कि उन्हें अपने स्त्रोंतो से पता चला कि लोग उनपर शक कर रहे हैं सो उन्होंने मुनासिब समझा कि सफाई दी जाए । ठीक इसी तरह का वाकया अब हिंदी साहित्य में सामने आया है । विभूति-कालिया प्रकरण में जब विवाद ठंड़ा पड़ने लगा तो अचानक से पिछले हफ्ते हिंदी के वरिष्ठ कवि और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में लालू यादव के तर्ज पर इस विवाद को पर्दे के पीछे से हवा देने के आरोपों पर अपनी सफाई दी । अशोक वाजपेयी ने लिखा- इस बीच एक और अफवाह फैलाई गई । कुंवर नारायण और मैं इस प्रसंग में ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन से मिले हैं । अव्वल तो इस प्रसंग को लेकर कुंवर जी से मेरी बात तक नहीं हुई । दूसरे इंदू जैन से कोई बीस बरस पहले नाश्ते पर एक सौजन्य भेंट हुई थी जब मुझे नवभारत टाइम्स के संपादक का पद ऑफर किया गया था । उसके बाद उनसे कभी नहीं मिला । तीसरे जो कुछ मैं इस विवाद में चाहता हूं उसे खुलकर बता चुका हूं – गुप कोई काम करना मेरी आदत में शामिल नहीं है । पर इस झूठ को सरासर फैलाने का काम शुरू किया गया । इस प्रकरण में अशोक जी ने के विक्रम सिंह से लेकर विजय मोहन सिंह और केदार नाथ सिंह का नाम भी लिया । लेकिन सवाल यह उठता है कि अशोक जी को सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ी । ऐसी कौन सी अफवाह फैलाई जा रही थी कि अशोक जी जैसे गंभीर लेखक को अपने लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ में सफाई देने की जरूरत पड़ी ।
दूसरी बात जो अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में उठाई वो नैतिकता और लेखकों के अपमान की । अशोक वाजपेयी के मुंह से नैतिकता की बात भी उसी तरह लगती है जैसे कि लालू यादव के मुंह से । साहित्य जगत उन्नीस सौ चौरासी के अशोक वाजपेयी के बयान को भूला नहीं है । भोपाल गैस त्रासदी के आसपास ही अशोक वाजपेयी ने एशिया पोएट्री का आयोजन किया था । तब वो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के चहेते अफसर और भारत भवन के कर्ता-धर्ता थे । जब भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की जान गई तो उसी शहर में कविता पर उक्त आयोजन पर सवाल खड़े होने लगे थे। तब अशोक वाजपेयी ने बयान दिया था कि मरनेवालों के साथ कोई मर नहीं जाता । अशोक वाजपेयी का वह बयान बेहद अमानवीय और मनुष्यता के खिलाफ था और एक लेखक और वयक्ति की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा नमूना।
साहित्य में स्वतंत्रता और जनपक्षधरता की बात करनेवाले अशोक वाजपेयी मूलत: नौकरशाह हैं और भारत में अफसरशाही की कंडीशनिंग इस तरकह से होती है कि वहां ना तो संवेदना के लिए कोई जगह होती है और ना ही नैतिकता के लिए । आप खुद इस बात का अंदाजा लगाइये कि जिस शहर में तकरीबन पच्चीस हजार लोग काल के गाल में समा गए हों उसी शहर के अफसर अशोक वाजपेयी का उक्त बयान कितना संवेदनहीन है । उस एक बयान के लिए ही अशोक वाजपेयी को माफ नहीं किया जा सकता है । आज अशोक वाजपेयी नैतिकता की दुहाई देते हैं लेकिन तब उनकी नैतिकता कहां चली गई थी जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार हथिया लिया था । गौरतलब है कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है लेकिन वो संबद्ध तो संस्कृति मंत्रालय से ही है । नैतिकता का उपदेश देने के पहले अशोक जी को खुद के गिरेबां में झांक कर देख लेना चाहिए । यहां भी वो लालू यादव के पद चिन्हों पर ही चलते नजर आ रहे हैं । घोटालों के आरोप से घिरे लालू यादव भी गाहे बगाहे नैतिकता और राजनैतिक शुचिता की बात करते हैं ।
अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि हिंदी लेखक समाज अपने सदस्यों के अपमान करनेवालों को सुख चैन से अपनी कुर्सी पर बैठने नहीं देगा । जो निर्लज्ज फिर भी उंची कुर्सी पर जमे हैं वे खुद जानते हैं कि उनका कद कितना नीचा हो गया है । आज अशोक वाजपेयी को हिंदी साहित्य समाज के अपमान की याद आ रही है लेकिन वो खुद हिंदी के लेखकों का कितनी बार अपमान कर चुके हैं , कितनी बार उसका मजाक उड़ा चुके हैं यह उनको याद दिलाने की जरूरत है । अशोक वाजपेयी जब साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव हारे थे तब हिंदी के लेखकों के खिलाफ विषवमन किया था । अपनी हार से तिलमिलाए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि – जिन हिंदी के लेखकों को महीनों-महीने रखा, खिलाया पिलाया, हवाई जहाज से यात्राएं करवाई उन्होंने ही मुझे धोखा दिया । उनके निशाने पर हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक और एक कवि थे । आज वही अशोक वाजपेयी हिंदी के लेखकों के अपमान करनेवालों के निर्लज्ज कह रहे हैं । क्या यही भाषा एक वरिष्ठ लेखक को इस्तेमाल करनी चाहिए । क्या लिखते लिखते अशोक वाजपेययी मर्यादा भूल जाते हैं या फिर व्यक्तिगत खुन्नस लेखक पर हावी हो जा रहा है । जिनको वो निर्लज्ज कह रहे हैं उनका कद साहित्य में अशोक वाजपेयी से कई गुना बड़ा है, उम्र में तो उनसे बड़े हैं ही ।
अपने उसी स्तंभ में अशोक वाजपेयी साहित्य के परिसर को मूल्यों का परिसर बताते हुए विभूति नारायण राय और रविन्द्र कालिया पर वार करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक वाजपेयी महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे । तब उनपर एक बड़े परिसर में मूल्यों के दायित्व का निर्माण करने की महती जिम्मेदारी थी लेकिन उस वक्त भी वहां क्या-क्या गुल खिले थे वो किसी से छिपे नहीं हैं इस विषय पर कभी विस्तार से चर्चा होगी । अशोक जी हिंदी के मूर्धन्य रचनाकार हैं, किसी भी विवाद पर पूरा हिंदी जगत उनसे बगैर किसी पूर्वग्रह के हस्तक्षेप की उम्मीद करता है । लेकिन इस पूरे विवाद में अशोक जी पूर्वग्रहों से उपर नहीं उठ सके ।

2 comments:

satyarthmitra said...

बड़ों की बड़ी बात...। अब क्या कहा जाय।?:(

Dr. Braj Kishor said...

प्रिय मित्र
पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं हिंदी साहित्य के इस गृह युद्ध से मैं लगभग अपरिचित था.सामंती सोंच के साथ गिरोहात्मक संरचना के सन्दर्भ में ही विवद को समझा जा सकता है.