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Sunday, October 17, 2010

सोनिया की जीवनी के बहाने

अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब द रेड साड़ी को लेकर कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अच्छा खासा बवाल मचाया था । दरअसल स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की ये किताब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है । लेखक मोरो का दावा है कि यह पूरी किताब सोनिया के बचपन से लेकर उनकी राजीव गांधी से मुलाकात और शादी से लेकर सास इंदिरा गांधी के साथ बिताए दिनों के अलावा राजीव गांधी की हत्या का बाद सोनिया की मानसिकता का चित्रण करती है । दरअसल मोरो की इस किताब से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सोनिया गांधी अपने पति की हत्या के बाद भारत छोड़कर इटली जाना चाहती थी । मोरो की किताब में पृष्ठ संख्या सोलह पर इस बात का उल्लेख है कि सोनिया ने सोचा कि उस देश में क्यों रहना जो अपने ही बच्चों को खा जाता है । इसके अलावा पृष्ठ संख्या एक सौ छिहत्तर पर भी इस बात के संकेत हैं कि गांधी परिवार में राजीव की मौत के बाद इटली जाने पर चर्चा होती थी । इस किताब में कई ऐसे प्रसंग है जहां ये लगता है कि लेखक ने सोनिया की जिंदगी के यथार्थवादी पहलुओं में अपनी कल्पना का तड़का लगाया है । जैसे पृष्ठ संख्या एक सौ तिरसठ पर कहा गया है कि रात के तीन बजे सोनिया ने राजीव को कहा कि देश में इमरजेंसी लगाने के ड्राफ्ट में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी ।
ये कुछ ऐसी बातें हैं जिससे साबित होता है कि जेवियर मोरो ने सोनिया की इस जीवनी में कल्पना के आधार पर कई प्रसंग जोड़े हैं । खुद लेखक ने भी माना है कि यह सोनिया की फिक्सनलाइज्ड बायोग्राफी है । लेकिन यहां सवाल यह खड़ा होता है कि किसी जीवित व्यक्ति की काल्पनिक जीवनी लिखने का अधिकार किसी को भी कैसे मिल सकता है । जबतक इस आत्मकथा पर विवाद नहीं खड़ा हुआ था तब तक तो इसको सोनिया गांधी ती जीवनी बताकर ही प्रचारित किया जा रहा था और बेचा भी जा रहा था । सबसे पहले ये जीवनी अक्तूबर दो हजार आठ में स्पेनिश में छपी और बाद में इसका अनुवाद इटैलियन, फ्रैंच और डच में हो चुका है । एक अनुमान के मुताबिक अबतक इस किताब की तीन लाख प्रतिया बिक चुकी हैं । जाहिर है लेखक ने तीन भाषाओं के बल पर एक बडा़ बाजार और पाठक वर्ग हासिल कर लिया है ।
अब जेवियर मोरो इसको अंग्रेजी में प्रकाशित कर भारतीय बाजार के अलावा अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के बाजार में सोनिया गांधी के नाम को भुनाना चाहते हैं । जैसा कि उपर संकेत किया गया है कि इसमें इटली में सोनिया के बचपन को प्रमुखता से छापा गया है । मोरो लिखते हैं- सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए । चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनियो अलबिना मैनो । लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया नाम दिया । रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई थी । सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से पराजित हो गई थी । सोनिया जियोवेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन उतनी ही पढाई की जितनी की जरूरत थी । यानि वो अच्छी विद्यार्थी नहीं थी लेकिन पढ़ाई में कमजोर होने के बावजूद वो हंसमुख और दूसरों की मदद को तत्पर रहती थी । कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थी । आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान सोनिया के मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जगा था ले किन वो सपना जल्द ही बदल गया । उसके बाद सोनिया विदेशी भाषा की शिक्षक या फिर संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक बनने की ख्वाहिश पालने लगी ।
उपरोक्त प्रसंगों के सामने आते ही कांग्रेस के नेताओं ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी । कांग्रेस का आरोप है कि मोरो ने वास्तविकता से छेड़छाड़ की है लेकिन मोरो का दावा है कि उसकी किताब एक वृहद और लंबे रिसर्च का नतीजा है । जेवियर मोरो के मुताबिक तथ्यों और घटनाओं की सत्यता को जानने परखने के लिए उन्होंने खुद सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया । उसका तो यह भी दावा है कि उसवे किताब छपने के पहले उसकी पांडुलिपि सोनिया गांधी की बहन नाडिया को भी दिखाई थी क्योंकि वो स्पैनिश जानती थी । इसके अलावा मोरो ने किताब छपने के बाद सोनिया को भी उसकी एक प्रति भेजी । मोरो का कहना है कि नाडिया ने किताब पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की जबकि सोनिया की तरफ से कोई जबाव ही नहीं मिला ।
कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों और लेखक को कानूनी नोटिस के हो हल्ले के बीच जेवियर मोरो की किताब सोनिया और उसके इर्द गिर्द के विवादों और घटनाओं में सिमटकर रह गई। जबकि इस किताब में बीजेपी की सांसद और सोनिया की देवरानी मेनका गांधी के बारे में ज्यादा विस्फोटक प्रसंग छपे हैं, जो घटनाओं के चश्मदीदों के बयानों पर आधारित होने की वजह से ज्यादा प्रामाणिक प्रतीत होते हैं । इस किताब में मोरो ने मेनका और इंदिरा गांधी की पहली मुलाकात का बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है । जब मेनका पहली बार इंदिरा गांधी से मिलने पहुंची तो बेहद डरी और सहमी हुई थी । बावजूद इसके जब वो अपनी होनेवाली सास को अपना परिचय देने लगी तो यह बात छुपा गई कि वो एक तौलिया कंपनी के विज्ञापन की मॉडल है । इंदिरा गांधी मेनका से पहली मुलाकात के बाद उसके और उसके परिवार के बारे में और ज्यादा जानकारियां इकट्ठा करना चाहती थी लेकिन संजय गांधी बेहद जल्दबाजी में थे और उन्होंने मंगनी कर ली । जब सगाई के बाद दोनों परिवार साथ खाने बैठे तो और बातचीत के दौरान इंदिरा गांधी को इस बात का एहसास हुआ कि मेनका और उसके परिवार के लोग ना तो उतने पढ़े लिखे हैं और ना ही विचारों में आधुनिक ।
बेटे संजय गांधी की जिद की वजह से तेइस सितंबर उन्नीस सौ चौहत्तर को गांधी के पारिवारिक मित्र मोहम्मद युनुस के घर पर संजय और मेनका परिणय सूत्र में बंध गए । यहां पर जेवियर मोरो ने इस बात के संकेत दिए हैं कि मेनका को गांधी परिवनार में एडजस्ट करने में सोनिया से ज्यादा दिक्कत हुई । मेनका को सिगरेट पीने की आदत थी जबकि संजय ध्रूमपान को सख्त नापसंद करते थे, इंदिरा गांधी बीमारी की वजह से और सोनिया अस्थमा की वजह से धुंआ बरदाश्त नहीं कर पाती थी । एक बार तो मेनका के व्यवहार से राजीव गांधी काफी खिन्न हो गए थे । हुआ यह था कि मेनका सोफे पर बैठकर सिगरेट पी रही थी और सोनिया घर के काम में हाथ बंटा रही थी । इसको देखकर राजीव गांधी को बेहद कोफ्त हुई थी जिसे उन्होंने जाहिर भी किया था ।
एक और बेहद ही दिलचस्प वाकया इस किताब में है । एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह जब गांधी परिवार से मिलने उनके घर गए तो वहां कुत्तों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा था । किताब के मुताबिक मेनका के आइरिश वुल्फहाउंड और सोनिया के शांत से अफगानी कुत्ते के बीच लड़ाई चल रही थी । सोनिया दोनों को अलग करना चाह रही थी लेकिन मेनका इस झगड़े से मजा ले रही थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसका कुत्ता सोनिया के कुत्ते से मजबूत था । मेनका ने सोनिया पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खुशवंत सिंह के साथ मिलकर सूर्या पत्रिका भी निकाली थी ।
लेखक ने इंदिरा गांधी की सचिव उषा के हवाले से लिखा है कि मेनका बेहद ही बुद्धिमती लेकिन महात्वाकांक्षी थी । उसे हर वक्त यह लगता था कि जल्द ही संजय गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे, और वो गाहे बगाहे इस बात तो सार्वजनिक रूप से कहती भी थी । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । सतहत्तर में कांग्रेस की कारी हार के बाद जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो इंदिरा गांधी मेनका को लेकर बेहद चिंतित रहने लगी । उन्होंने अपनी दोस्त पुपुल जयकर से अपनी चिंता जताते हुए कहा भी था कि मेनका की मां की महात्वाकांक्षा उसको संजय की जगह लेने के लिए प्रेरित करेगी । इस सोच को बल मिला खुशवंत सिंह के एक लेख से जिसमें उन्होंने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि संजय की मौत के उनकी राजनीतिक वारिस मेनका हैं । खुशवंत सिंह ने यह भी लिखा कि मेनका संजय गांधी की तरह बहादुर हैं और दुर्गा की अवतार हैं । जाहिर है खुशवंत सिंह के इस लेख से इंदिरा गांधी आहत हुई क्योंकि बांग्लादेश युद्द में विजय के बाद इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से होने लगी थी । खुशवंत की इस तुलना से इंदिरा गांधी के मन में इस बात का संदेह पैदा हो गया कि मेनका की रजामंदी के बाद ही खुशवंत ने वो लेख लिखा ।
उसके बाद संजय पर लिखी किताब को लेकर विवाद और बढ़ा । राजीव गांधी की राजनीति में आने पर मेनका की आपत्तियों से इंदिरा गांधी बेहद खफा रहने लगी । लेकिन जब सन उन्नीस सौ बयासी में मेनका ने इंदिरा गांधी के मना करने के बावजूद लखनऊ में लंबा चौड़ा भाषण दे डाला तो इंदिरा गांधी ने मेनका के खिलाफ निर्णय लेने का मन बना लिया । मेनका के लखनऊ से वापस लौटते ही गुस्से से भरी इंदिरा गांधी ने उसको तत्काल घर से बाहर निकल जाने का हुक्म सुना दिया । घर से बाहर निकालने के वक्त हुए हाई वोल्टेज ड्रामा पर भी मोरो ने विस्तार से लिखा है ।
ये सारी बातें लिखते हुए मोरो ने किताब में एक डिस्क्लेमर भी लगाया है - बातचीत, संवाद और स्थितियां लेखक के व्याख्या पर आधारित है और यह जरूरी नहीं है कि वो प्रामाणिक भी हो । लेकिन यहां एक बार फिर से सवाल खडा़ हो जाता है कि किसी भी जीवित वयक्ति की जीवनी को फिक्शनलाइज कैसे किया जा सकता है । क्या लेखकीय आजादी के नाम पर कुछ भी काल्पनिक लिखने की इजाजत किसी लेखक को दी जा सकती है । इन्हीं सवालों और कानूनी पचड़ों के बीच भारतीय पाठकों को इस किताब का बेसब्री से इंतजार है ।

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