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Saturday, January 1, 2011

उदय प्रकाश नहीं थे पहली पसंद

इस वर्ष के साहित्य अकादमी पुरस्कारों का एलान हो गया है । हिंदी के लिए
इस बार का अकादमी पुरस्कार यशस्वी कथाकार और कवि उदय प्रकाश को उनके
उपन्यास मोहनदास(वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिए दिया गया । उदय प्रकाश
साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं बल्कि उन्हें तो अरुण कमल,
राजेश जोशी और ज्ञानेन्द्रपति के पहले ही यह सम्मान मिल जाना चाहिए था ।
जब मैंने पुरस्कार के एलान होने के दो दिन पहले अपने ब्लाग पर इस बारे
में लिखा तो जूरी के सदस्य मुझसे खफा हो गए । मैंने अपने ब्लाग- हाहाकार-
पर पुरस्कार के चयन के लिए हुई बैठक में जो बातें हुई, जो सौदेबाजी हुई
उसपर लिखा था। पहले मैंने तय किया था कि इस विषय पर अब और नहीं लिखूंगा
लेकिन जब मुझे परोक्ष रूप से धमकी मिली तो मैंने तय किया कि और बारीकी से
सौदेबाजी को उजागर करूंगा । जो कि ना केवल अकादमी के हित में होगा बल्कि
हिंदी का भी भला होगा । इस बार के पुरस्कार के चयन के लिए जो आधार सूची
बनी थी उसमें रामदरश मिश्र, विष्णु नागर, नासिरा शर्मा, नीरजा माधव, शंभु
बादल, मन्नू भंडारी और बलदेव वंशी के नाम थे । हिंदी के संयोजक विश्वनाथ
तिवारी की इच्छा और घेरेबंदी रामदरश मिश्र को अकादमी पुरस्कार दिलवाने की
थी । इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे
और चित्रा मुद्गल का नाम जूरी के सदस्य के रूप में प्रस्तावित किया और
अध्यक्ष से स्वीकृति दिलवाई । लेकिन पता नहीं तिवारी जी की रणनीति क्यों
फेल हो गई- जब पुरस्कार तय करने के लिए जूरी के सदस्य बैठे तो रामदरश
मिश्र के नाम पर चर्चा तक नहीं हुई । बैठक शुरू होने पर अशोक वाजपेयी ने
सबसे पहले रमेशचंद्र शाह का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन उसपर मैनेजर
पांडे और चित्रा मुदगल दोनों ने आपत्ति की । कुछ देर तक बहस चलती रही जब
अशोक वाजपेयी को लगा कि रमेशचंद्र शाह के नाम पर सहमति नहीं बनेगी तो
उन्होंने नया दांव चला और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । जाहिर
सी बात है कि मैनेजर पांडे को फिर आपत्ति होनी थी क्योंकि वो उदय प्रकाश
की कहानी पीली छतरी वाली लड़की को भुला नहीं पाए थे । उन्होंने उदय के
नाम का पुरजोर तरीके से विरोध किया । पांडे जी के मुखर विरोध को देखते
हुए उनसे उनकी राय पूछी गई । मैनेजर पांडे ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम
लिया और उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की वकालत करने लगे । मैनेजर
पांडे के इस प्रस्ताव पर अशोक वाजपेयी खामोश रहे और उन्होंने चित्रा
मुदगल से उनकी राय पूछी । बजाए किसी लेखक पर अपनी राय देने के चित्रा जी
ने फटाक से अशोक वाजपेयी की हां में हां मिलाते हुए उदय प्रकाश के नाम पर
अपनी सहमति दे दी । इस तरह से अशोक वाजपेयी की पहली पसंद ना होने के
बावजूद उदय प्रकाश को एक के मुकाबले दो मतों से साहित्य अकादमी पुरस्कार
देना तय किया गया ।
उधर हिंदी भाषा के संयोजक विश्वनाथ तिवारी का सारा खेल खराब हो गया और
रामदरश मिश्र का नाम आधार सूची में सबसे उपर होने के बावजूद उनको
पुरस्कार नहीं मिल पाया । यहां यह भी बताते चलें कि उदय प्रकाश और
रमेशचंद्र शाह दोनों के ही नाम हिंदी की आधार सूची में नहीं थे । लेकिन
यहां कुछ गलत नहीं हुआ क्योंकि जूरी के सदस्यों को यह विशेषाधिकार
प्राप्त है कि वो जिस वर्ष पुरस्कार दिए जा रहे हों उसके पहले के एक वर्ष
को छोड़कर पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृति प्रस्तावित कर सकते हैं ।
इस वर्ष दो हजार छह, सात और आठ में प्रकाशित कृति में से चुनाव होना था ।
मैं पिछले कई वर्षों से साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में होनेवाले
गड़बडियों और घेरबंदी पर लिखता रहा हूं । वहां कई ऐसे उदाहरण हैं जहां
घेरबंदी कर पुरस्कार दिलवाए गए । जब हिंदी के कवि वीरेन डंगवाल को
उनके कविता संग्रह-दुश्चक्र में स्रष्टा-पर पुरस्कार दिया गया तो उस वक्त
के हिंदी के संयोजक गिरिराज किशोर पर सारे नियम कानून ताक पर रखकर डंगवाल
को पुरस्कृत करने के आरोप लगे थे । गिरिराज किशोर ने वीरेन डंगवाल को
पुरस्कार दिलावने के लिए श्रीलाल शुक्ल, कमलेश्वर और से रा यात्री की
जूरी बनाई । जब नियत समय पर जूरी की बैठक होनी थी उस वक्त कमलेश्वर बीमार
हो गए और श्रीलाल शुक्ल जी को बनारस ( अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही
है तो ) से दिल्ली आना था और किन्हीं वजहों से उनका जहाज छूट गया और वो
नहीं आ पाए । पुरस्कार का एलान करवाने की इतनी जल्दी थी कि से रा यात्री
को कमलेश्वर के पास भेजकर अस्पताल से उनकी राय मंगवाई गई । श्रीलाल
जी से फैक्स पर उनकी राय मंगवाई गई और फिर से रा यात्री और गिरिराज किशोर
ने दोनों की सहमति के आधार पर वीरेन डंगवाल का नाम तय कर दिया
यह उठा कि गिरिराज जी की क्या बाध्यता थी कि वो पुरस्कार की इतनी जल्दी घोषणा कर दें
। अगर आप अकादमी के स्वर्ण जयंती के मौके पर प्रकाशित डी एस राव की
किताब- साहित्य अकादमी का इतिहास देखें तो उसमें कई ऐसे प्रसंग हैं जहां
कि पुरस्कार का एलान रोका गया और बाद में उसको घोषित किया गया ।
वीरेन डंगवाल की प्रतिभा पर किसी को शक नहीं था और ना ही है, वो
हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि हैं, लेकिन जिस तरह से जल्दबाजी में जूरी के
दो सदस्यों की अनुपस्थिति में उनका नाम तय किया गया उस वजह से पुरस्कार
संदेहास्पद हो गया । हलांकि उस वक्त विष्णु खरे, भगवत रावत, विजेन्द्र और
ऋतुराज भी दावेदार थे जो किसी भी तरह से वीरेन डंगवाल से कमजोर कवि
नहीं हैं ।
साहित्य अकादमी में सौदेबाजी का एक भरा पूरा इतिहास रहा है । जब गोपीचंद
नारंग का अकादमी के अध्य़क्ष के रूप में कार्यकाल खत्म हुआ तो उनपर दवाब
बना कि वो दूसरी बार चुनाव नहीं लड़ें । चौतरफा दवाब में उन्होंने चुनाव
तो नहीं लड़ा पर अपने कैंडिडेट को अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे । जब
हिंदी भाषा के संयोजक के चुनाव का वक्त आया तो गोपीचंद नारंग की पसंद विश्वनाथ
तिवारी थे । लेकिन कैलाश वाजपेयी ने उसमें फच्चर फंसा दिया और वो भी
चुनाव लडने को तैयार हो गए । उस वक्त आपसी समझदारी में यह तय हुआ कि
कैलाश वाजपेयी चुनाव नहीं लड़ेंगे बदले में उनको अकादमी का पुरस्कार दिया
जाएगा । उन्हें यह भी समझा दिया गया कि अगर वो भाषा के संयोजक हो जाएंगे
तो उनको पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । पुरस्कार मिलने के आश्वासन के बाद
कैलाश वाजपेयी ने चुनाव नहीं लड़ा और विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक
बन गए । उन्होंने अपने संयोजकत्व में पहला पुरस्कार गोविन्द मिश्र को
दिया और अगले वर्ष कैलाश वाजपेयी को उनकी कृति हवा में हस्ताक्षर के लिए
पुरस्कार मिला ।
अब वक्त आ गया है कि अकादमी के पुरस्कारों में पूरी
पारदर्शिता बरती जाए और जूरी के सदस्यों के नाम के साथ-साथ उनकी राय को
भी सार्वजनिक किया जाए । पहले तो जूरी के सदस्यों का नाम भी गोपनीय रखा
जाता था लेकिन बाद में उसे सार्वजनिक किया जाने लगा । अब तो अकादमी को
जूरी की बैठक की वीडियो रिकॉर्डिंग भी करवानी चाहिए ताकि पारदर्शिता के
उच्च मानदंडों को स्थापित किया जा सके । मुझे याद है कि जब साहित्य
अकादमी का स्वर्ण जयंती समारोह मनाया जा रहा था तो विज्ञान भवन में
प्रधानमंत्री की मौजूदगी में अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष गोपीचंद नारंग
ने अपने भाषण में नेहरू जी को उद्धृत करते हुए कहा था कि - मुझे विश्वास है
कि प्रधानमंत्री अकादमी के कामकाज में दखल नहीं देंगे । नारंग के इस मत
पर प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने सहमति जताई थी । उस वजह से ही
अकादमी में तमाम गडबड़ियों के आरोप से घिरे गोपीचंद नारंग अपने कार्यकाल
के आखिर तक ड़टे रहे थे । लेकिन जहां स्वायत्ता आती है वहां जिम्मेदारी
भी साथ साथ आती है । यह अकादमी के कर्ता-धर्ताओं का दायित्व है कि जहां
भी संदेह के बादल छाने लगे उसे तथ्यों को सामने रखककर साफ करें ।
पुरस्कारों के मामले में तो यह तभी हो सकता है जब कि चयन से लेकर जूरी की
मीटिंग और उसकी कार्यवाही पूरी तरह से पारदर्शी हो और जो चाहे वो इस बाबत
अकादमी से सूचना प्राप्त कर सके । तभी देश के इस सबसे बड़े साहित्यिक
संस्था की साख बची रह सकेगी ।

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