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Sunday, April 17, 2011

महानगरीय जीवन की त्रासदी

राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक बेहद पॉश इलाके की बहुमंजिला इमारत के एक फ्लैट में सात महीने से दो बहनें गुमनाम जिंदगी जी रही थी । ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्तिगत अवसाद और असुरक्षा बोध की वजह से दोनों बहनें अनुराधा और सोनाली ने खुद को अपने फ्लैट में कैद कर लिया था । पिछले सात महीनों से दोनों बहनें ना तो घर से बाहर निकल रही थी और ना ही बाहर की दुनिया से या फिर अपने नाते रिश्तेदारों से कोई संपर्क रख रही थी । यह भी बेहद हैरान करनेवाला और चौंकानेवाल तथ्य सामने आया है कि चंद फीट के फासले पर मौजूद दूसरे फ्लैट में रह रहे परिवारों से भी उनका किसी तरह का कोई नहीं संबंध था । सात महीने बाद जब मीडिया में खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस की मौजूदगी में गैर सरकारी संगठन की मदद से फ्लैट को दोनों बहनों के विरोध के बावजूद ताला तोड़ कर खोला गया तो अंदर का मंजर दिल दहला देनेवाला था । फ्लैट में भयानक बदबू के बीच जिंदगी जी रही दोनों बहनों की हालत बेहद खराब थी । पूरे फ्लैट में खाने पीने का कोई सामान मौजूद नहीं था । जाने कब से दोनों बहनों ने खाना नहीं खाया था। महीनों की तन्हाई और कुछ नहीं खाने-पीने की वजह से एक बहन तो नरकंककाल में तब्दील हो चुकी थी और दूसरी चलने फिरने लायक तो थी लेकिन अस्पताल पहुंचते ही उसकी हालत भी खराब हो गई । बड़ी बहन तो खुलेपन में चौबीस घंटे भी जिंदा नहीं रह सकी जबकि दूसी भी सदमे में और तमाम बीमारियों की वजह से अस्पताल में बेंटिलेटर पर मौत और जिंदगी के बीच झूल रही है । नोएडा की इन बहनों की यह काहनी बेहद डरावनी लगती है लेकिन उससे भी भयावह है समाज का और हमारा आपका संवेदनाशून्य हो जाना । आपके पड़ोस में दो अकेली लड़की रहती है, उसके माता-पिता की मौत हो चुकी है, भाई वयक्ति कारणों से घर छोड़कर जा चुका होता है । दोनों की नौकरी चली जाती है । आर्थिक और समाजिक असुरक्षा का बोध इतना गहरा हो जाता है कि वो खुद को अपने घर में कैद कर लेती है । इतना सबकुछ होने के बाद भी आस पड़ोस के लोग दोनों बहनों की हालात से बेखबर रहते हैं, दो घरों के बीच की दीवार इतनी मोटी हो जाती है कि दीवार के उस पार तिल तिल कर मर रही दो जिंदगियों की सिसकियां भी पड़ोसियों को सुनाई नहीं देती या फिर हम उन्हें सुनना नहीं चाहते । इन दोनों की कारुणिक दास्तान से हमको, हमारे समाज को लेकर कई बड़े सवाल खड़े हो गए हैं । क्या इन बहनों की हालत के लिए हम और आप जिम्मेदार नहीं है । एक बहन की मौत खुदकुशी नहीं बल्कि हत्या है । समाज की संवेदनाशून्यता ने उनकी हत्या कर दी । सवाल यह उठ खड़ा होता है कि हम और आप इतने संवेदनहीन क्यों हो गए हैं । क्यों समाज और आस पड़ोस को लेकर हमारी संवेदनाएं मर गई हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी परंपरा से हम इतने दूर क्यों चले गए हैं । इन सवालों का जबाव ढूंढने की अगर हम कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि महानगर की भागदौड़ की जिंदगी और पैसा कमाने की हवस ने हमको ना केवल संवेदनशून्य बना दिया बल्कि हम स्वकेंद्रित भी होते चले गए । इस आपाधापी में हमारा परिवार और हमारा समाज हमसे दूर होता चला गया । हम महानगर की भाग दौड़ की जिंदगी में अपने को स्थापित करने की होड़ में इतने डूब गए कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराने लगे । पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण और उसके बाद उसके अंधानुकरण ने हमसे हमारे समाज को अलग कर दिया । नतीजा यह हुआ कि महानगरों में न्यूक्लियर फैमिली की अवधारणा को बल मिलता चला गया है । मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे की अवधारणा ने परिवार के बाकी बचे लोगों को अलग-थलग कर दिया । इस अलगाव की वजह से परिवार के अन्य लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा होती गई । इस असुरक्षा की भावना ने उनको डिप्रेशन का शिकार बना दिया जिससे वो मनोरोग के शिकार होते चले गए । हाल ही में एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में सिर्फ दस फीसदी लोग संयुक्त परिवार में रहते हैं जबकि 76 फीसदी लोग एकल परिवार का हिस्सा हैं । इस एकाकीपन का जो खौफ होता है, अपने परिवार से अलग होने या रहने का जो एक अजीब अनुभूति होती है जिसे हर कोई वयक्त नहीं कर पाता है, अंदर ही अंदर घुटते रहने से और अपनी भावनाओं को जज्ब करने से मानसिक रोगी होने का खतरा बढ़ जाता है। महानगरों में एकल परिवार की अवधारणा को बढावा देने के दो अहम कारण हैं- पहला तो काम करने या फिर पढ़ाई लिखाई के जगह का दूर होना और दूसरा परिवार में पर्सनल स्पेस की कमी । अभी कुछ दिनों पहले इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के तीन महानगरों में कराए गए सर्वे का नतीजा भी बेहद हैरान करनेवाला है । आईसीएमआर के उस सर्वे के मुताबिक दिल्ली में रहनेवाले आठ प्रतिशत लोग तनाव के शिकार हैं जबकि चंडीगढ़ और पुणे में स्थिति थोड़ी सी बेहतर है जबकि चेन्नई में हालात बेहद खराब हैं और वहां तकरीबन सोलह फीसदी लोग मानसिक रोगी हैं । अगर हम पूरे देश पर नजर डालें तो तकरीबन सवा करोड़ लोग किसी ना किसी तरह के मानसिक रोग के शिकार हैं । सिर्फ दिल्ली में ही दो हजार एक के मुकाबले दो हजार दस में मानसिक रोगियों की संख्या में छह फीसदी का इजाफा हुआ है । यहां हमें यह याद रखना होगा कि इसी दस साल में देश ने आधुनिकता का दामन कसकर पकड़ा और उन्मुक्त अर्थवयवस्था ने देश में अपने पांव पसारे । इसके अलावा अगर हम इंडियम साइकेट्रिक सोसाइटी की सालाना रिपोर्ट पर गौर करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि एकांत अवसाद का प्रमुख कारक है और तकरीबन पचपन फीसदी लोगों की सामाजिक भागीदारी नग्णय है । इसमें ज्यादातर वो लोग हैं जो अन्य शहरों या सूबों से नौकरी की तलाश में यहां आए और अपना कोई समाज नहीं बना पाए । सामाजिक सहभागिता कम होने की वजह से लोग अवसाद के शिकार होते चले गए । अगर मनोचिकित्सकों की मानें तो सामाजिक या पारिवारिक या फिर आर्थिक असुरक्षा बोध में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा जल्दी डिप्रेशन की शिकार हो जाती हैं और अकेलापन इस डिप्रेशन को और बढ़ा देता है । महिलाओं के अलावा महानगरों में बुजुर्गों में भी असुरक्षा का बोध ज्यादा होता है । अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर योग्य बनाने के बाद उनके बच्चे उन्हें ही छोड़ जाते हैं । कई परिवारों के साथ तो यह भी देखने को मिलता है कि बेटे-बहू एक ही शहर में अलग रहते हैं और बुजुर्ग मां-बाप भी उसी शहर में अलग मकान में रहते हैं । मां-बाप को उम्र के उस मुकाम पर जब अपने औलाद के साथ की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी वो अलग हो जाते हैं । इसल अलगाव से जो मानसिक तनाव या फिर बच्चों की संवेदनहीनता से एकाकीपन का जो गहरा एहसास होता है वो उन्हें अंदर से तोड़ देता है जिसकी भरपाई ताउम्र नहीं हो पाती है। नोएडा में दोनों बहनों की इस घटना ने हमारे समाज को एक बार फिर से झकझोर दिया है और यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि महानगरों की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में एकाकी से बढ़ रहे अवसाद या फिर डिप्रेशन को कैसे रोका जाए ।

1 comment:

अतुल अग्रवाल said...

वाकई दर्दनाक स्थिति है सर.