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Friday, June 10, 2011

नक्सलियों को रोकने की कवायद

अभी कुछ दिनों पहले केंद्र सरकार की तरफ से वनवासियों और आदिवासियों के कल्याण और उनके हितों का ध्यान रखने के लिए कई सकारात्मक कदम उठाए गए हैं और अनेक पहल के संकेत भी मिले हैं । भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी और विपक्ष के हमलों से हलकान केंद्र सरकार को अब देश के जंगलों और पिछड़े इलाके में रहनेवाले आदिवासियों और जंगल आधारित उत्पादों पर आधारित जीवन बसर करनेवाले लोगों की याद आई है। केंद्र सरकार की तरफ से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वो जंगली पेड़ों और उससे जुड़े उत्पाद को छोड़कर अन्य जंगली उत्पादों जैसे बांस, महुआ तेंदू पत्ता आदि का समर्थन मूल्य तय करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है । सरकार इनकी बिक्री और भंडारण के लिए कृषि उत्पाद और बिक्री कमीशन के अलावा फूड कॉर्पेरेशन ऑफ इंडिया की तर्ज पर संस्थाएं बनाना चाहती है । ये जंगली उत्पाद लाखों वनवासियों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन है लेकिन पुरानी सरकारी नीतियों में इतनी खामियां हैं कि वनवासियों को अपने वाजिब हक के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ती है। सरकार के इस फैसले के पीछे राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक वजहें तो हैं ही,पर्यावरण संरक्षण भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं । पहली बात तो यह कि सरकार ऐसा करके राजनैतिक तौर पर यह संदेश देना चाहती है कि वो आदिवासियों और जंगल में रहनेवाले लोगों के हितों को लेकर गंभीर है । इस राजनैतिक कारण के पीछे हम सोनिया गांधी के कुछ दिनों पहले पार्टी के मुखपत्र कांग्रेस संदेश लिखे उनके लेख में इसके संकेत पकड़ सकते हैं । अपने लेख में सोनिया गांधी ने सरकार को जंगली इलाकों में समावेशी विकास करने की सलाह दी थी । सोनिया गांधी का उक्त लेख छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के जवानों की जघन्य हत्या के बाद छपा था । सोनिया गांधी के अपने लेख में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के कामों पर जोर देने की सलाह दी थी । ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार ने वहीं से क्यू लेते हुए जंगली उत्पादों का समर्थन मूल्य तय करने की योजना बनाई ।
अब तक जंगल के इलाकों में ठेकेदार और वहां सक्रिय दलाल अपने इलाके के उत्पादों की खरीद फरोख्त में मनमानी कर रहे हैं । जंगल के उन उत्पादों के बारे में कोई ठोस सरकारी नीति नहीं होने या फिर दोषपूर्ण सरकारी नियमों की वजह से दलाल चांदी काट रहे हैं और आदिवासियों का जमकर शोषण हो रहा है । उन इलाकों में बिचौलिए ही जंगली उत्पादों की कीमतें तय करते हैं और भोले-भाले गरीब आदिवासियों को उनकी मेहनत के उचित मूल्य से महरूम कर देते हैं । बिचौलियों की यही भूमिका और ज्यादती उन इलाके में माओवादियों को वनवासियों के बीच अपनी जमीन पुख्ता करने का मौका देती है । आदिवासियों के हक की बात करके और उनके शोषण के खिलाफ आवाज उठाकर माओवादियों ने आदिवासियों का दिल जीता और उनके बीच अपनी पकड़ भी मजबूत बनाई । अगर सरकार उन इलाकों में जंगली उत्पादों की बिक्री व्यवस्था को दुरुस्त कर और उसके भंडारण के लिए उचित इंतजाम कर सके तो यह एक बड़ी सफलता होगी । फूड कॉर्पोरशेन जैसी कोई संस्था बनाकर अगर जंगली उत्पादों के उन्हीं इलाकों में भंडारण की व्यवस्था हो सके तो आदिवासियों को उनके उत्पादों पर ज्यादा दाम मिल पाएगा । इसका एक बड़ा फायदा यह होगा कि उन इलाकों में नक्सलियों और माओवादियों की लोकप्रियता कम होगी और उनको कमजोर किया जा सकेगा ।
इस तरह की योजना बनाते समय सरकार को देश के अलग-अलग इलाकों के लिए अलहदा योजना बनानी होगी । पूरे देश में अगर एकीकृत समर्थन मूल्य की नीति बनाई जाती हो तो वह दोषपूर्ण होगी क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्सों में इन उत्पादों की सप्लाई और उसका बाजार अलग है । इसके अलावा यह भी जरूरी है कि कास इलाके को ध्यान में रखकर वहां इन उच्पादों के भंडारण का इंतजाम किया जा सके ताकि जब बाजार में मूल्य अधिक मिल रहा हो उस वक्त उन उत्पादों को बेचकर आदिवासियों को ज्यादा मुनाफा हो । इस वयवस्था को बनाते वक्त सरकार को यह भी द्यान देना होगा कि फूड कॉर्पोरेशन की तरह यहां अमियमितताएं और भ्रष्टाचार नहीं हो । अगर सरकार इस तरह की वयवस्था बनाने में नाकाम रहती है तो आदिवासी और उनके उत्पाद निजी ठेकेदारों और दलालों के चंगुल से मुक्त होकर सरकारी और अर्धसरकारी दलालों के चंगुल में फंस जाएगी ।
दूसरी अहम बदलाव जिसपर सरकार विचार कर रही है या यों कहें कि केंद्रीय कैबिनेट ने फैसला ले लिया है लह ये कि बांस को लकड़ी ना मानकर घास माना जाए लेकिन इसका नोटिफिकेशन होना अभी शेष है । भारतीय वन अधिनियम के तहत अब तक बांस को लकड़ी माना जाता रहा है जिसकी वजह से किसी को भी बांस को काटने के लिए तमाम सरकारी महकमों से इजाजत लेनी पड़ती है । इस इजाजत की जड़ से भ्रष्टाचार पनपता है और शोषण की भी नींव पड़ती है । बांस को घास मानने की बहस बेहद लंबी है और काफी समय से चल रही है । वनस्पति विज्ञान में भी बांस को घास ही माना गया है । लेकिन अंग्रेजो के जमाने के कानून में बदलाव की फिक्र हमें आजादी के 40 साल बाद हो रही है । अगर बांस को लकड़ी मानने के कानून से आजाद कर दिया जाता है तो तकरीबन दस हजार करोड़ की बांस आधारित उद्योग से बनवासियों से काफी लाभ मिलेगा और देश में नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव को भी कम किया जा सकेगा ।

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