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Wednesday, July 13, 2011

'सांस्कृतिक क्रांति' पर बवाल

चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में कुछ दिन पहले मैंने बिहार सरकार के कला और संसकृति मंत्रालय के कॉफी टेबल बुक बिहार विहार के बहाने सूबे में सांस्कृतिक संगठनों की सक्रियता, उसमें आ रहे बदलाव और सरकारी स्तर पर उसके प्रयास की चर्चा की थी । अपने उस लेख में मैंने बिहार सरकार के हाल-फिलहाल में किए गए कामों को रेखांकित करते हुए लालू-राबड़ी राज को इन कला और सांस्कृतिक संस्थाओं की दुर्गति के लिए जिम्मेदार ठहराया था । मेरे इस लेख पर कई लोगों को सख्त आपत्ति है । उस लेख के जबाव में कई लेख लिखे गए । लेख के बहाने मुझ पर व्यक्तिगत टिप्पणियां की गई । लेकिन प्रतिलेख लिखनेवाले विद्वतजनों ने अपनी आपत्ति में जो तर्क दिए वो उनकी विद्वता के अनुकूल नहीं है । मेरे लेख की जबाव में लिखा गया लेख चूंकि प्रतिक्रिया में लिखे गए हैं इसलिए वो हल्के हैं । हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है लेकिन जब प्रतिक्रिया में बदले की भावना और वयक्तिगत राग-द्वेष शामिल हो जाए तो वह नरेन्द्र मोदी वाली प्रतिक्रिया हो जाती है । लोगों ने मुझपर ये भी आरोप लगाए कि मैं अपनी सवर्ण ग्रंथि के तहत लालू यादव को बिहार की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराता हूं और नीतीश कुमार को उसी ग्रंथि के तहत शीर्ष पर पहुंचाता हूं । लालू यादव के बारे में लिखी गई मेरी टिप्पणी से वो इतने आहत हो गए कि उनलोगों ने यह भी पता लगा लिया कि मैं कितने पानी में हूं । मेरे लेख को सावधानी के पढ़े बगैर मेरी जाति और मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर राय बना लेनेवाले इन विद्वानों की समझ पर सिर्फ मुस्कुराया जा सकता है । हंसी तो कतई नहीं आती । बिहार में लालू यादव के शासनकाल के दौरान सूबे की क्या दुर्गति हुई थी इस बारे में किसी को कुछ कहने की या कुछ साबित करने की जरूरत ही नहीं है । जिस तरह से हर साल कोसी में बाढ़ आती है और पूरे इलाके में तबाही मचा देती है उसी तरह सरकारी विभागों में चारा,अलकतरा, बीएड घोटालों की बाढ़ ने पूरे सूबे के विकास की राह को तबाह कर दिया था । क्या लालू यादव की जय जयकार करनावालों को यह बताने की जरूरत है कि लालू-राबड़ी शासनकाल के दौरान बिहार में ग्रोथ रेट कहां से कहां तक पहुच गया था । क्या उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि किस तरह से सूबे के अफसरों को खुलेआम उनके दफ्तर में घुसकर उनके साथ बदतमीजी की जाती थी । क्या उन्हें यह याद दिलाना पड़ेगा कि लालू के राज में अपहरण एक उद्योग में तब्दील हो चुका था । क्या उन्हें यह भी याद दिलाना होगा कि लालू की शह पर शहाबुद्दीन जैसे नेता बिहार में फल फूल रहे थे । क्या उन्हें यह भी याद दिलाना होगा कि उन पंद्रह सालों में अस्पतालों से डॉक्टर, स्कूल से शिक्षक और दफ्तरों से बाबू गायब रहा करते थे । क्या उन्हें यह भी याद नहीं कि पंद्रह साल में बिहार में परिवहन वयवस्था चंद चुनिंदा लोगों की बपौती बनकर रह गई । बिहार परिवहन निगम की खूबसूरत इमारत खंडहर में तब्दील हो गई। उस वक्त के कानून व्यवस्था की बात करने से शरीर में सिहरन हो जाती है । लालू यादव के शासन काल में बिहार सिर्फ निगेटिव ग्रोथ और छवि हासिल कर पाया । जिन लोगों लालू यादव सामजिक क्रांति के मसीहा और समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों के मसीहा नगर आते हैं उनको मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि उन दबे कुचलों ने ही उनको सत्ता से च्युत कर दिया । शासन सिर्फ नारों और जुमलों और मसखरेपन से नहीं चलता । उसके लिए ठोस कार्य और अहम फैसले करने होते हैं । दरअसल लालू यादव के बिहार विधानसभा में करारी हार के बाद कुछ लोगों को लालू में अपना भविष्य नजर आने लगा है और वो उनमें संभावना तलाशने लगे है। अब अगर मैं ये कहूं कि उनकी जातिवादी मानसिकता उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है तो मैं भी उसी ग्रंथिदोष का शिकार हो जाऊंगा जिसका आरोप मुझपर लगाया गया है ।
मेरे उस लेख की प्रतिक्रिया में जिसतरह से बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह और बाबा साहब भीराव अंबेडकर का उल्लेख किया गया वो भी बेहद हास्यास्पद और मनोरंजक है । उसपर मैं कुछ नहीं कहना चाहता ।
दूसरी बात जो साबित करने की कोशिश की गई वो यह कि लालू यादव के शासनकाल में बिहार में जमकर सांस्कृतिक गतिविधियां होती थी । इस क्रम में यह बताया गया कि लालू यादव के समय में बिहार विधान परिषद की साहित्यिक गतिविधियां ‘सुगढ़’ फ थी । इस सुगढ़ता के लिए दो उदाहरण दिए गए–एक तो उस वक्त की परिषद पत्रिका साक्ष्य और संवाद राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो रही थी । अब इस कथन का क्या किया जाए । राष्ट्रीय स्तर की तो बात छोड़िए मैं तो सिर्फ इतना कह सकता हूं कि ये पत्रिकाएं अब भी साहित्यिक हलके में अपनी जगह और पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं । जाबिर हुसैन हमारे मित्र हैं, मैं भी उन पत्रिकाओं को लगातार देखता रहा हूं । लेकिन राष्ट्रीय लोकप्रियता का कथन अति उत्साह में दिया गया प्रतीत होता है। दूसरे ये कि विधान परिषद में राजेन्द्र यादव, गुलजार, सीताराम येचुरी जैसे बौद्धिक वहां की गतिविधियों में शामिल होते थे । ये सच है कि जाबिर हुसैन के बिहार विधानसभा के सभापति रहते परिषद में कुछ साहित्यिक गतिविधियां हुई थी । उसकी तारीफ भी हुई थी । खुद जाबिर हुसैन की किताब पर लिखते हुए मैंने भी उनकी साहित्यिक सक्रियता को सराहा था । लेकिन क्या उतना भर ही काफी है । क्या मुझपर आरोप लगानेवाले यह जानते हैं कि उस वक्त कला और संसकृति मंत्री कौन थे या फिर उस मंत्रालय की पहल पर क्या सार्वजनिक कार्य किए गए ।
दिल्ली के एक समाजवादी कवि-उपन्यासकार ने भी फोन करके मुझसे बहस की । उनकी पहली लाइन थी – बेबसाइट्स पर चौथी दुनिया में छपे आपके लेख पर खूब बहस हो रही है । मैंने पढ़ा नहीं है लेकिन जैसा कि लोगों ने मुझे बताया कि आपने बिहार की सांस्कृतिक हलचल पर लिखा है । पहले तो वो फेसबुक पर लिखत-पढ़त में बहस करना चाहते थे लेकिन बाद में मौखिक बहस हुई । उनका कहना था कि बिहार की अकादमियां बहुत बुरे हाल में है । मैं उनकी राय से सौ फीसदी सहमत हूं । अकादमियों की हालत बुरी है । लेकिन फिर से मैं उसी तर्क पर लौटता हूं कि वर्तमान हालत को पिछले शासनकाल के बरक्श रखकर देखिए आपको हकीकत का पता चल जाएगा । क्या उन अकादमियों की बेहतरी की दिशा में सोचा नहीं जा रहा । क्या उनके कर्मचारियों के वेतन और अन्य सुविधाओं के बारे में सरकार ने धन मुहैया कराने की कार्ययोजना नहीं बनाई । उनको सक्रिय करने की दिशा में पहल नहीं हो रही । ये सच है कि बिहार सरकार की प्राथमिकता में कला संस्कृति नहीं है । लेकिन ये प्राथमिकता तो किसी भी सरकार की नहीं रही है और ना ही आगे रहेगी । हिंदी के नाम पर राजनीति करनेवालों को यह भी याद नहीं कि विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन होता है । हम सिर्फ बिहार की अकादमियों के बारे में ही क्यों सोचते हैं । आप देशभर की अकादमियों की तफ्तीश करके देख लीजिए- कमोबेश हर जगह आपको एक जैसे हालात नजर आएंगे । लेकिन इस तर्क पर बिहार के अकादमियों की बदहाली को जायज नहीं ठहराया जा सकता है । बिहार सरकार की कला और संस्कृति मंत्रालय की इस बात के लिए तो सराहना करनी ही चाहिए कि उसने सुधार की दिशा में कदम उठाए हैं । कवि मित्र मुझे यह भी समझाने की कोशिश करने लगे कि वो बिहार की मंत्री सुखदा पांडे की समझ को जानते हैं और उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है । मैंने उनसे निवेदन भी किया कि किसी की वयक्तिगत क्षमता को उसकी विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि उसके काम के आधार पर आंका जाना चाहिए । लेकिन उनका गुस्सा चरम पर था और वो कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे और वही संवाद टूटने की वजह बना । बातचीत खत्म होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि उन्होंने तो बगैर मेरे लेख को पढ़े किसी के कहने के आधार पर अपनी राय बना ली । खैर हिंदी की दुर्दशा के लिए यही चीज- बिना पढ़े राय बनाना- बहुत हद तक जिम्मेदार है ।
अंत में सिर्फ इतनी बात कहना चाहूंगा कि किसी विचार पर सार्थक बहस हो, तर्कों का सहारा लेकर एक दूसरे पर हमले हों। लेकिन लेखन में एक न्यूनतम मर्यादा का पालन तो हो । आजकल बेवसाइट पर हर किसी को गाली गलौच करने और व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालने की हासिल छूट को जो बेजा इस्तेमाल हो रहा है वो चिंता की बात है । मैं उस तरह के लोगों का नाम लेकर उनको वैधता नहीं प्रदान करना चाहता लेकिन उन कुंठित लोगों के बारे में हिंदी समाज को गंभीरता से सोचना होगा, नहीं तो आनेवाले दिनों में ये लंपटई हम सब पर भारी पड़ सकती है ।

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