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Tuesday, August 2, 2011

साहित्यिक “डॉन” का कारनामा

साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने के लिए अक्सर मैं दिल्ली के मयूर विहार इलाके में जाता हूं । जहां लोक शॉपिंग सेंटक के पास फुटपाथ पर तीन दुकानें लगती है । बिपिन के बुक स्टॉल पर मैं तकरीबन डेढ दशक से जा रहा हूं । इस बीच वहां पत्र-पत्रिकाओं की तीन दुकानें सजने लगी । जैसे ही मैं उसके पास पहुंचता हूं तो बिपन की दुनकान पर मौजूद शख्स मुझे या तो हंस या कथा देश या फिर पाखी पतड़ा देगा । जबतक मैं मयूर विहार इलाके में रहा तो उसकी दुकान पर नियमित जाता रहा । उसके बाद अब तो हफ्ते में एक बार ही जाना हो पाता है । वो भी इस वजह से कि इंदिरापुरम इलाके में कोई अच्छी दुकान नहीं हैं जहां साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हो । यह एक बड़ी समस्या है । किस तरह से किसी खास पत्रिका या अखबार खरीदने के लिए दस बारह किलोमीटर जाना और फिर लौटना पड़ता है । खैर अगर मौका मिला तो इस विषय पर फिर कभी विस्तार से लिखूंगा । अभी तो जब मैं मयूर विहार के बुक स्टॉल पर गया तो उसने मुझे हंस शुक्रवार, समेत कई पत्र-पत्रिकाएं पकड़ा दिया । घर लौटकर जब उन पत्र-पत्रिकाओं को उलटना पलटना शुरू किया तो हंस के ताजा अंक पर छब्बीसवें वर्ष का पहला अंक देखकर चौंका । अगस्त दो हजार ग्यारह का अंक का मुखपृष्ठ गर्व से इसकी उद्घोषणा कर रहा था कि हमने अपने प्रकाशन के पच्चीस वर्ष पूरे कर लिए हैं । है भी यह गर्व की ही बात । जब हमारे देश में एक-एक करके सारी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थी तो उस माहौल में हंस ने अपने आपको शान से जिंदा रखा । ना केवल जिंदा रखा बल्कि हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं को सेठाश्रयी पत्रिकाओं की भाषा, कलेवर और तेवर तीनों से मुक्त कर एक नया रास्ता गढ़ा । नए रास्ते पर चलना हमेशा से खतरनाक माना जाता है । राजेन्द्र जी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने हंस के लिए ना केवल नया कास्ता तलाश किया बल्कि निर्भीक होकर, आलोचनाओं के तीर झेलते हुए उसे नए रास्ते पर ही चलाए रखा ।
हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक को देखकर मैं थोड़ा नॉस्टेलिक भी हो गया । मुझे अपने कॉलेज के दिनों और अपने शहर जमालपुर की याद आ गई । हमाके शहर में रेलवे स्टेशन पर ए एच व्हीलर का स्टॉल ही हमारे लिए उम्मीद की एकमात्र किरण हुआ करता था । अस्सी के दशक के अंत में जमालपुर का व्हीलर स्टॉल इलाहाबाद के पांडे जी का हुआ करता था । वो साहित्यप्रेमी थे इस वजह से उनके स्टॉल पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं मिल जाया करती थी । राजस्थान से निकलनेवाली पत्रिका मधुमती तक उनके पास पहुंचती थी, पहल, वसुधा इंद्रपर्स्थ भारती आदि-आदि तो आती ही थी । मैंने पहली बार हंस वहीं से खरीदा था । महीना और साल ठीक से याद नहीं है । लेकिन फिर तो हंस का हर अंक खरीदने लगा, पढ़ने लगा । मंडल आंदोलन के दौरान और उसके बाद राजेन्द्र यादव के स्टैंड से घनघोर असहमतियां रही लेकिन कभी हंस खरीदना बंद नहीं किया । जमालपुर में हंस की दस प्रतियां आती थी जो महीने ती सात या फिर आठ तारीख को पहुंचती थी । दिल्ली से प्रतियां वी पी पी से आया करती थी । इस पद्धति में डाकघर जाकर वहां पैसे जमा करने के बाद ही बंडल मिलता था । व्हीलर के हमारे पंडित जी के लिए हंस का बंडल भी अन्य किताबों के बंडल की तरह से होता था । जब वक्त मिलता था तो किसी को भेजकर डाकघर से बंडल मंगवा लेते थे । लेकिन होता ये था कि पटना में हंस रेल से आता था जो दो तीन दिन पहले आ जाया करता था । वहां से मित्रों का फोन आना शुरू हो जाता था कि हंस में फलां लेख या फलां कहानीकार की कहानियां देखी । जो हमारी बेचैनी बढ़ा दिया करती थी । मुझे याद है कि कई बार मैं खुद डाकघर जाकर हंस के बंडल छुड़वा कर व्हीलर के स्टॉल पर पहुंचाया करता था । बाद में हमने हमने हंस को जल्दी पाने का एक विकल्प निकाला । हमने डाकिया को पटाया और उससे अनुरोध किया कि वो अपनी साइकिल पर हंस के बंडल डाकघर से उठा लाया करे और व्हीलर के पंडित जी को सौंप दे । फायदा यह हुआ कि हंस जिस दिन हमारे शहर के डाकघर में आता उस दिन ही हमें उपलब्ध हो जाता था । लेकिन फिर भी पटना से लेट ही मिलता था । हंस को खरीदने की यह बेचैनी अबतक बरकरार है । महीने की 23-24 तारीख से ही राजेन्द्र जी के प्राण लेने लग जाता हूं कि हंस जनहित में कब जारी हो रहा है । जनहित का मतलब है कि बिक्री के लिए दिल्ली के स्टॉल्स पर कब पहुंच रहा है । कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि हंस लेने राजेन्द्र जी के दफ्तर या फिर घर तक पहुंच गया ।
हंस ने छब्बीसवें साल में कदम रखते हुए जो पहला अंक निकाला है उसमें हंस और साहित्यिक पत्रिकाओं पर अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी, पंकज बिष्ट, अखिलेश और शैलेन्द्र सागर के लेख छपे हैं । लगभग सभी लेखों का केंद्रीय भाव एक ही है । अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि – इसे भी निसंकोच स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिंदी में नारी विमर्श और दलित विमर्श की आज जो जगह है, लगभग केंद्रीय, उसे वह दिलाने में हंस ने बड़ी भूमिका निभाई है । ऐसा करके उसने ना सिर्फ हिंदी साहित्य में इन दोनों विमर्शों और उनसे जुड़ी और प्रेरित रचनात्मकता को स्थापित किया, पोसा और बढाया । आगे लिखते हैं- यह नोट करना सुखद है कि पच्चीस वर्षों तक चलने के बाद भी हंस एक पठनीय पत्रिका है, वह आज भी प्रासंगिक बनी हुई है । ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया ने लिखा है – हंस के अवदान को नजरअंदाज किया ही नहीं जा सकता । हंस दीर्घजीवी ना होता तो आज हिंदी कहानी बुत पिछड़ चुकी होती । हिंदी कहानी को जिंदा रखने और बोल्डनेस को डिफेंड करने में राजेन्द्र जी की अपूर्व भूमिका है । .....राजेन्द्र जी ने यथास्थितिवाद पर लगातार प्रहार किए और दलित तथा नारी विमर्श को सामने लाने और निरंतर उसे गतिशीलता प्रदान करने में अपनी पूरी उर्जा लगा दी । तद्भव के संपादक अखिलेश भी यह मानते हैं कि- कह सकते हैं कि हंस ने हिंदी साहित्य का एजेंडा बदल दिया । दलित,स्त्री, पिछड़ा और अल्पसंख्यक यदि आज समाज और साहित्य के सरोकार बने हैं तो इसके पीछे हंस का भी पसीना है । तो हम यह देख रहे हैं कि हंस के बारे में हिंदी जगक की कमोबेश एक ही राय है । पिछले पच्चीस सालों में हंस ने हिंदी साहित्य को ना केवल एक नई दिशा दी बल्कि उसने दलित और स्त्री विमर्श के साथ-साथ तत्कालीन प्रासंगिक मुद्दों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास भी लिखा और साहित्यिक पत्रकारिता के कुछ नए मानक भी स्थापित किए तरह की खुली बहस से दूसरी पत्रिका के संपादकों के हाथ पांव फूल जाते थे उसे राजेन्द्र यादव ने हंस में जोरदार तरीके से उठाया । खुद अपने संपादकीय में बिना किसी डर-भय और लाग लपेट के यादव जी ने अपनी बातें कहकर बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया । अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों से ही हंस ने साहित्यिक माहौल को गर्मागर्म बनाए रखा और जो मुर्दनीछाप शास्त्रीय किस्म का माहौल था उसे सक्रिय करते हुए जुझारू तेवर भी प्रदान किए । इसके अलावा हंस ने कहानीकारों की कई पीढियां भी तैयार कर दी । हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ, शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय का तलछट का कोरस, रमाकांत का कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्रकिशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे और आनंद हर्षुल की उस बूढे आदमी के कमरे में छापकर हिंदी कथा साहित्य में हलचल मचा दी थी । कालांतर में भी हंस में ही छपी उदय प्रकाश की चर्चित कहानियां – और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की, अरुण प्रकाश की जल प्रांतर, अखिलेश की चिट्ठी, स्वयं प्रकाश की अविनाश मोटू उर्फ..., सृंजय की कॉमरेड का कोट आदि कहानियों ने भी कथा साहित्य को झकझोर दिया था ।
तो हंस को पच्चीस साल पूरे करने पर बधाई और उसके संपादक की जिजिविषा और उनकी दृढ इच्छा शक्ति को सलाम । ईश्वर से प्रार्थना इस बात की कि राजेन्द्र यादव जी को लंबी उम्र मिले और हंस निर्बाध गति से निकलता रहे ।

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