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Sunday, September 11, 2011

राजेन्द्र यादव की 'पाखी'

मैं जब स्तंभ लिखने बैठा तो एक बार फिर से राजेन्द्र यादव मेरे ध्यान में आए । लेकिन मैं अभी दो पहफ्ते पहले ही यादव जी के इर्द गिर्द दो लेख लिख चुका हूं । इस वजह से एक बार फिर से उनपर लिखते हुए सोचने को मजबूर हूं कि लिखूं या नहीं लिखूं । दरअसल पहला लेख तो हंस पत्रिका के पच्चीस वर्ष पूरे होने और छब्बीसवें वर्ष में प्रवेश करने पर था और दूसरा लेख दिल्ली में आयोजित हंस के सालाना गोष्ठी पर । लेकिन दोनों के ही केंद्र में राजेन्द्र यादव थे । साहित्य की दुनिया में हर वर्ष का जुलाई और अगस्त का अंतिम सप्ताह राजेन्द्र यादव के नाम ही होता है । जुलाई के अंत में हंस की सालाना गोष्ठी और अगस्त के अंत में राजेन्द्र यादव का जन्मदिन समारोह । इस साल भी हर वर्ष की भांति राजेन्द्र यादव का जन्मदिन दिल्ली में कांग्रेस के युवा सांसद संजय निरुपम के घर के लॉन में मनाया गया । पिछले वर्ष की तुलना में इस बार का आयोजन भव्य था । लोगों की उपस्थिति भी ज्यादा । रसरंजन करते टुन्न होते लोग भी ज्यादा । लेकिन इस बार मैं यादव जी के जन्मदिन समारोह पर नहीं लिख रहा हूं । जिक्र इस वजह से कि जिस पत्रिका पर लिखने जा रहा हूं वो पत्रिका मुझे यादव जी के जन्मदिन समारोह में मिली । पत्रिका का नाम है पाखी जिसके संपादक हैं- प्रेम भारद्वाज । प्रेम भारद्वाज जी से मेरी फोन पर कई बार बात हुई थी लेकिन कभी आमने सामने की मुलाकात नहीं थी । मुझे पता नहीं उन्होंने कैसे पहचाना और बेहद ही गर्मजोशी से मुझसे मिले । मिलने के बाद उन्होंने मुझे पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित भारी भरकम अंक दिया जो कि एक दिन पहले ही लोकार्पित हुआ था । वहां तो कवर पर यादव जी की भव्य तस्वीर ही देख पाया । पाखी के इस अंक का विज्ञापन कई अंकों से संभावित लेखकों के नाम के साथ छप रहा था। इसके अलावा मैत्रेयी जी,भारत भार्दवाज जी से भी कई बार इस प्रस्तावित अंक पर बात हुई थी । यादव जी का वयक्तित्व इतना तिलिस्मी है कि वो मुझे बार बार खींचता है और जब भी उनके बारे में कुछ पढ़ता हूं या उनके आस पास के लोगों से बात होती है तो कुछ न कुछ नया मिल ही जाता है चाहे वो लोगों के अनुभव हो या फिर यादव जी के दिलचस्प कारनामे ।

जन्मदिन की पार्टी से जब घर लौटा तो पाखी को पढ़ना शुरू किया । कई लेख पुराने थे लेकिन नए लेखों की संख्या ज्यादा है । सबसे पहले मैंने संपादकीय पढ़ा। संपादकीय पहले पढ़ने का फायदा यह होता है कि अंक का अंदाजा लग जाता है । पाखी के इस अंक का संपादकीय अद्भुत है । नए तरीके से प्रेम भारद्वाज ने राजेन्द्र यादव के वयक्तित्व को राजकपूर से जोड़कर अनोखे तरीके से व्याख्यायित किया है । प्रेम भारद्वाज लिखते हैं- राज कपूर की पहली निर्देशित फिल्म आग की शुरुआत 6 जुलाई 1947 को होती है । राजेन्द्र यादव की पहली कहानी प्रतिहिंसा भी इसी साल कर्मयोगी में प्रकाशित होती है । आग दोनों में है- रचनात्मकता की । आग का नायक जीवन में कुछ नया कर गुजरना चाहता था । जलती हुई महात्वाकांक्षा उसका ईंधन बनी । क्या यही सच राजेन्द्र यादव का नहीं है । राजू को स्त्री की देह (अनावृत्त स्त्री) पसंद है जिसे चलती भाषा में नंगापन कहा जाता है । ......नंगापन को वह रचनाओं में दिखाता है...थोड़ा ज्यादा उम्र बढ़ने पर स्त्री सौंदर्य के प्रति उसका नजरिया मांसल हो जाता है सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली ....हासिल और होना सोना एक दुश्मन साथ ऐसी ही रचनाएं हैं । वह आवारा , छलिया, श्री 420 है । बहुत दिनों बाद नए तरीके से लिखा गया संपादकीय पढ़कर मजा आ गया । प्रेम भारद्वाज को बधाई देने के लिए फोन भी किया लेकिन फोन बंद था । खैर....

आमतौर पर ऐसे विशेषांकों में लेखक की प्रशस्ति करते लेखों को संग्रहित किया जाता है और वह लगभग अभिनंदन ग्रंथ बनकर रह जाता है । लेकिन पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित यह अंक इस दोष का शिकार होने से बच गया । इसमें कई लेख ऐसे हैं जो यादव जी के वयक्तित्व की तो धज्जियां उड़ाते ही हैं उनके लेखन को भी कसौटी पर कसते हैं । पुराने लेखों की चर्चा मैं यहां नहीं करूंगा । लेकिन चाहे वो निर्मला जैन का लेख हो या फिर यादव जी के भाई भूपेन्द्र सिंह यादव या फिर उनकी बेटी रचना के लेख हों सबमें एक ही स्वर है कि यादव जी पारिवारिक वयक्ति नहीं हैं और उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं किया । ये बातें जब बेटी और भाई कहें तो मान लेना चाहिए ।

मैत्रेयी पुष्पा को अबतक राजेन्द्र यादव की पसंदीदा लेखिका माना जाता था । दिल्ली के साहित्यिक हलके में यह बात बार-बार उठती रहती थी कि मैत्रेयी पुष्पा अब यादव जी के खेमे में नहीं रही और उन्होंने अशोक वाजपेयी के कैंप में अपनी जगह बना ली है । अफवाहों को नित नए पंख लगते रहे । लेकिन पाखी के इस अंक में मैत्रेयी पुष्पा ने साफ साफ ऐलान कर दिया है कि उन्हें अब राजेन्द्र यादव से कुछ लेना-देना नहीं । छिनाल विवाद के बाद जिस तरह से मैत्रेयी जी ने विभूति नारायण राय के खिलाफ मोर्चा खोला था उसमें यादव जी के साथ नहीं आने से आहत मैत्रेयी कहती हैं कि राजेन्द्र जी भरोसे को तोड़ा है । विभूति नारायण राय के खिलाफ उस वक्त मैत्रेयी ने मोर्चा खोला हुआ था लेकि साल भर बीतते बीतते हालत यह हो गई कि उनके बड़े से बड़े सिपहसालार ने राय का दामन थाम लिया । विरोध तो हवा में गुम ही गया कुछ तो राय साहब के प्रशंसक तक बन बैठे हैं । सुधा अरोड़ा का साक्षात्कार सामान्य है । दामोदर दत्त दीक्षित और भारत यायावर ने यादव जी को जरा ज्यादा ही कस दिया है । साहित्यिक पत्रकारिता के पच्चीस वर्ष पर प्रेम पाल शर्मा का छोटा लेकिन गंभीर लेख है । प्रेमपाल शर्मा चाहें तो उस लेख को और विस्तार दे सकते हैं, अभी उसमें काफी गुंजाइश है । इस अंक का जो सबसे कमजोर पक्ष है वो है संस्मरण । सभी में लगभग एक जैसी बात हैं और लोग अपने बारे में ज्यादा यादव जी के बारे में कम लिख रहे हैं । भारत भारद्वाज के संस्मरण में मृत्यु को लेकर लेखक और यादव जी का संवाद दिलचस्प है - भारत भारद्वाज पूछते हैं आप नहीं रहेंगे तो जनसत्ता में क्या शीर्षक छपेगा । पहले तुम बताओ । मैंने कहा खलनायक नहीं रहे । उन्होंने प्रतिवाद किया अच्छा और उपयुक्त शीर्षक रहेगा अब खलनायक नहीं रहे । दो रचनाकार अपनी मृत्यु को लेकर इतने खिलंदड़े अंदाज में बात कर रहे हों और मौत के बाद अखबार का शीर्ष तय कर रहे हों, कमाल है । पाखी के इस अंक में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि पिछले बीस सालों से हंस में प्रकाशित लोकप्रिय स्तंभ- समकालीन सृजन संदर्भ अब बंद हो गया है । अब लोग हंस को आगे से खोला करेंगे (काशीनाथ जी समेत कई लेखकों ने मुझसे वयक्तिगत बातचीत में कहा था कि वो हंस को पीछे से खोलते हैं )

पाखी का राजेन्द्र यादव पर निकला तीन सवा तीन सौ पृष्ठों का यह अंक हिंदी के पाठकों के लिए एक थाती है और उसे संभाल कर रखना चाहिए । हिंदी के नए पाठकों के लिए ये एक ऐसे वयक्ति के वयक्तित्व की परतें उघाड़ता है जो नए से नए लोगों को भी लिखने और पढ़ने के लिए लगातार प्रेरित करता है । इस अंके के लिए संपादक- प्रेम भारद्वाज- की मेहनत की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है ।

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