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Thursday, December 29, 2011

समीक्षा पर घमासान

विश्व की सबसे प्रतिष्ठित और पुरानी पत्रिकाओं में से एक लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स के पन्नों पर इन दिनों दो लेखकों में जंग चल रही है । दरअसल विवाद की जड़ में एक समीक्षा है । हॉवर्ड के प्रोफेसर और लोकप्रिय टेलीविजन इतिहासकार नायल फर्ग्युसन की किताब सिविलाइजेशन- द वेस्ट एंड द रेस्ट छपकपर आई । भारतीय मूल के लेखक और स्तंभकार पंकज मिश्रा ने उस किताब की लंबी समीक्षा लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में लिखी जो कि नवंबर की तीन तारीख के अंक में प्रकाशित हुई । अपनी किताब की समीक्षा देखकर नायल फर्ग्युसन बुरी तरह भड़क गए और अगले ही अंक में संपादक के नाम पत्र लिखकर साहित्यिक जंग का ऐलान कर दिया । सत्रह नवंबर के अंक में नायल का एक पत्र प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने पहले तो यह हाई मोरल स्टैंड लेते हुए कहा कि वो विध्वंसात्मक समीक्षा के खिलाफ सफाई देने के आदि नहीं हैं लेकिन अगर समीक्षा में व्यक्तिगत हमले हों तो फिर सामने आना हमारी मजबूरी है । फर्ग्युसन का आरोप है कि पकंज मिश्रा ने उसे रेसिस्ट बताया है जो कि निहायत ही गलत है । नायल के मुताबिक पंकज मिश्रा ने उनके लेखन की तुलना अमेरिकी रेसिस्ट सिद्धांतकात थियोडोर स्ट्रोड की 1920 में लिखी गई किताब- द राइजिं टाइड ऑफ कलर अगेंस्ट व्हाइट वर्ल्ड सुपरमेसी लेखन से की है, जो निहायत ही गलत है । नायल का यह भी आरोप है कि पंकज मिश्रा ने उनके लेखन को बगैर समझे और सही परिप्रेक्ष्य में देखे उसपर टिप्पणी कर दी । अपने पत्र में फर्ग्यूसन ने पंकज मिश्रा की समीक्षा छापने के लिए लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स की भी खासी लानत मलामत की है । उन्होंने एलआरबी पर लेखन में वामपंथी राजनीति को बढ़ावा देने और अपने दरबारियों को लगातार छापने का भी आरोप लगाया । आरोपों की बौछार करते हुए नायल यहीं नहीं रुके उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि पंकज मिश्रा की उक्त समीक्षा से एलआरबी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका की प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ है । नायल ने पत्रिका और पंकज दोनों से माफी की भी मांग की। विवाद का किस्सा यहीं खत्म नहीं होता है और उसी अंक में पंकज ने नायल के आरोपों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया देकर अपने तर्कों को सही साबित किया है । माफी न तो पंकज ने मांगी न ही पत्रिका ने । हां पंकज ने इतना जरूर साफ कर दिया कि उन्होंने नायल पर रेसिस्ट होने का आरोप नहीं लगाया ।
अगले अंक में फिर दोनों के पत्र छपे जिनमें तर्कों और प्रति तर्कों के आधार पर दोनों ने अपना पक्ष रखा है । पंकज मिश्रा ने साफ तौर पर अपनी समीक्षा में वैज्ञानिक आधार पर नायल के लेखन की आलोचना की है । अगर बात सभ्यताओं की हो रही है तो भारत और चीन की सभ्यताओं को तो खासी तवज्जो देनी होगी । उन्होंने यह सवाल उठाया है कि क्या महात्मा गांधी के बिना पिछली सदी की सभ्यता का मूल्यांकन किया जा सकता है । क्या चीन की उत्पादन क्षमता और भारतीय टेक्नोक्रैट के योगदान को नजरअंदाज किया जा सकता है । पंकज मिश्रा ने तर्कों के आधार पर यह साबित भी किया है कि यह नहीं हो सकता ।लेकिन नायल अब भी पत्रिका और पंकज दोंनों से माफी की मांग पर अड़े हैं । कुछ दिनों पहले तो उन्होंने कोर्ट में जाने की धमकी भी दी थी । लेकिन लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स मजबूती के साथ पंकज मिश्रा के लेखन के साथ खड़ा है । दोनों माफी नहीं मांगने और अपने स्टैंड पर अड़े हैं ।
दरअसल साहित्य में इस तरह के विवाद नए नहीं हैं । नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी एस नॉयपाल और अमेरिका के वरिष्ठ लेखक पॉल थेरू के बीच के लंबे विवाद को अब तक अंग्रेजी साहित्य में याद किया जाता है । इसके अलावा नायपॉल की महिला लेखिकाओं पर की गई टिप्पणियों पर भी खासा विवाद हुआ था । जब सर विदया ने जान ऑस्टिन के लेखन की संवेदनात्मक महात्वाकांक्षा की आलोचना करते हुए कह डाला था कि किसी महिला लेखक के लेखन में धार नहीं होती । उसी तरह विद्या ने ई एम फोस्टर को भी शक्तिहीन समलैंगिकों से अनुतिच लाभ लेने वाला बताकर और उनके उपन्यास अ पैसेज टू इंडिया को बकवास करार देकर अंग्रेजी साहित्य में भूचाल ला दिया था । जिसके बाद हेलन ब्राउन से लेकर एलेक्स क्लार्क तक जैसे लेखकों ने विदया पर जमकर हमले किए थे और विवाद काफी लंबा चला था । अंग्रेजी में इस तरह के विवाद सिर्फ साहित्य में ही नहीं बल्कि विज्ञान, दर्शन, राजनीतिक लेखन में लंबे समय से चलते रहे हैं । इन विवादों पर कई किताबें भी छप चुकी हैं ।
लेकिन इस बार नायल और पंकज मिश्रा के बीच का विवाद थोड़ा अलहदा है । यह विवाद इस मायने में थोड़ा अलग है कि एक तो इसमें रेसिज्म का आरोप लगा है और दूसरे अदालत में जाने की धमकी है । अंग्रेजी साहित्य पर नजर रखने वाले कई स्वतंत्र पर्यवेक्षकों इस साहित्यिक लड़ाई को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में भी देख रहे हैं । पिछले एक दशक से जिस तरह से एशियाई मूल के नए लेखकों ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी दखल और पैठ दोनों बढ़ाई है उससे पश्चिमी लेखकों का एक खेमा काफी क्षुब्ध रहने लगा है । जब कई एशियाई मूल के लेखकों को पुलित्जर और मेन बुकर पुरस्कार मिलने लगे थे तो एक प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक ने एलेक्स ब्राउन ने मजाक में एक बार कहा था- वी फील थ्रेटन्ड । इन तीन शब्दों में पश्चिमी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सकता है । वी फील थ्रेटन्ड की जो मानसिकता है है वही अपनी आलोचना बर्दाश्त करने से न केवल रोकता है बल्कि विरोधियों के प्रति आक्रामक भी बनाता है ।
दरअसल साहित्यिक विवादों के इतिहास पर अगर हम नजर डालें तो हिंदी में भी विवादों का एक समृद्ध इतिहास रहा है । पाडे बेचन शर्मा उग्र के लेखन के बाद उठे चॉकलेट विवाद में तो गांधी जी तक को दखल देना पड़ा था । कल्पना में उर्वशी विवाद लंबे समय तक चला था । हाल के दिनों में राजेन्द्र यादव के लेख होना सोना पर भी हिंदी साहित्य में बवाल मचा था । विभूति नाराण राय तो छिनाल विवाद में बुरी तरह फंसे ही थे । लेकिन साहित्य के मामले कोर्ट कचहरी तक नहीं पहुंचते हैं । काफी समय पहले उदय प्रकाश और रविभूषण के विवाद में भी कोर्ट कचहरी की धमकी दी गई थी ।

2 comments:

abhishek nandan said...

jankari dene ke liye sukriya..anant da

www.womentrust.blogspot.com said...

बहुत बढ़िया आलेख है सर, बधाई। आपने लेख के अंत में लिखा है कि साहित्यिक विवाद कोर्ट तक नहीं पहुँचते हैं तो उसपर मेरा विचार है कि साहित्य तो मंचों और पन्नों से होता हुआ व्यक्ति के दिलों पर छाप छोड़ता है और यह बहुत अच्छी बात है कि साहित्यिक विवादों का निबटारा साहित्यिक अंदाज में ही निबटाया जाता है।