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Tuesday, February 21, 2012

…कुछ तो है जिसकी परदादारी है

हिंदी में साहित्यिक किताबों की बिक्री के आंकड़ों को लेकर अच्छा खासा विवाद होता रहा है । लेखकों को लगता है कि प्रकाशक उन्हें उनकी कृतियों के बिक्री के सही आंकड़े नहीं देते हैं । दूसरी तरफ प्रकाशकों का कहना है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों के पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं । बहुधा हिंदी के लेखक प्रकाशकों पर रॉयल्टी में गड़बड़ी के आरोप भी जड़ते रहे हैं । लेकिन प्रकाशकों पर लगने वाले इस तरह के आरोप कभी सही साबित नहीं हुए । निर्मल वर्मा की पत्नी और राजकमल के बीच का विवाद हिंदी जगत में खासा चर्चित रहा । निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल को लगा था कि राजकमल प्रकाशन से उन्हें उचित रॉयल्टी नहीं मिल रही है लिहाजा उन्होंने हिंदी के शीर्ष प्रकाशन गृह पर रॉयल्टी कम देने का आरोप लगाते हुए निर्मल की सारी किताबें वापस ले ली थी । उसके बाद यह पता नहीं चल पाया कि गगन गिल को निर्मल वर्मा की किताबों पर दूसरे प्रकाशन संस्थानों से कितनी रॉयल्टी मिली । अभी जनवरी के हंस में राजेन्द्र यादव ने एक बार फिर से इस मुद्दे को उटाया है । राजेन्द्र जी ने लिखा- वस्तुत : हिंदी प्रकाशन अभी भी पेशेवर नहीं हुआ है और उसी डंडी मार बनिया युग में बना हुआ है । मेरे उपर आरोप है कि मैं प्रकाशकों का पक्षन लेता हूं ; कि लेखक अभी भी हवाई दुनिया में रहते हैं । दस बीस पुस्तकों के लेखक अपने शोषण और प्रकाशक की शान शौकत को गालियां देते हैं । मेरा कहना है कि प्रकाशक हजारों पुस्तकें प्रकाशित करता है और अपनी लागत पर दस पांच प्रतिशत बचाता भी है तो यह राशि निश्चय ही किसी भी लेखकीय रॉयल्टी से सैकड़ों गुना अधिक होगी । राजेन्द्र यादव आगे लिखते हैं – आज लेखक-प्रकाशक के रिश्ते बेहद अनात्मीय और बाजरू हो गए हैं । कच्चा माल दो और भूल जाओ । अपने इस संपादकीय लेख में यादव जी ने यह भी बताया है कि उनके जवानी के दिनों में ओंप्रकाश जी, विश्वनाथ, रामलाल पुरी और शीला संधू किस तरह से लेखकों से दोस्ती का संबंध रखते थे । लेखकों की हर महीने पार्टी होती थी और एडवांस रॉयल्टी देकर लेखकों को लिखने के लिए दबाब डालते थे । लेकिन राजेन्द्र यादव ने रिश्तों के बाजारू और अनात्मीय होने की वजह नहीं बताई । हिंदी के इस शीर्ष लेखक से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वो इसकी वजह भी बताते और अपने अनुभवों के आधार पर इस रिश्ते की गरमाहट को बचाए रखने के लिए कुछ उपाय सुझाते । लेकिन बजाए एक वरिष्ठ लेखक की भूमिका अख्तियार करने के यादव जी वयक्तिगत लेन देन के ब्यौरे में उलझ कर रह गए । कहने लगे राजकमल और वाणी से मेरी लगभग 90 पुस्तकें प्रकाशित हुई- अनुवादित संपादित और लिखित । नगर दोनों जगह मिलाकर आंकड़ा डेढ लाख मुश्किल से छू पाता है- जबकि दस बीस किताबें ऐसी भी हैं जिनके हर साल संस्करण होते हैं –आठ दस विभिन्न पाठ्यक्रमों में भी लगी है । यादव जी का संपादकीय पढ़ने के बाद मुझे छाया मयूर छपने के बाद का एक प्रसंग याद आ रहा है । छाया मयूर के अंक में भारत भारद्वाज ने हिंदी की चुनिंदा पुस्तकों पर लिखा था । अब ठीक से याद नहीं है लेकिन भारत जी के उस लेख को लेकर राजेन्द्र जी कुछ विचलित और झुब्ध थे । उसके बाद मैंने राजेन्द्र जी का एक इंटरव्यू किया था उसमें यादव जी ने बताया था कि उन्हें साठ या सत्तर के दशक में ही रॉयल्टी के लाख रुपये मिला करते थे । मुझे याद नहीं है कि अब वो इंटरव्यू कहां है लेकिन यह प्रसंग इस वजह से याद है कि तब मैंने सोचा था कि लेखकों को ठीक ठाक पैसे मिलते हैं । साठ सत्तर के दशक में भी लाख-डेढ लाख और चार दशक के बाद भी लाख डेढ लाख – ये तो बेहद नाइंसाफी है । यादव जी को साफ तौर पर बताना चाहिए था कि उन्हें कितने पैसे रॉयल्टी के मिलते हैं और क्या प्रकाशक उन्हें एडवांस भी देते रहे हैं । उनके लेख से यह ध्वनि निकलती है कि किताबघर और सामयिक प्रकाशन उन्हें सही रॉयल्टी देते हैं । लेख को पढ़ते वक्त मेरे दिमाग में यह कौंधा कि यादव जी की क्या मजबूरी है कि वो वाणी और राजकमल के साथ बने हुए हैं क्यों नहीं अपनी किताबें सामयिक और किताबघर को दे देते हैं । रॉयल्टी में कमी का अंदेशा भी है और हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर भी जो किताबें छपी वो भी वाणी और राजकमल से ही छपीं । कुछ तो है जिसकी परदादारी है ।
दरअसल यह पूरा मामला बेहद उलझा हुआ है और उतना आसान है नहीं जितना दिखता है । हिंदी में साहित्यिक कृतियों का अब बमुश्किल तीन सौ से लकर पांच सौ प्रतियों का संस्करण होता है और दूसरा संस्करण छपने में सालों बीत जाते हैं । लेकिन इसके ठीक उलट अंग्रेजी में हालात बिल्कुल जुदा है । वहां एक औसत से लेखक की कमजोर कृति भी आठ से दस हजार बिक ही जाती है । ऐसा नहीं है कि हिंदी का बाजार कम बड़ा है बल्कि हाल के दिनों में तो हिंदी का बाजार भी बहुत बढ़ा है । तो फिर क्या वजह है कि हिंदी में एक साहित्यिक कृति के अपेक्षाकृत कम संख्या वाले संस्करण को बिकने में अंग्रेजी की तुलना में काफी ज्यादा वक्त लगता है ।
मुझे लगता है कि इसकी कई वजहें साफ तौर पर नजर आती है । हमारे देश में हिंदी का बाजार अवश्य बढ़ा है यह तो अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या और उसके नए संस्करणों की लोकप्रियता से पता चल जाता है और प्रामाणिक भी लगता है । इसको ही हम हिंदी का विस्तार मानते हुए इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाते हैं कि साहित्यिक कृतियों का बजार बढ़ा है । मेरे ख्याल से आकलन का यह तरीका सरही नहीं है । अखबारों और पत्रिताओं की संख्या में इजाफा के आधार पर साहित्यिक कृतियों की बिक्री का अंदाजा लगाना गलत है बल्कि इससे एक भ्रम और अविश्वास की स्थिति पैदा होती है । लेखकों को यह लगने लगता है कि उनकी कृतियां काफी बक रही है और प्रकाशक सर पीट रहा होता है कि जितनी पूंजी लगाकर किताब प्रकाशित की उसका निकल पाना भी संभव नहीं हो पा रहा है । ये दोनों ही स्थितियां प्रकाशन जगत के लिए हानिकारक हैं । अब से कुछ दिनों बाद नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला लगनेवाला है । वहां भी इस बात की चर्चा होगी, बहस होगी लेकिन होगा कुछ नहीं । प्रकाशकों और लेखकों के बीच इस तरह के अविश्वास की स्थिति हिंदी के लिए अच्छी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि राजेन्द्र यादव जैसे बड़े लेखक वयक्तिगत दर्द से उपर उठकर इस मसले के स्थायी हल के लिए पहल करें और एक मुकम्मल रास्ता निकालें ।

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