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Monday, July 23, 2012

दलित प्रतिभाओं का मेला

चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में कुछ महीनों पहले मैंने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था बिहार में सांस्कृतिक क्रांति । उस लेख के शीर्षक को लेकर मुझपर जमकर हमले किए गए । पटना के कुछ लेखकों ने मेरे उस लेख पर गंभीर एतराज जताते हुए बेवसाइट्स पर लेख लिए । चौथी दुनिया में मेरा स्तंभ बंद करवाने के लिए तमाम दंद फंद रचे । मुझे नीतीश सरकार का प्रशस्ति गायन करनेवाला लेखक करार दे दिया । एक बेवसाइट के मॉडरेटर ने मुझे भगवा समीक्षक करार दे दिया । मुझपर व्यक्तिगत हमले हुए । कालांतर में मुझ पर हमला करनेवाले लोग किन्ही गैर साहित्यिक वजहों से चर्चा में रहे । दिल्ली के एक कवि मित्र, जो पत्रकार भी हैं , ने फोन करके मेरी लानत मलामत की । वो मुझे फोन पर पत्रकारिता सिखाने की कोशिश करने लगे । बिहार के सांस्कृतिक संस्थानों की बदहाली गिनाने लगे । उनकी वरिष्ठता और वय को ध्यान में रखते हुए मैंने उनसे सिर्फ इतना कहा कि आप इस बात के लिए बिहार सरकार के संस्कति मंत्री या संस्कृति मंत्रालय की तारीफ कीजिए कि सूबे एक बार फिर से सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू हो गई हैं जो पिछले दो दशक से बंद थी । मेरे इतना कहने के बाद वो बेतरह नाराज हो गए और कहा कि वो मंत्री को भी जानते हैं और मुझे भी । उसके बाद उन्होंने मुझपर कई तरह के उलजलूल आरोप मढे । जब कवि मित्र आपे से बाहर होने लगे तो उनके पास कोई तर्क बचा नहीं । इस तरह के बुद्धिजीवियों की दिक्कत यही है कि जब उनके पास कोई तर्क बचता नहीं है तो वो एक ही तर्क का सहारा लेते हैं कि आप तो संघी हैं आपसे बहस ही नहीं की जा सकती । नतीजा बातचीत खत्म हो जाती है । उस वक्त मैंने अपने इस कॉलम में अपना पत्र रखते हुए एक और लेख लिखा था । दरअसल लालू मोह में ग्रस्त कुछ लेखकनुमा लोग बिहार में हो रहे सांसकृतिक गतिविधियों और विकास के कामों को पचा नहीं पा रहे हैं । दलितों के नाम पर सालों से अपनी सांस्कृतिक दुकान चला रहे इन लोगों को लगता है कि अगर सरकारी स्तर पर कार्यक्रम या फिर किताबें प्रकाशित होने लगी तो उनकी दुकान बंद हो जाएंगी । लालू राज के दौरान इन संस्थानों और कार्यक्रमों में कुछ चुनिंदा लोगों की भागीदारी रहती थी । वो चंद लोग चुपचाप अपना हित साधते रहते थे क्योंकु उन्हें व्यक्तिगत लाभ लोभ के आगे सूबे की छवि या बिहार की समृद्धशाली परंपरा का ना तो अभिमान था और ना ही उन्हें प्रचारित करने में कोई रुचि । अब जब बिहार में सांस्कृतिक गतिविधियां होने लगी हैं । सरकारी स्तर पर प्रयास करके कई बेहतरीन किताबों का प्रकाशन होने लगा है तो लालू राज के दौरान काम कर रहे मठाधीशों को लगने लगा है कि अब उनकी दुकानदारी तो बंद हो गई । लिहाजा उन्होंने इस तरह के हमले शुरू किए ताकि सरकारी सांस्कृतिक पहल पर ब्रेक लगवा सकें ।
अभी जून के महीने में बिहार सरकार के संस्कृति मंत्रालय की पहल पर दस से पंद्रह तारीख के बीच पटना के प्रेमचंद रंगशाला मैं लोकोत्सव का आयोजन किया गया था इस लोकोत्सव में दलित संस्कृति के विभिन्न रूपों को समेकित रूप से प्रदर्शित किया गया था लोकोत्सव में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों और दलित जातियों की विशिष्ट लोकगाथाओं हिरनी बिरनी, राजा सलहेस, सती बिहुला, रेशमा चूहडमल, दीना भदरी, और बहुरा गोढिन की सानदार प्रस्तुति भी पेश की गई थी हैरानी की बात है कि इन प्रस्तुतियों के दौरान प्रेमचंद रंगशाला खचाखच भरा रहता था लोकोत्सव में पहले दिन हिरनी विरनी की प्रस्तुति हुई हिरवी विरनी नट जातियों में प्रचलित है यह लोकगाथा अंग क्षेत्र से लेकर लेकर मध्य विहार तक में सुनी जाती है नारी मुक्ति पर केन्द्रित यह लोकगाथा हिरनी बिरनी दो बहनों के माध्यम से अपने अधिकारों के बारे में बात करती है दलित और स्त्री दोनों को समटे इस प्रस्तुति ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर जदिया हिरनी विरनी के अगले दिन विन्देश्वर पासवान और उनके दल ने राजा सलहेस को पेश किया मिथिलांचल के दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा अब अपनी जातीय सीमाओं से परे पूरे मिथिलांचल में समान रुप से पसंद की जाती है।  राजा सलहेस में सामंती अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने के संघर्ष दास्तां है बाद में छपरा के शिव जी और उनके दल ने सती बिहुला पेश कर दर्शकों का मन मोह लिया यह प्रस्तुति मुख्य रूप से हमारे समाज में महिलाओं के समर्पण और महत्व को रेखांकित करती है। रेशमा चौहरमल को जहानाबाद के बली राय और उनके ग्रुप ने एक अलग शैली में प्रस्तुत कर शहरी दर्शकों कों थिएटर का एक नया रूप दिखाया मध्य बिहार की दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा सामाजिक सौहार्द्र को रेखांकित करती है। लोकोत्सव में अनिल सदा ने अपने ग्रुप के साथ दीना भदरी की प्रस्तुति दी उस उत्सव का समापन बहुरा गोढिन की प्रस्तुति के साथ हुआ।  बेगुसराय के पवन पासवान और उनके दल ने बहुरा गोढिन को को जीवंत करते हुए दर्शकों को मोह लिया ।
लोकोत्सव में इन प्रस्तुतितियों के अलावा भी विचार विमर्श हुए जिसमें हर तरह की विचारधारा के लोगों को आमंतत्रित किया गया था । बिहार में लोकोत्सव हो, बिहार की प्रचलित लोकगाथाओं की बिहार के कलाकारों प्रस्तुति हो या क्या क्रांति से कम है । क्या क्रांति का रंग सिर्फ लाल ही होता है । क्या क्रांति समाज के दबे चुचले लोगों से जुड़ी लोकगाथाओं को प्रमुखता से मंच देना क्रांति नहीं है । मैं तो आज भी डंके की चोट पर कहता हूं कि इलस वक्त बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियां हो रही है वो तारीफ के काबिल हैं । क्या इनका विरोध करने वाले लोग वो दौर भूल गए जब कला और संस्कृति के नाम पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लौंडे का डांस करवाया करते थे और अपने तमाम कारकुनों के साथ सगर्व लौंडा डांस देखते हुए तस्वीरें खिंचवाया करते थे । ठीक है आपको शौक है आप लौंडा डांस देखिए लेकिन बिहार की गौरवशाली सांस्कृतिक परंपराओं को बचाए रखने का दायित्व का भी निर्बाह करिए ।
जिस तरह से इस बार दलित कलाकारों की भागीदारी से लोकोत्सव का आयोजन पचना में किया गया उसी तरह के आयोजन देश के अन्य भागों में भी होने चाहिए ताकि पूरे देश को बिहार की दलित प्रतिभा का पता चल सके और बिहार के कलाकारों को भी देश के अन्य भागों की कलाओं और कलाकारों से रू ब रू होने का मौका मिलेगा । मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों ने अंगड़ाई ली है और वो उठ खड़ी हुई है उसके बाद अब बिहार सरकार का दायित्व है कि बिहार की उन साहित्यकिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को जिंदा करने की जो पिछले दो दशक से लगभग मृतप्राय हैं । बिहार संगीत नाटक अकादमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, मगही अकादमी आदि आदि को पुनर्जीवित करने की आवश्कता है । बिहार में प्रतिभा की कमी नहीं है, कमी है सिर्फ इच्छाशक्ति की । हाल के दिनों में सास्कृतिक गतिविधियों को लेकर जिस तरह से राजनैतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति दिखाई देती है उससे एक उम्मीद बंधी है कि बिहार एक बार फिर से देश के सांस्कृतिक नक्शे पर अपनी अहमियत मजबूती से दर्ज करवाएगा ।   

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