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Friday, August 24, 2012

राजनैतिक चेतना की कविताएं


हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब पांच सौ कवि एक साथ सक्रिय हैं और लगातार कविकाएं लिख रहे हैं । हिंदी के कई नासमझ संपादक उन कविताओं को छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दे रहे हैं । इसको देखकर रामवृक्ष बेनीपुरी जी का वो कथन याद आता है जो उन्होंने दशकों पहले कवियों की बहुतायत पर कहा था- हम बाढ से नहीं सुखाड़ से घबराते हैं । लेकिन वह बाढ़ भी क्या घबराने की चीज नहीं है जिसका पानी फसलों को इस कदर डुबा दे कि उनकी फुनगियां मुश्किल से नजर आएं । आज हिंदी कविता की उन्हीं फुनगियों को बचाए रखने की जद्दोजहद में संजय कुंदन जैसे कवि लगे हैं । संज कुंदन का नया कविता संग्रह -योजनाओं का शहर -हिंदी कविता के पाठकों को आश्वस्त करता है । संजय कुंदन का पहला कविता संग्रह दो हजार एक में आया था कागज के प्रदेश में, उसके बाद आया चुप्पी का शोर और अब ये समीक्ष्य संग्रह । इस संग्रह में संजय की कविता में जो कथा तत्व है वो पहले संग्रह की तुलना में और बेहतर हुई है । नामवर सिंह ने हाल ही में एक गोष्ठी में फिर दोहराया कि जो कवि अच्छा गद्य नहीं लिख सकता वो अच्छा कवि नहीं हो सकता है । नामवर की इस कसौटी पर भी संजय खड़े उतरते हैं । उनके कहानी संग्रह- बॉस की पार्टी और उपन्यास - टूटने के बाद - में संजय के मोहक गद्य को महसूस किया जा सकता है ।
अपने इस संग्रह में संजय कुंदन ने  राजनैतिक व्यवस्था पर चोट और तंज करते हुए कई कविताएं लिखी है । जैसे बढ़ती महंगाई पर तंज करते हुए संजय की एक कविता है दाल- जिसमें वो कहते हैं दाल की बात करो तो कहा जाता है /निवेश तो बढ़ा है, विदेशी मुद्रा तो बढ़ी है /आप यह क्यों नहीं देखते/कि आपके पास कितने यन्त्र हैं/यही क्या कम है कि जनतंत्र है/दाल अर्थशास्त्री की तरह /बोलने लगी है /अर्थशास्त्री राजा की तरह /और राजा व्यापारी की तरह । इस एक कविता में कवि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को उघाड़कर रख दिया है । किस तरह से एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अपने जार्गन से देश की जनता को भरमा रहे हैं उसको एक्सपोज करती है यह कविता । इस संग्रह की एक और कविता है कार्यकर्ता । इस कविता में एक साथ कवि ने बाजार के आक्रमणकारी और अतिक्रमणकारी रूपों से आम जनता को आगाह किया है । इस कविता में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की झलक भी देखी जा सकती है । संजय जहां भी अपनी कविता से आज की राजनीति पर चोट करते हैं वहां उनकी कविताएं उन्हें समकालीन कवियों की भीड़ से अलग कर देती है । कवि की राजनैतिक चेतना और उसपर तंज कसती कविता है योजनाओं का शहर । इस लंबी कविता में कवि ने वर्तमान राजनीति को तो निशाना बनाया ही है साथ ही समाज के उन लोगों को भी बेनकाब किया है जो योजनाएं बनाकर भ्रच्टाचार करते हैं और खुद को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं । इस लंबी कविता में कवि एक जगह कहता है जो दुनियादार थे वे योजनाकार थे /जो समझदार थे वो योजनाकार थे /एक लड़का रोज एक लड़की को /गुलदस्ता भेंट करता था/उसकी योजना में /लड़की एक सीढ़ी थी /जिसके सहारे वह/उतर जाना चाहता था /दूसरी योजना में । इन पंक्तियों में कवि ने अपनी महात्वाकांझा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर डालने और किसी भी रिश्ते को दांव पर लगा देने की प्रवृत्ति पर चोट की है । आगे इसी कविता में कुंदन कहते हैं -/योजनाओं में हरियाली थी/धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने /एक दिन योजनाकार को /रास्ते में प्यास से तड़पता एक आदमी मिला/योजनाकार को दया आ गयी/उसने झट उसके मुंह में एक योजना डाल दी । यहां कवि राजनीति में जारी सरकारी धन के लूट और उसके क्रियान्वयन में हो रहे घपलों को अपनी शैली में बेनकाब किया है ।
संजय कुंदन के कविताओं को पढ़ने के बाद यह तो साफ तौर पर लगता है कि सारी कविताओं में प्रगतिशीलता का एक अंडरटोन है जो अपने तरीके से हर जगह व्यवस्था का विरोध करता चलता है । लेकिन संजय कुंदन की प्रगतिशीलता रूढिमुक्त है जो एक साथ कविता में समाज और राजनीति के महत्व को स्थापित भी करती है । मुक्तिबोध ने एक बार कम्युनिस्ट पार्टी के आला नेता को एक पत्र लिखकर कहा था कि प्रगतिशील लेखन का टोन बदलने की आवश्यकता है । संजय कुंदन की कविताओं में वही प्रगतिशीलता अपने बदले हुए टोन के साथ मौजूद है । इनकी कविताएं छद्म क्रांतिकारिता और नारेबाजी से मुक्त हैं लेकिन इन कविताओं ने जनतांत्रिक मूल्यों को नहीं छोड़ा और भारतीय राजनीति में जो अवरसवाद और भ्रष्टाचार अपने चरम पर है उसकी कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं । दरवाजा और चोर दरवाजा -कविता में कवि ने चोर दरवाजे को मुख्य दरवाजा होने की कहानी के बहाने आज की भ्रष्ट होती सामाजिक व्यवस्था और भ्रष्टाचार के आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा बनते जाने के साथ साथ उसपर इतराने की प्रवृत्ति पर गहरी चोट की है । लिखते हैं धीरे धीरे फैलने लगी यह बात/और एक समय ऐसा आया/जब हर आदमी खुलेआम/चोर दरवाजे का इस्तेमाल करने लगा/यही चलन बन गया/अब इक्का दुक्का लोग ही/दरवाजे से होकर जदाते थे/धीरे धीरे कुत्तों ने दरवाजे पर डेरा जमा लिया । उसी कविता में आगे कहते हैं - कुछ लोग दूर से दरवाजे को दंडवत करते/और जय हो जय हो कहते हुए /चोर दरवाजे की ओर सरक जाते हैं । इसी कविता में दरवाजे का चौकीदार ही लोगों को चोर दरवाजे की ओर खिसक जाने की सलाह देता है । मतलब साफ है कि जिसपर व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी है वही उसको तोड़ने और गलत तरीके से लाभ उठाने की सलाह दे रहा है । यही तो आज का राजनैतिक चरित्र है । इन कविताओं की शैली और बिंब इतनी खास है कि कुछ लोग उसपर सपाटबयानी का आरोप जड़ सकते हैं लेकिन इनकी कविताओं में जो राजनैतिक चेतना बेहद सधे और नपे तुले रूप में आती है जो पाठकों को एक नया आस्वाद देती है ।
राजनीति चेतना से लैस कवि की काव्य भूमि पर और विषयों की कविताएं भा आकार लेती हैं । इस संग्रह की एक और लंबी कविता है अपराध कथा जिसकी पहली लाइन है कि ये साधारण लोगों के पराजय की कहानियां है । सचमुच । इस कविता में कवि ने समाज की आपराधिक प्रवृतियों को उसके बाद घटने वाले घटनाओं को विषय बनाया है । इस कविता में सूअर से लेकर बार गर्ल तक के बहाने से कवि ने अपनी बात कही है । एक जगह कवि कहता है वो पूरी धरती में /अपना वीर्य रोपना चाहते थे । यहां लड़की के लिए धरती बिंब का इस्तेमाल कर कवि ने कविता को एक नई उंचाई दी है ।
इटली के ख्याति प्राप्त आलोचक रोबेर्तो कालास्सो ने अपनी किताब लिटरेचर एंड द गॉड्स के अंतिम लेख एब्सोल्युट लिटरेचर में कहते हैं कि साहित्य विचार के भारी फर्शी पत्थरों के बीच घास की तरह उगता है । संजय कुंदन की कविताओं को देखने के बाद रोबर्तो कालास्सो से एक कदम आगे बढ़कर कहा जा सकता है कि कविता राजनीति और सामाजिक व्यवस्थाओं में आ रही गिरावट से पैदा हुए निराशा के बीच से उपजा हुआ ऐसा पेड़ है जिससे आशा और उम्मीद की किरण निकलती है । इसलिए इस संग्रह को पढ़ने के बाद यह साफ है कि पिछले दिनों प्रकाशित कविता संग्रहों के बीच बेहद विशिष्ठ है ।

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