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Tuesday, July 16, 2013

पोस्टरों में हिंदी का दबदबा

हिंदी सिनेमा के सौ साल पूरे होने के दौरान फिल्म इंडस्टी में एक खामोश बदलाव भी हुआ । हलांकि यह खामोश बदलाव सौ साल के जश्न में उस तरह से उभर कर नहीं आ पाई जैसे कि आनी चाहिए थी । दरअसल यह हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा में एक बेहद अहम पड़ाव है जिसे महत्वपूर्ण बदलाव के तौर पर रेखांकित किया जाना चाहिए । आज अगर हम देखें तो ज्यादातर हिंदी फिल्मों के पोस्टर भी अब हिंदी यानि देवनागरी लिपि में बनाए जाने लगे हैं । कुछ फिल्मों के रोमन में और कुछ फिल्मों के दोनों में बनाए जाते हैं । हलांकि हम कह सकते हैं कि इस तरह के प्रयोग सत्तर के दशक में शुरू हो गए थे और इक्का दुक्का फिल्मों के पोस्टर देवनागरी में लिखे जाने लगे थे। पोस्टर के पहले हिंदी फिल्मों का विज्ञापन सिर्फ अखबारों के जरिए हुआ करता था । तीन मई 1913 को जब पहली हिंदी फिल्म- हरिश्चंद्र- रिलीज हुई तो उसके प्रचार प्रसार के लिए कोई पोस्टर नहीं बना था । अखबारों में उसके विज्ञापन छपे थे और सिनेमा हॉल के बाहर पर्चा बंटा था जिसमें फिल्म के बारे में जानकारी थी । सिनेमा हॉल के बाहर बांटे गए उस पर्चे में भी चित्र का उपयोग नहीं हुआ था ।माना जाता है कि हिंदी फिल्मों का पहला पोस्टर 1920 में बाबू राव पेंटर ने अपनी पहली फिल्म-वत्सला हरण- के लिए बनाई थी। बाद में हिंदी फिल्मों के हाथ से बने पोस्टर खूब चलन में आए लेकिन उन पोस्टरों के शीर्षक भी ज्यादातर रोमन में ही लिखे जाते रहे । साठ के दशक तक तो हिंदी फिल्मों के पोस्टरों पर अनिवार्य रूप से शीर्षक रोमन के साथ साथ उर्दू में भी लिखा जाता था लेकिन साठ के दशक के बाद से फिल्मी पोस्टरों से उर्दू गायब होती चली गई । उर्दू के गायब होने की वजह वह नहीं है जो देवनागरी या हिंदी के स्थापित होने की है । उसकी वजह इतर है और उन वजहों की चर्चा यहां अवांतर होगी । दरअसल हाल के दिनों में बॉलीवुड में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है । हिंदी फिल्मों में खालिस हिंदी पट्टी से आने वाले विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों की जो नई खेप आई है उसने हिंदी को बेहद मजबूती से बॉलीवुड में स्थापित किया है । इनकी फिल्मों के पोस्टर भी ज्यादातर हिंदी में ही बनते हैं। संवादों में भी एक देसीपन होता है ।  
इसके अलावा संजय लीला भंसाली और पंकज कपूर जैसे पुराने लोगों ने भी हिंदी की ताकत को पहचाना और उसमें काम करने की शुरुआत की । पंकज कपूर ने जब मटरू की बिजली का मंडोला बनाई तो उसके पोस्टर की बहुत तारीफ हुई थी । देवनागरी लिपि में बेहतरीन ढंग से लिखे गए अक्षरों ने दर्शकों के साथ साथ फिल्म समीक्षकों को भी अपनी ओर आकर्षित किया । फिल्म हरियाणा के छोटे से गांव की कहानी पर बनी थी लिहाजा उसी गांव के बैकड्रॉप पर पोस्टर भी तैयार किया गया था । इन सबसे पहले अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म राउडी राठौर के पोस्टर भी देवनागरी लिपि में लिखे गए थे । राउडी राठौर फिल्म के पोस्टर तो हिंदी में तैयार किए ही गए साथ ही साथ फिल्म के प्रमोशन के लिए पोस्टरों पर हिंदी के बेहद चलताऊ लाइनें नया साल, नया माल, फौलाद की औलाद आदि लिखे गए । अक्षय कुमार की इमेज को ध्यान में रखकर लिखी गई इन लाइनों को खूब पसंद किया गया । अभी अभी संजय लीला भंसाली की आनेवाली फिल्म रामलीला का पोस्टर भी हिंदी में ही जारी किया गया है । हिंदी में फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित विनोद अनुपम देवनागरी में पोस्टरों के बनाए जाने के बढ़ते चलन को हिंदी भाषी लोगों की क्रय शक्ति के बढ़ने से जोड़कर देखते हैं । उनका मानना है कि आर्थिक उदारवाद की बयार के बाद हिंदी भाषी लोगों की क्रय क्षमता या यों कहें कि खर्च करने की क्षमता में लगातार बढ़ोतरी हुई है । विनोद अनुपम के तर्कों में दम है । हिंदी पट्टी के लोगों की क्रय क्षमता में बढ़ोतरी के बाद हमारे देश में बाजार का व्याकरण पूरी तरह से बदल गया । हिंदी के लोगों ने समाज की हर चीच को प्रभावित करना शुरू कर दिया । हिंदी पट्टी के लोग विचार, समाज और संसाधन तीनों को प्रभावित करने लगे । इस बढ़ते प्रभाव को बाजार ने फौरन भांप लिया । मार्केटिंग से जुड़े लोगों को लगा कि विशाल हिंदी भाषी जनता के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए उनकी भाषा में उन तक अपना प्रोडक्ट पहुंचाया जाए । उसी भाषा में ही बाजार उनसे संवाद करे । लिहाजा हिंदी को तवज्जो दी गई ।
रोमन में पोस्टर की डिजाइनिंग देवनागरी से अपेक्षाकृत ज्यादा आसान है । हिंदी में मात्राओं की वजह से डिजाइन बनाने में दिक्कतें आती हैं । लेकिन फिल्मों की मार्केटिंग करनेवालों को भी यह बात समझ में आई और इस दिक्कत को चैलेंज के रूप में लेकर उसे विकसित किया गया । सिनेमा को जनता तक पहुंचाने का पहला और सबसे आसान माध्यम पोस्टर ही रहा है । कंप्यूटर क्रांति और प्रिंटिंग में नई तकनीक के आने के पहले तो पोस्टर हाथ से बनाए जाते थे फिर उसे छपवा लिया जाता था । सार्वजनिक स्थानों से लेकर सार्वजनिक शौचालयों में फिल्मी पोस्टरों की भरमार हुआ करती थी । पोस्टरों को देखकर अंदाजा लगा लिया जाता था कि फिल्म कैसी होगी । स्कूल और कॉलेज के छात्रों को फिल्मी पोस्टरों का इंतजार रहता था और उसके लगते ही उसे उखाड़कर अपने कमरे में लगाने की होड़ भी । बाद में तो हालात यह हो गई कि फिल्मों की रील के डब्बों के साथ फिल्मों के पोस्टर भी सिनेमा हॉल मालिकों को भेजे जाने लगे । उसके बाद बैनरों का दौर आया जिसमें फिल्मों के कुछ रोचक सीक्वेंस छापे जाने लगे लेकिन तब भी रोमन का साम्राज्य कायम रहा । पहले यह माना जाता था कि देश के अंग्रेजी दां लोगों के पास ही पैसे खर्च करने की क्षमता है । लिहाजा उनकी पसंद को ध्यान में रखकर हिंदी फिल्मों के पोस्टर और बैनर भी रोमन में बनाए जाते थे । श्रीदेवी और जितेन्द्र की हिम्मतवाला जैसी खालिस हिंदी दर्शकों के लिए बनाई गई फिल्म के पोस्टर भी रोमन में लिखे गए थे । सुपर हिट फिल्म शोले का भी पहला पोस्टर रोमन में ही लिखकर आया था । रोमन में लिखे उस पोस्टर की कैलीग्राफी अब भी दर्शकों के दिमाग में ताजा है । राजश्री प्रोडक्शन जैसी फिल्म निर्माण कंपनियां जिनके पोस्टर से लेकर कास्टिंग तक पहले हिंदी में हुआ करती थी उन्होंने भी अपनी रणनीति बदलते हुए रोमन और अंग्रेजी का दामन थाम लिया था । लेकिन अब स्थिति पलटती नजर आ रही है । जब से बाजार की नजरों में हिंदी पट्टी के लोगों की अहमियत बढ़ी तो फिर उनकी रुचि का ध्यान रखा जाने लगा । उनकी भाषा में उन तक पहुंचने के बाजार के औजार का इस्तेमाल शुरू हुआ । इस बात की तस्दीक फिल्मों की मार्केंटिंग तकनीक में हुए बदलाव से भी होती है । पहले फिल्मों के प्रमोशन का सारा जोर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों पर होता था लेकिन अब प्रमोशन का पूरा फोकस बाराणसी, गोरखपुर और पटना जैसे हिंदी पट्टी के शहरों की ओर हो गया है । चंद सालों पहले यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी सलमान और आमिर खान जैसे सुपर स्टार इन छोटे शहरों में जाएंगे । लेकिन अब तो इनकी हर फिल्म रिलीज के पहले ऐसा होता है । आमिर खान अपनी फिल्मों को हिट कराने के लिए कभी ऑटो चलाने वाले के घर वाराणसी पहुंच जाते हैं तो कभी पटना के चिड़ियाघर के पास के ढाबे में लिट्टी चोखा खाने बैठ जाते हैं । आज शाहरुख खान की सूची में पटना आवश्यक रूप से मौजूद रहता है ।
हिंदी आज बॉलीवुड की मजबूरी बन चुकी है । पहले हिंदी फिल्मों में ज्यादातर विषय महानगरों के इर्द गिर्द घूमा करते थे या फिर अप्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर फिल्में बनाई जाती थी लेकिन अब तो बनारस और धनबाद को केंद्र में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं और दर्शकों को पसंद आने के साथ साथ बंपर कमाई भी कर रही है । हाल ही में आई फिल्म रांझणा और चंद्र प्रकाश द्विवेदी की आनेवाली फिल्म-मोहल्ला अस्सी- के केंद्र में बनारस है जो मशहूर साहित्यकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी पर बन रही है । गैंग्स ऑफ वासेपुर के केंद्र में झारखंड के शहर धनबाद की कहानी है तो मटरू की बिजली का मंडोला में हरियाणा के एक गांव की । पहले इन गांव देहात की फिल्मों को यथार्थ का चित्रण करनेवाली कला फिल्में मानी जाती थी लेकिन अब इन फिल्मों ने भी बंपर बिजनेस करके यह साबित कर दिया कि फिल्मों में गांव और कस्बों की कहानियां भी बिकती है । लोग इस तरह की फिल्मों को देखने भी आते हैं । फिल्मों में तो हिंदी का दबदबा बढ़ा है लेकिन समाज में हिंदी साहित्य को लेकर उदासीनता बढ़ रही है । यह हिंदी और उसके चाहनेवालों के लिए चिंता की बात है । अब वक्त आ गया है कि साहित्य लेखन भी आयातित विचारधारा के बंधन से मुक्त होकर हिंदी के अपने आकाश में विचरण करे ।

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