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Thursday, August 29, 2013

बीस की कहानी

समकालीन साहित्यक परिदृश्य में स्त्री विमर्श के नाम पर लेखिकाओं की एक ऐसी फौज खड़ी हो गई है जो प्रसद्धि के लिए तमाम तरह के दंद फंद से भी नहीं हिचक रही है। उन्हें हर कीमत पर सिर्फ और सिर्फ प्रसिद्धि चाहिए और वो भी इंस्टेंट । पुरुष मानसिकता, पितृसत्तात्मक समाज, महिलाओं के हालात, उनके हर तरह के शोषण, पुरुषों से आजादी, बंधनों से मुक्ति, सेक्स संबंधों की स्वतंत्रता, शादी नाम के संस्था से बगावत आदि आदि ऐसे कई जुमले हैं जो समकालीन क्रांतिकारी महिला लेखन में आग के गोले की तरह से धधकते हैं । लेखन ऐसा कि पढ़ने वाला झुलस जाए और अगर बच गया तो आग की तपिश लंबे समय तक महसूसता घूमता रहेगा । महिला लेखन की इस आग की लालसा समाज के सारे पुरुषों को जला कर राख कर देने की है । जिस तरह से आग अगर लगती है तो वह किसी को नहीं छोड़ती या कह सकते हैं कि वह झुलसाने में कोई भेद भाव नहीं बरतती, उसी तरह से पुरुष विरोध की आग में हो रहा लेखन किसी को भी बख्शने को तौयार नहीं है । महिला लेखन की इस आग के पीछे बहुधा समाज में स्त्रियों की दशा बदलने की मंशा कम, प्रचार पाने की चाहत ज्यादा है । उनको लगता है कि सेक्स प्रसंगों के बारे में खुलकर बात करने, उससे आजादी की बात करने से देश में क्रांति हो जाएगी । महिलाओं को आजादी मिल जाएगी, उनका हर तरह का शोषण खत्म हो जाएगा ।  देह मुक्ति का नारा लगाते लगाते महिला लेखन कब विरोध की आग में झुलसकर बदसूरत हो गया है उसका पता ना तो लेखिकाओं को चल पाया और ना ही स्त्री विमर्श के झंडाबरदारों को । कई लेखिकाओं को लगता है कि गाली गलौच वाले लेखन से उनको प्रसिद्धि मिल जाएगी । कईयों को मिली भी, लेकिन यह प्रसिद्धि लंबे वक्त तक कायम नहीं रह सकती है ।  यह तथ्य है कि भारतीय समाज प्राचीन काल से ही पुरषों के पक्ष में झुका रहा है । इससे किसी को भी इंकार भी नहीं है । महिलाओं पर बहुत अत्याचार हुए । उनका दैहिक और मानसिक दोनों तरह का शोषण किया गया और कई जगहों पर अब भी यह बदस्तूर जारी है ।  लेकिन यह भी तथ्य है कि पिछले कई दशकों में हालात बहुत बदले हैं । हर क्षेत्र में महिलाएं आगे आने लगीं । पुरुषों ने भी महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर जतन किए । इसलिए एक ही लाठी से सबको हांकने की महिला लेखन की प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है और वो उसको किसी मुकाम तक ले जा पाएगी इसमें मुझे संदेह है ।
मैं हमेशा से यह बात कहता रहा हूं कि कुछ स्त्रीवादी लेखिकाएं हाथ में ए के 47 लेकर घूम रही हैं और वो अपने लेखन रूपी अस्त्र से सबको ध्वस्त करने की ख्वाहिश भी पाले बैठी हैं । लेकिन सपने बहुधा सच नहीं होते और खासकर तब तो बिल्कुल भी नहीं जबकि सपनों के पीछे की मंशा संदेह के घेरे में हो या फिर मंशा लक्ष्य हासिल करना ना हो बल्कि खुद को आगे बढ़ाने की हो  । स्त्री विमर्श के कोलाहल के बीच कई लेखिकाएं ऐसी भी हैं जो इन दंद फंद से दूर रहकर गंभीर लेखन कर रही हैं,। नए नए विषयों को छूने का साहस जुटा कर साहित्य को समृद्ध करने में लगी हैं । देह मुक्ति के छद्म आंदोलन से अलग रहकर, बगैर प्रसिद्धि की चाहत में गंभीर रचनाकर्म में लगी हैं । इस बात का खतरा उठाते हुए भी कि महिला लेखन की महंथाइनें उन्हें हाशिए पर डालने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगीं । समकालीन साहित्यक परिदृश्य में रजनी गुप्त एक ऐसी ही लेखिका हैं । रजनी गुप्त के तीन उपन्यास- कहीं कुछ और, किशोरी का आसमां और एक ना एक दिन प्रकाशित हो चुके हैं । इन उपन्यासों ने अपने विषय से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था । उनकी कहानियां भी लागातर प्रकाशित होकर पाठकों को सोचने पर विवश करती रही हैं । उसके अलावा स्त्री विमर्श पर आधारित दो पुस्तकों- आजाद औरत, कितनी आजाद और मुस्कुराती औरतों का भी वो संपादन कर चुकी हैं । अभी अभी उनका नया उपन्यास-कुल जमा बीस- प्रकाशित हुआ है । इस उपन्यास के केंद्र में यौवन की दहलीज पर कदम रख रहा ऐसा किशोर है जो अपने करियर को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है । क्या करे कि ना करे की मानसिकता से ग्रस्त है । उसका बचपन डिस्टर्बड रहा है । उसने पिता की मौत के बाद अपनी मां को परपुरुष की बाहों में देखा है । यह दृश्य उसे बार बार हॉंट करता है । दादी का साथ रहता है । साथियों के साथ मौज मस्ती करता है । दादी उसकी मानसिकता को समझ कर उसकी हर छोटी-बड़ी जायज-नाजायज मांग पूरी करती है । दरअसल इस उपन्यास के पात्र के बहाने रजनी गुप्त ने आज की इंटरनेट पीढ़ी की पूरी मानसिकता को सामने लाने की कोशिश की है । ऐसी पीढ़ी की मानसिकता जिसके लिए रिश्ते कोई मायने नहीं रखते, वर्जनाओं की उन्हें परवाह नहीं, कपड़ों की तरह साथी भी बदलने में उन्हें कोई हिचक नहीं । सबकुछ इंस्टेंट चाहिए दोस्ती से लेकर शारीरिक संबंध तक । प्यार व्यार क्या होता है ये वो जानते नहीं और उसके चक्कर में पड़ना भी नहीं चाहते । उनके लिए दैहिक रिश्ते सिर्फ अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने भर का जरिया मात्र है । चाहे वो लड़की हो या लड़का । समाज, परिवार, दोस्त, रिश्तेदार सभी को वह इसी मानक पर तौलता है और उसी हिसाब से अपनी जिंदगी के बारे में फैसले लेता है । अपने फैसलों में उसको किसी का दखल भी मंजूर नहीं होता है ।  लेकिन तन्हाई के क्षणों में वो मां के बिछोह में तड़पता भी है और तब उसको उसको महरूम अपने पापा की याद भी आती है । पापा की याद में तड़पता किशोर अपने किसी साथी में सुकून भी तलाशता है । यहीं से चाहत होती है किसी कंधे की जो उसे कहीं और ले जाता है । 
रजनी गुप्त के इस उपन्यास की भाषा उसके पात्रों के हिसाब से गढ़ी गई है । उसमें लेखिका पर्याप्त रूप से सफल भी रही है । हिंदी-अंग्रेजी की मिली जुली जिस तरह की बोली वाणी यह पीढ़ी अपने उपयोग में लाती है वही भाषा रजनी ने अपनाई है । इसमें लेखिका बहुत हद तक कामयाब भी रही है । उस उपन्यास में मुझे कई जगह एक हिचक दिखाई देती है । जैसे जब भी कोई सेक्स प्रसंग आता है तो लेखिका नैतिकता और यथार्थ के द्वंद भी फंसी नजर आती है । जैसे जब आशु अपनी मां को उसके साथी के साथ देखता है तो लेखिका की हिचक वहां दिखाई देती है और लगता है कि वो जल्द इस प्रसंग को खत्म कर आगे बढ़  जाना चाहती है । इस तरह के प्रसंग जब भी जहां आते हैं वहां यह हिचक यह साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कुल मिलाकर रजनी गुप्त ने एक ऐसे विषय को चुना है जिसपर हिंदी लेखकों का ध्यान कम जा रहा है वो तो यथार्थ की जमीन तोड़ने में लगे हैं । जमाने के रफ्तार के साथ रजनी ने विषय को पकड़ा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि पाठकों को रजनी गुप्त का यह उपन्यास काफी पसंद आएगा । एक बात और कहना चाहूंगा कि रजनी ने जिस तरह से उपन्यास की भाषा को नई पीढ़ी के हिसाब से रखा है वही सतर्कता उनको उपन्यास के शीर्षक में भी बरतनी चाहिए थी । ऐसा करने से युवा पीढ़ी को बेहतर तरीके से उपन्यास की ओर आकृष्ट किया जा सकता था ।

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