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Saturday, September 21, 2013

नेतृत्व की विचारशून्यता

एक बेहद दिलचस्प वाकया है । जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री । जवाहर लाल नेहरू की छवि एक पढ़ने लिखनेवाले नेता की थी । वो हर विषय पर सिर्फ अपनी राय रखते ही नहीं थे बल्कि जहां भी मौका मिलता था उसको लिखकर व्यक्त भी करते थे । उसी दौर की बात है श्रीकृष्ण सिंह पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिलने प्रधानमंत्री निवास -तीन मूर्ति हाउस पहुंचे । प्रदानमंत्री को संदेश भेजा कि बिहार के मुख्यमंत्री श्रीबाबू मिलने आए हैं । तकरीबन बीस मिनट के बाद जवाहरलाल नेहरू श्रीकृष्ण सिंह से मिलने अपने ड्राइंग रूम में पहुंचे । नेहरू जी के हाथ में एक किताब थी। अपने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों के साथी का बीस मिनट का इंतजार श्रीबाबू को खल गया था । जवाहरलाल जी के आते ही उन्होंने उलाहना देते हुए कहा - अब आपसे मिलने के लिए मुझे भी बीस मिनट का इंतजार करना पडे़गा । जवाहरलाल जी ने विनम्रता पूर्वक क्षमा मांगते हुए अपने हाथ की किताब श्रीबाबू की ओर बढ़ाई और कहा कि ये नई किताब आई थी । जब आपके यहां आने की सूचना मिली तो सोचा कि ये नई किताब आपको भेंट करूं । इस किताब को ढूंढने में ही इतना वक्त लग गया । श्रीबाबू ने नेहरू जी के हाथ से किताब लिया, उलटा पुलटा और फौरन धन्यवाद सहित पंडित जी को वापस कर दिया । नेहरू जी हतप्रभ । नेहरू जी के चेहरे का भाव देखकर श्री बाबू ने धन्यवाद दिया और कहा कि वो उस किताब को दो महीने पहले पढ़ चुके हैं । नेहरू जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में ठहाका लगाया और दोनों फिर से राजनीतिक बातों में मशगूल हो गए । ये संवाद था एक प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के बीच का । इस किस्से को बताने का मकसद सिर्फ इतना बताना है कि आजादी के बाद के दौर के हमारे ज्यादातर नेता अपना काफी वक्त अध्ययन, चिंतन और मनन में बिताते थे । एक से एक पढ़ाकू और लिक्खाड़ । बिहार के मुंगेर में श्रीकृष्ण सेवासदन के नाम से एक पुस्तकालय है । इस पुस्तकालय में बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की तमाम किताबें भरी हैं । मैं नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में वहां जाया करता था । उस वक्त श्री बाबू के व्यक्तिगत संग्रह को देखकर आतंकित होता रहता था । उन किताबों में इतिहास, समाज शास्त्र, दर्शन से लेकर समकालीन विश्व राजनीति की तमाम किताबें थी । खास बात यह थी कि हर किताब में रंगीन पेंसिल से निशान लगाए हुए थे । वहां मौजूद सज्जन ने बताया कि श्रीबाबू किताबों को पढ़ने के दौरान अलग अलग रंगों की पेंसिल से निशान लगाते थे । तब गूगल का जमाना नहीं था । अध्ययन और स्मृति के सहारे ही ज्ञानार्जन होता था ।
इसके अलावा भी अध्ययन और चिंतन करनेवाले नेताओं की एक लंबी फेहरिश्त है । चाहे आप पंडित मदन मोहन मालवीय की बात करें चाहे मौलाना आजाद की या फिर सी राजगोपालालाचारी की या फिर भीमराव अंबेडकर की या एम एलस गोलवलकर की । उस दौर के अन्य नेताओं के बारे में बात करें तो भी उनके हिस्से में कई मौलिक किताबें हैं । उत्तर से लेकर दक्षिण तक, हिंदी से लेकर अन्य भारतीय भाषाओं के नेता भी पाठक भी थे और लेखक भी । गांधी जी ने तो इतना लिखा उसके बारे में कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है । गांधी के लिखे पर तो अब भी दुनिया भर के विद्धान कलम चलाते रहते हैं और उनको नए सिरे से समझने और उनके विचारों को पुनर्उद्धघाटित करने में लगे रहते हैं ।
उनकी तुलना में अगर अब हम देखें तो पढ़ने लिखनेवाले विचारवान नेताओं की संख्या बहुत ही कम है । लिखककर अपने विचार व्यक्त करनेवाले तो और भी कम । मौलिक चिंतन तो सिरे से गायब ही मालूम पड़ता है । इतना अवश्य है कि पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से जो लोग राजनीति में गए हैं वो यदा कदा लिखते हैं । इसकी क्या वजह हो सकती है कि हमारे देश के वर्तमान दौर के नेताओं का पढ़ने लिखने से वास्ता छूटता चला गया और वो खालिस राजनीति में मशगूल हो गए । इसकी वजह की तलाश में हमें इंदिरा युग में जाना होगा । भारत की राजनीति में जिस तरह से नेहरू युग को मूल्यों और प्रतिभा की राजनीति का दौर माना जाता है उसी तरह से इंदिरा युग में प्रतिभाहीन नेताओं और चापलूसों के शीर्ष पर पहुंचने का स्वर्णकाल कहा जा सकता है । इंदिरा गांधी के दौर में विचार और विचारक नेता पृष्ठभूमि में चले गए । प्रतिभाशाली नेता दरकिनार होते चले गए और इंदिरा गांधी प्रतिभाहीन नेताओं से घिरती चली गई । इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया का जयकारा लगानेवाले लोग अचानक से सत्ता के गलियारों में शक्तिशाली नजर आने लगे । यह विडंबना है कि जवाहर लाल की बेटी इंदिरा गांधी ने इस तरह से राजनीतिक नेतृत्व के पतन में अहम भूमिका निभाई । वो नेहरू जिन्होंने जेल से इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर नैतिक शिक्षा दी थी । नेहरू के पत्रों का वो संग्रह अब भी लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए देते हैं । नेहरू हमेशा से इंदिरा को शिक्षा देते रहते थे । मार्च 1926 में अपने नवजात बेटे की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू अपनी पत्नी और बेटी के साथ मुंबई से पानी के जहाज से वेनिस जा रहे थे । जब उनका जहाज स्वेज नहर से गुजर रहा था तो उन्होंने इंदिरा गांधी से मिस्त्र की सभ्यता के बारे में बेहद लंबी बातचीत तिहासिक सभ्यता के बारे में बहुत कुछ बताया । बाबजूद इस पारिवारिक परिवेश के इंदिरा गांधी अध्ययन और मनन-चिंतन से दूर रही । राजेन्द्र पुरी ने 1975 में छपी अपनी किताब- इंडिया दे वेस्टेड इयर्स में लिखा है इंदिरा गांधी का अपना कोई स्टाइल नहीं था वो हमेशा नेहरू की अदाओं की नकल करती थी, चाहे तेज चलना हो, भीड़ में घुस जाना हो या फिर भीड़ को डांट देना हो क्योंकि उसे पता था कि लोग इन अदाओं में उसके पिता की छवि देखते हैं । उस छवि को इंदिरा जिंदा रखना चाहती थी । लेकिन इंदिरा गांधी ने कभी नेहरू की लिखने पढ़ने वाले नेता की छवि की चिंता नहीं की ।
नेहरू के दौर के ही कुछ नेताओं ने लिखने पढ़ने का काम जारी रखा जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी और राम मनोहर लोहिया प्रमुख हैं । इसके अलावा लाल कृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह ने भी अपनी आत्मकथाएं लिखीं हैं , नटवर सिंह ने भी कई किताबें लिखी । कुछ वामपंथी नेताओं ने आयातित विचारधाऱा के आदार पर लेखन किया जिसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए । लेकिन ज्यादातर नेता पढ़ने लिखने से ज्यादा गणेश परिक्रमा कर अपनी सत्ता बचाने में लगे हैं । इस वक्त के नेताओं पर गौर करें तो पूरे परिदृश्य में एक अजीब तरह की विचार शून्यता दिखाई देती है । नेताओं के विचारों को जानने समझने का अवसर प्राप्त नहीं होता है । अभी के परिदृश्य में शशि थरूर सबसे गंभीर काम कर रहे हैं । छिटपुट लेख तो सीताराम येचुरी से लेकर बलबीर पुंज तक लिख रहे हैं जो फौरी घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी की तरह होती है । इसके अलावा गाहे बगाहे अरुण जेटली न्यायिक व्यवस्था से जुड़े मसलों पर अपनी राय जाहिर करते हैं । इस बीच कपिल सिब्बल का कविता लिखना एक सुखद हवा के झौंके की तरह आया । उनकी कविताएं कैसी हैं, उसका स्तर कैसा है जैसे सवाल तो उठते रहेंगे और उसपर विमर्श भीहोता रहेगा लेकिन बड़ी बात यह है कि एक केंद्रीय मंत्री साहित्य के लिए वक्त निकाल रहा है । इस बात के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए । अभी अभी पत्रकार से सांसद बने मानवेन्द्र सिंह ने भी अपनी अपने चुनाव के दौरान के अनुभवों को डायरी की शक्ल में लिखा है । यह एक शुभ संकेत है । वर्ना तो बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में नेता लोग अपने भाषणों का संग्रह छपवाने में जुटे हैं । प्रकाशक इस वजह से छाप देते हैं क्योंकि उसमें उनको कारोबारी संभावना नजर आती है ।  दरअसल गिरावट समाज के हर क्षेत्र में आया है लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को जनता दूसरे नजरिए से देखती है और उनके क्रियाकलापों का असर होता लिहाजा उनसे अपेक्षाएं भी होती हैं । इन अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अगर आज के नेता स्वीकार करने का साहस दिखा पाते हैं तो विचारक नेताओं का स्वर्णिम युग लौट सकता है । कहावत भी है कि इतिहास अपने को दोहराता है । इस कहावत को कहनेवाले ने हालांकि इतिहास के दोहराने की समय सीमा नहीं बताई थी ।
 

 

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