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Sunday, October 6, 2013

विवाद से शर्मसार हिंदी साहित्य

हिंदी साहित्य में अपनी पहचान और प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे छोटे से पुरस्कार लमही सम्मान को लेकर इन दिनों शर्मनाक विमर्श हो रहा है । पुरस्कार के ऐलान, अर्पण से लेकर उसके लौटाने तक बेहद निर्लज्जता के साथ जिस तरह का खेला जा रहा है उसने तो राजनीतिक बेशर्मी को भी पीछे छोड़ दिया है । परोक्ष और प्रत्यक्ष आरोपों-प्रत्यारोपों से हिंदी की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है । लमही सम्मान पर उठे विवाद को पीढ़ियों की टकराहट की शक्ल देने की कोशिश की जा रही है । इस कोशिश में वरिष्ठ लेखकों के बारे में उलजलूल और अनर्गल प्रलाप शुरू हो गए हैं । व्यक्तिगत टिप्पणियों से हिंदी साहित्य शर्मसार हो रहा है । व्यक्तिगत खुंदक को मंच मंच मुहैया करवाया है सोशल नेटवर्किंग साइट्स की अराजक आजादी ने । पुरस्कार की इस साहित्यक लड़ाई पर व्यक्तिगत कुंठा बुरी तरह से हावी है । ना वरिष्ठों का सम्मान और ना ही खुद की प्रतिष्ठा का ख्याल ।
आज की इस हालत के लिए हिंदी के अधिकांश लेखकों की पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार है । हिंदी साहित्य में तकरीबन चालीस पचास खुदरा पुरस्कार दिए जा रहे हैं । अगर हम उत्तर प्रदेश सरकार के थोक साहित्यक पुरस्कारों को नजरअंदाज भी कर दें तो क्योंकि वहां तो पुरस्कार की बजाए रेवड़ी बंटती है जो अपनों अपनों को मिलती है। कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन भेजते हैं । कहना नहीं होगा कि हिंदी के ज्यादातर नए लेखक/लेखिकाओं  में हल्का काम करके भी प्रसिद्धि की ललक ऐसे पुरस्कारों को प्राणवायु प्रदान करती है । कई पुरस्कारों की धनराशि तो पांच से दस हजार रुपए तक है लेकिन उन पुरस्कारों की आड़ में कई तरह के विमर्श आकार लेते हैं । सवाल यह उठता है कि हिंदी के लेखकों में पुरस्कार को लेकर इतनी भूख क्यों है । क्योंकर वो हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए सारे दंद फंद और पुरस्कार देनेवालों की चापलूसी तक पर उतारू है । इसकी पड़ताल करने पर बेहद निराशाजनक तस्वीर दिखाई देती है । हिंदी के लेखकों में मेहनत करने की प्रवृत्ति का लागातार क्षय हो रहा है । बगैर व्यापक शोध के और कल्पना के आधार पर यथार्थ लिखने की प्रवृत्ति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है । विचारधारा वाली साहित्य ने तो नुकसान किया ही । नई पीढ़ी में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है - जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस चाहत का फायदा उठाकर कुछ साहित्यक कारोबारी पुरस्कारों में संभावनाएं तलाशते हैं । हिंदी के नए लेखक शुरू से ही आसमान पर चढ़ने की तमन्ना पाले बैठे रहते हैं । महात्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं है।  हर किसी को महात्वाकांक्षी होना चाहिए लेकिन उसमें अति के जुड़ने से जो खतरनाक रोमांच जुड़ता है वह खतरनाक है । पुरस्कार के कारोबारी इस प्रवृत्ति को बढ़ाकर खतरा और बढ़ा देते हैं ।
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है । हिंदी में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान को माना जाता था लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा है । दो हजार एक से लेकर दो हजार दस तक की साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए बनाई गई पुस्तकों की आधार सूची पर नजर डालने से यह बात और साफ हो जाती है । दो हजार तीन में जब कमलेश्वर को उनके उपन्यास - कितने पाकिस्तान - पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था तो उस वक्त की आधार सूची में इकतीस लेखकों के नाम थे जिसे मृदुला गर्ग ने तैयार किया था । इस सूची में तेजिन्दर, गौरीनाथ, हरि भटनागर, संजना कौल और जयनंदन आदि के नाम शामिल थे । तब अकादमी पर यह आरोप लगा था कि कमलेश्वर का नाम पहले से तय था । दो हजार चार में जब वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा पर पुरस्कार मिला तो शक का कोहरा और घना हो गया था । उस वक्त हिंदी के संयोजक थे गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद ने । हद तो तब हो गई थी जब निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल बैठक में उपस्थित ही नहीं हो सके थे । अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य से रा यात्री ने लिखा- दुश्चक्र में स्रष्टा- काव्य कृति को हम सभी निर्णायक मंडल के सदस्य एक समान प्रथम वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के दो हजार चार के पुरस्कार के लिए सहर्ष प्रस्तुत करते हैं । लेकिन संस्तुति पत्र पर सिर्फ उनके ही दस्तखत थे । उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा- श्री श्रीलाल शुक्ल एवं कमलेश्वर जी उपस्थित नहीं हो सके । उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे में भेजी है । श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी बातकर दुश्चक्र में स्रष्टा को 2004 के पुरस्कार के लिए समर्थन दिया । हलांकि साहित्य अकादमी के दस्तावेजों में श्रीलाल जी की संस्तुति मौजूद नहीं है । कमलेश्वर का बीस दिसंबर का खत है जो इक्कीस दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था । वीरेन डंगवाल की प्रतिष्ठा पर किसी को कोई शक नहीं है । वो साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व भी करते थे लेकिन जिस अफरातफरी में पुरस्कार का ऐलान किया गया उससे चयन प्रक्रिया की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई थी । कालांतर में अकादमी पुरस्कारों के चयन को लेकर कई गंभीर आरोप लगे । नतीजा यह हुआ कि अकादमी पुरस्कार को हिंदी जगत में उस तरह का उत्साह नहीं रहा जो नब्बे के दशक में हुआ करता था ।

लमही सम्मान को लेकर उठे शर्मनाक विवाद के बाद हिंदी के कर्ता धर्ताओं की यह जिम्मेदारी है कि वो इस वक्त आगे आएं और टुटपुंजिए पुरस्कारों को चिन्हित कर उसके बहिष्कार का विरोध करें ताकि हिंदी से पुरस्कारों के कारोबार पर रोक लगाई जा सके । अंत में मैं कात्यायनी की कविता से खत्म करूंगा- दो कवि थे/बचे हुए अंत तक/वे भी पुरस्कृत हो गए/इस वर्ष/इस तरह जितने कवि थे/सभी पुरस्कृत हुए/और कविता ने खो दिया /सबका विश्वास । चुनौती इसी विश्वास को बचाने की है । 

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