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Thursday, October 24, 2013

विवेकानंद पर विशिष्ट

मेरा मानना है कि साहित्यक पत्र-पत्रिकाएं साहित्य का वो मंच है जहां साहित्य की सभी विधाओं में नई छप रही रचनाओं के अलावा समकालीन साहित्यक विमर्श और विवादों पर लेखकों की राय और पाठकों की प्रतिक्रिया होती है । हिंदी में इस वक्त नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश और पाखी के अलावा साहित्य अमृत की निरंतरता के साथ निकल रही है । हंस और पाखी तो अपने यहां साहित्यक विवादों को नियमित रूप से जगह देते रहे हैं । कथादेश भी अपने खांचे में अपने पसंदीदा लेखकों से विवादों पर विमर्श करवाते रहते हैं । छिनाल विवाद के पहले ज्ञानोदय में भी साहित्यक विवादों को जगह मिलती रही थी । लेकिन छिनाल विवाद के बाद ज्ञानोदय ने अपने आपको साहित्यिक विधाओं पर केंद्रित कर लिया है । इन सबके बीच साहित्य अमृत में कभी भी विवादों को जगह नहीं मिली । मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन एक बार मैंने किसी साहित्यक विवाद पर साहित्य अमृत को एक लेख भेजा था । लेकिन पियूष जी ने बेहद विनम्रतापूर्वक अपनी संपादकीय नीति की जानकारी देते हुए मेरा लेख वापस कर दिया था । पिछले दो साल से मैं लगातार साहित्य अमृत को देख-पढ़ रहा हूं । चौथी दुनिया में एकाधिक बार उसके अंकों और संपादकीयों के बहाने टिप्पणी भी कर चुका हूं । अभी अभी साहित्य अमृत ने एक बेहद काम किया है जिसको हिंदी साहित्य में रेखांकित किया जाना चाहिए । साहित्य अमृत ने अपने अगस्त अंक को स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित किया है । सवा तीन सौ पन्नों के इस महाविशेषांक को पढ़ने के बाद विवेकानंद के विचारों और उनके व्यकतित्व को मोटे तौर पर समझा जा सकता है । इस अंक में विवेकानंद पर निराला जी का लिखा चर्तित लेख- वेदांत केशरी स्वामी विवेकानंद भी है । अपने इस लेख में निराला ने स्वामी विवेकानंद के चमत्कारी व्यक्तित्व और पराधीनता के दौर में लोगों में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने की उनकी क्षमता को उकेरा है । इलके अलावा इस अंक में विवेकानंद पर लिखे- प्रेमचंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, रोम्या रोलां, भगिनी निवेदिता से लेकर गिरिराज किशोर, देवेन्द्र स्वरूप, कृष्णदत्त पालीवाल, बी के कुठियाला, मृदुला सिन्हा तक के लेख संकलित किए गए हैं । संयोग यह है कि इस अंक से साहित्य अमृत के साथ वरिष्ठ लेखक प्रकाश मनु भी संयुक्त संपादक के रूप में जुड़े हैं । अपने संपादकीय में त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने विवेकानंद के कोलकाता के एक भाषण का अंश उद्धृत किया है- क्या हमें हमेशा पाश्चात्यों के चरणों में बैठकर हर चीज उनसे सीखनी होगी, यहां तक कि धर्म भी । हम उनसे क्रियाविधि सीख सकते हैं । हम उनसे और कई चीजें सीख सकते हैं । लेकिन हमें भी उन्हें कुछ पढ़ाना होगा और वह है हमारा धर्म, हमारी आध्यात्मिकता । अत: बाहर जाना चाहिए । समानता के बिना मैत्री नहीं हो सकती और हमारा एक पक्ष सदा अध्यापक की तरह रहे और दूसरा सदैव शिष्य की तरह चरणों में बैठे तो समानता नहीं हो सकती । यदि तुम अंग्रेजों अथवा अमेरिकनों से बराबरी चाहते हो तो तुम्हें पढ़ना और उनसे कुछ सीखना होगा और तुम्हारे पास उनको सदियों तक पढ़ाने के लिए बहुत कुछ है । अब इस कथन से स्वामी विवेकानंद की उस वक्त की सोच को समझा जा सकता है । अपने देश के धर्म और दर्शन में विवेकानंद की अगाध श्रद्धा थी और उनको उसपर भरोसा भी था । उनके उपर के इस कथन- तुम्हारे पास उनको सदियों तक पढ़ाने के लिए बहुत कुछ है- से उनका भरोसा साफ तौर पर दिखता है । कुल मिलाकर विवेकानंद पर साहित्य अमृत का यह अंक बेहद उपयोगी और संग्रहणीय है ।

हाल ही मैं हंस संपादक राजेन्द्र यादव ने भागलपुर, बिहार से निकलनेवाली पत्रिका- किस्सा -का अंक भिजवाया । इसके प्रधान संपादक शिवकुमार शिव और संपादक डॉ योगेन्द्र हैं । पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भागलपुर विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे डॉ राधाकृष्ण सहाय की भव्य फोटो छपी है । पत्रिका का कवर देखकर मैं एकदम से ठिठका । नब्बे के शुरुआती दशक में एक बार कभी डॉक्टर सहाय से मेरी मुलाकात हुई थी । उस मुलाकात की बहुत धुंधली सी तस्वीर मेरे मन पर है । संभवत साहित्यक पत्रिका संवेद के जमालपुर से निकलने का दौर था । डॉ राधाकृष्ण सहाय को तब मैं एक गंभीर नाटककार के रूप में जानता था । बाद में मुझे पता चला कि वो कहानियां भी लिखते हैं । बाद में यह भी पता चला कि डॉ सहाय हमारे परिवार से जुड़े हैं । मेरी भाभी बेहद श्रद्धा के साथ डॉ सहाय और उनकी पत्नी प्रोफेसर मालती को याद करती रहती हैं । इस साल जून में भागलपुर गया था तो यह सोचकर गया था कि डॉ सहाय से मिलूंगा लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई । शादी में रातभर जगा होने के बाद जब मैं सुनील भैया से मिलने महेश अपार्टमेंट गया तो डॉ सहाय के बारे में दरियाफ्त की । उनके बारे में काफी चर्चा भी हुई । भैया और बड़की बहिन दोनों बहुत आदर के साथ डॉक्टर सहाय के बारे में बात कर रहे थे । मिलने की इच्छा और प्रबल हो रही थी । लेकिन डॉ सहाय के भागलपुर से बाहर होने की वजह से उनसे मुलाकात नहीं हो पाई । अब जब किस्सा के अंक के कवर पर उनकी फोटो देखी तो मुलाकात नहीं हो पाने का अफोसस और बढ़ गया । इस अंक में डॉ सहाय की कहानी -खुदा हाफिज और संस्मरण के तौर पर -ढंग अपना अपना प्रकाशित है । ढंग अपना अपना में उनके जर्मनी प्रवास के दौरान पान और पारिवारिक संस्कार का बेहतरीन चित्रण है । संपादकीय में डॉ योगेन्द्र ने बताया है कि उनकी कहानी -खुदा हाफिज का 1971 में अज्ञेय ने अनुवाद किया था और वॉक पत्रिका में उसको प्रकाशित किया था । डॉ सहाय की दो रचनाएं पढ़ने के बाद उनकी कहानियां पढ़ने की ललक पैदा हुई है । इस अंक में इसके अलावा राजेन्द्र यादव पर दिनेश कुशवाह का लेख देखा जा सकता है । किस्सा पत्रिका का प्रोडक्शन शानदार है । चमकते हुए कागज का उपयोग किया गया है । छपाई सफाई अच्छी है । इसके पहले के दो अंक मैंने नहीं देखे हैं लेकिन अगर संपादकगण पत्रिका की निरंतरता बरकरार रख सके तो आनेवाले दिनों में इस पत्रिका में अपनी पहचान बना लेने के संकेत मिल रहे हैं ।

एक पत्रिका मुझे डाक से मिली क्रमश: । यह पत्रिका सृजनात्मक अनुभव का अनवरत सिलसिला होने का दावा करती है । इसके संपादक सत्येन्द्र हैं । पत्रिका का यह अंक कवि लेखक स्व संजय कुमार गुप्त पर केंद्रित है । इस अंक का संपादन शैलेन्द्र चौहान ने किया है । संजय कुमार गुप्त बालाघाट में कॉलेज शिक्षक थे और समकालीन हिंदी साहित्य में कविताएं और टिप्पणियां लिखकर हस्तक्षेप कर रहे थे । उनकी असमय मौत से एक संभावनाशील लेखक हमारे बीच नहीं रहा । क्रमश: के इस अंक में स्वर्गीय संजय की रचनाओं को एक जगह इकट्ठा कर पाठकों के सामने रखा गया है । संजय की कविताओं में एक खास किस्म का विद्रोह और विट दोनों दिखाई देता है । जब वो कहते हैं- आओ/गालियों को एक नए सिरे से जिंदा करें/गालियों की प्रशस्ति में गीत लिखें/आज नपुंसकता के देह समय में/ शायद गालियां वियाग्रा की गोलियां सिद्ध हो । इस कविता के बिंब आधुनिक हैं । आज की आपाधापी में जब किसी को सिवाए अपने दूसरे की फिक्र नहीं । वैसे समय में अपने स्वर्गीय मित्र पर अंक पत्रिका का अंक केंद्रित करना आश्वतिकारक है । जो रचेगा वो जरूर बचेगा ।

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