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Sunday, December 1, 2013

संवेदना और उपेक्षा के 'संग्रहालय'

अभी हाल में अखबारों में एक छोटी सी खबर छपी थी कि एक संग्रहालय में कर्मचारियों और अधिकारियों के बैठने की जगह कम पड़ने लगी तो वहां नए नए पदस्थापित हुए एक आला अफसर ने दुर्लभ पेंटिग्स को डब्बे में बंद करवा कर रखवा दिया । इस खबर से कला जगत उद्वेलित भी हुआ था । उस उद्वेलन में वो आग नहीं थी कि वो अपने विरोध को दर्ज करवा सके और सरकार की कुंभकर्णी उपेक्षा को जगा सके। दरअसल यह घटना किसी एक अधिकारी की संवेदनहीनता का मामला नहीं है । यह तो संकेत है सरकारी लापरवाही और उपेक्षा की जिसके शिकार हमारे देश के संग्रहालयों को होना पड़ रहा है । हमारे देश में आठ सौ छत्तीस सरकारी और स्वायत्त संग्रहालय हैं । कमोबेश इन सभी संग्रहालयों की हालत दयनीय है । इन संग्रहालयों में अरबों रुपए की कीमत की कलाकृतियां और पेंटिग्स, पुराकलीन मूर्तियां और सिक्के रखे हैं लेकिन उनके रखरखाब के लिए तकनीकी तौर पर जानकार लोगों की कमी की वजह से वो नष्ट हो रहे हैं । एक अनुमान के मुताबिक भारतीय संग्रहालयों में जितनी पौराणिक महत्व की वस्तुएं और कलाकृतियां हैं उनमें से तकरीबन दस फीसदी ही प्रदर्शित की जा सकी हैं । कोलकाता के संग्रहालय की एक लाख दस हजार रजिस्टर्ड वस्तुओं में से सिर्फ दस फीसदी ही प्रदर्शित होती हैं । पुराने सिक्कों को लेकर तो स्थिति और भी खराब है । संग्रहालय के खजाने में मौजूद बावन हजार सिक्कों को जगह की कमी की वजह से जनता के देखने के लिए नहीं रखा जा सका है और वो डब्बों में बंद हैं । अब से दो साल पहले संस्कृति मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के बारे में बेहद कठोर टिप्पणी की थी । संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि संग्रहालय का लगभग एक तिहाई हिस्सा सालों से बंद पड़ा है । उस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई थी कि राष्ट्रीय संग्रहालय की दो लाख वस्तुओं में से सिर्फ साढे सात फीसदी वस्तुएं ही प्रदर्शित होती हैं । संसदीय समिति की उस रिपोर्ट पर अबतक क्या कार्रवाई हुई या क्या सुधार किए गए यह सार्वजनिक रूप से ज्ञात नहीं हो सका है । ठीक इसी तरह से दो हजार दस में यूनेस्को की राष्ट्रीय संग्रहालयों की ड्राफ्ट रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं पाई । माना जाता है कि यूनेस्को की रिपोर्ट में संग्रहालयों की बदहाली के बारे में विस्तार से बताया गया था । दो हजार चौदह में भारतीय संग्रहालय के दो सौ साल पूरे होने जा रहे हैं । दो सौ साला जलसे को लेकर एक कमेटी बनाई गई थी जिसे अज्ञात वजहों से भंग कर दी गई । किसी भी संग्रहालय के दो सौ साल पूरे होने का मौका उसके गौरवशाली इतिहास को पूरे विश्व के सामने प्रदर्शित करने का बेहतरीन मौका होता है । भारतीय संग्रहालय को इस मौके को अपनी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने के अवसर के तौर पर लेना चाहिए । लेकिन अब तक जो गतिविधियां वहां हो रही हैं उससे तो यही लगता है कि सरकार और प्रशासन दोनों इसको लेकर उदासीन हैं । जो संग्रहालय अपने खजाने में मौजूद वस्तुओं को प्रदर्शित नहीं कर पा रहे हों उनसे ज्यादा उम्मीद करना बेमानी है ।
अब अगर हम अपने देश के संग्रहालयों की बदहाली और बेहाली की पड़ताल करते हैं तो उसके मूल में जो कारण सबसे मजबूती के साथ उभरता है वह है सरकारी उपेक्षा । इसके अलावा दो दूसरी सबसे बड़ी वजह है वह है प्रशिक्षित अफसरों और कर्मचारियों का आभाव । भारतीय संग्रहालय में ही अगर देखें तो दो सौ साठ पदों में से करीब सौ पद खाली हैं । हैदराबाद के मशहूर सालारजंग म्यूजियम में क्यूरेटर के कई पद खाली हैं । इसी तरह मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज संग्रहालय में भी दस से पंद्रह फीसदी पद खाली हैं । इन तीन सबसे बड़े संग्रहालयों की हालत से हम बाकी संग्रहालयों की हालात का अंदाजा लगा सकते हैं । इन खाली पड़े पदों की वजह से इन संग्रहालयों में दैनिंदन कामकाज पर असर पड़ रहा है । इसके अलावा जो एक और अहम नुकसान हो रहा है वह यह है कि किसी तरह के नए काम को अंजाम नहीं दिया जा रहा है । यही वजह है कि बजट में मिले पैसों का उपयोग संस्थानों में नहीं हो पा रहा है और वित्तीय वर्ष के अंत में बगैर इस्तेमाल पैसा सरकार के पास लौट जाता है । सराकरी उपेक्षा का आलम तो यह है कि इन सांस्कृतिक संस्थाओं के मुखिया के लिए विशेषज्ञों की बजाए अफसरशाहों को तवज्जो दी जा रही है । संग्रहलायों और राष्ट्रीय कला संस्थान संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिवों के हवाले है जो अपने प्राथमिक दायित्वों के बोझ तले ही इतना दबे होते हैं कि उनको इन कामों के लिए फुरसत ही नहीं मिल पाता है । प्रशासनिक अधिकारियों की इन पदों पर नियुक्ति का नतीजा यह होता है कि विशेषज्ञता के अभाव में ऐसे फैसले हो जाते हैं जिसका जिक्र इस लेख की शुरुआत में हुआ है ।
सरकारी उपेक्षा और निर्णय लेने में होनेवाली देरी का असर भी इन संस्थाओं के कामकाज पर पडता है । विदेशों की तर्ज पर हमारे यहां संग्रहालयों में जनता को जोड़ने के लिए कोई खास कार्यक्रम नहीं होता है । विदेशों में संग्रहालयों में इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सालाना कैलेंडर होता है जो कला प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है । फिल्म, संगीत, नियमित व्याख्यानमाला आदि से कला प्रेमियों को अपने साथ जोड़ने का काम ये संस्थान लगातार करते चलते हैं । फ्रांस के संग्रहालयों में तो फैशऩ शो भी आयोजित किए जाते हैं । इसके अलावा संग्रहालयों के परिसर में कैफे,रेस्तरां  और किताबों की दुकानें भी होती हैं जो वहां जानेवालों के लिए आकर्षण का वजह होती हैं । इन कार्यक्रमों और स्थानों से जनता को जोड़ने का काम तो होता ही है साथ ही संस्थाओं की आय में बढ़ोतरी होती है । हमारे संग्रहलायों में इस तरह का माहौल नहीं है कि वहां बैठकर कलाप्रेमी गंभीर विषयों पर चर्चा कर सकें । किताबों की दुकान की तो खैर कल्पना भी बेमानी है । दिल्ली में ही देखें तो राष्ट्रीय संग्रहालय और नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट दो ऐसी जगहें हैं जहां किताबों की दुकान से लेकर कैफे तक की शानदार व्यवस्था हो सकती थी । लेकिन ऐसा है नहीं । वहां या तो छात्रों की टोली जाती है या फिर दिल्ली घूमने आए देश विदेश के पर्यटक । जरूरत इस बात की है कि इन स्थानों को इस तरह से विकसित किया जाए कि वहां स्थानीय जनता की भागीदारी बढ़े, इसके परिणाम सुखद होंगे । अब भी हमारे ज्यादातर संग्रहालयों में प्रवेश शुल्क के तौर पर दस रुपए ही लिए जाते हैं । छात्रों से तो एक रुपए ही । जरूरत इस बात की है कि प्रवेश शुल्क बढाया जाए और उससे होनेवाली आय से कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।

इसके अलावा संग्रहालयों में कलाकृतियों की अनुकृतियां बनाने का काम भी लगभग ठप पड़ा है । कुछ पुराने लोग हैं जो इस काम को अंजाम दे रहे हैं । संग्रहालय और कलादीर्घा की ओर से इस काम में नए लोगों को जोड़ने का काम नहीं हो पा रहा है । चेन्नई के सरकारी संग्रहालय में राजा रवि वर्मा की दर्जनों पेटिंग्स, तंजौर आर्ट के नायाब नमूने और सिक्के हैं । इन कलाकृतियों की अनुकृतियां अगर बनवाकर बेची जाएं तो कला के प्रचार के साथ साथ संग्रहालयों की आय में भी बढ़ोतरी होगी । लेकिन फिर से सवाल वही उठता है कि आगे बढ़कर इस काम को अंजाम कौन देगा । क्या हम उन अफसरों से इस बात की अपेक्षा कर सकते हैं जो इन कामों के लिए प्रशिक्षित नहीं है और यह उनका प्राथमिक दायित्व भी नहीं है । क्या हम राजा रवि वर्मा की हैसियत से अंजान उन सरकारी बाबूओं से यह अपेक्षा कर सकते हैं वो उनकी पेंटिग्स की अनुकृतियां बनवाकर उसको बेचने के लिए प्रयासरत होंगे । जवाब है नहीं । हमें अपनी विरासत को बचाने और उसको प्रचारित करने के लिए सजग होना पड़ेगा । सरकार को भी संग्रहालयों और कलादीर्घाओं के प्रति अपनी उपेक्षा भाव और संवेदनहीनता को छोड़ना होगा । नहीं तो फिर कोई अफसर आएगा और अगर उसे बैठने की जगह नहीं मिली तो वो कलाकृतियों और पौराणिक महत्व के समानों को डब्बे में बंद कर अपने और कर्माचरियों के बैठने की जगह बनाता रहेगा । 

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