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Thursday, January 31, 2013

बौद्धिक तानाशाही या आजादी ?

रोमन साम्राज्य के फर्डीनेंड-1 ने सोलहबीं शताब्दी में ऐलान किया था कि - हर कीमत पर न्याय होना चाहिए चाहे विश्व का नाश ही क्यों ना हो जाए । अपनी किताब आईडिया ऑफ जस्टिस में बाद में अमर्त्य सेन ने न्याय के इस सिद्धांत के बारे में लिखते हुए कहा था कि यह एक कठोर नीति हो सकती है पर यह न्याय कतई नहीं है । अमर्त्य सेन का मानना है कि समग्र विश्व के विध्वंस को एक न्यायपूर्ण समाज कह पाना संभव नहीं है । विश्व के नाश के बाद अगर न्याय संभव होता है तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा । कुछ इस तरह की बात ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वरिष्ठ समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कही जब उन्होंने मंच पर मौजूद एक वक्ता की बात - करप्शन इज अ ग्रेट इक्वलाइजर के समर्थन में कुछ ऐसा कह दिया जिस पर बवाल खड़ा हो गया । आशीष नंदी ने चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि - इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट कम फ्रॉम द ओबीसी एंड शेड्यूल कास्ट एंड नाउ इंक्रीजिंगली द शेड्यूल ट्राइव । उन्होंने इसके समर्थन में पश्चिम बंगाल में सीपीएम के शासनकाल का उदाहरण भी दिया । आशीष नंदी के इस बयान पर देशभर में बवाल मच गया । मीडिया पर उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगा, जो इस विवाद से बचकर निकल जाने का सबसे आसान रास्ता था । लेकिन इन आरोपों के बीच आशीष नंदी के बयान के दो शब्दों पर गौर नहीं करने की चूक होती चली गई । आशीष नंदी इस देश के सबसे बड़े विचारक और ऋषितुल्य चिंतक हैं । उनके शब्दों के चयन पर संदेह करने की ना तो कोई वजह है और ना ही कोई पृष्ठभूमि । आशीष नंदी अपने लेखन में पिछले चार पांच दशकों से पिछड़ों और दलितों के हितों की वकालत करते रहे हैं ।  लेकिन 26 जनवरी को जयपुर में उन्होंने जो कहा उसके दो शब्द पर हमें गौर करना चाहिए । उन्होंने कहा कि - इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट ...। इस वाक्य में फैक्ट और मोस्ट पर ध्यान देना चाहिए । फैक्ट यानि तथ्य और मोस्ट यानि सबसे ज्यादा । आशीष नंदी किस तथ्य की बात कह रहे थे, इस बात का खुलासा ना तो नंदी ने और ना ही उनके समर्थन में तर्क दे रहे बुद्धिजीवियों ने किया । आशीष नंदी और उनके समर्थक भी यह जानते हैं कि तथ्य बगैर किसी आधार के नहीं होते हैं । और जब आप सबसे ज्यादा कहते हैं तो उसका भी आधार होता है । लेकिन दोनों शब्दों का कोई आधार अब तक सामने नहीं आया है ।
अपने इस भाषण में नंदी ने कहा कि जबतक दलित और पिछड़े भ्रष्टाचार करते रहेंगे तो भारतीय गणतंत्र सुरक्षित है । सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार, चाहे वो उच्च वर्ग के लोगों द्वारा किया जा रहा हो या निम्न वर्ग के द्वारा, को कैसे जायज ठहराया जा सकता है । नंदी के समर्थकों का तर्क है कि पिछड़े तबकों का भ्रष्टाचार उच्च वर्ग के खिलाफ विद्रोह है । हो सकता है लेकिन जब ए राजा पर करोड़ों के भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो वो किस उच्च वर्ग के खिलाफ विद्रोह है, यह बात समझ से परे है । यह तो उसी तरह की बात हुई कि सबको न्याय मिलना ही चाहिए चाहे विश्व का नाश क्यों ना हो जाए ।
रिपब्लिक ऑफ आइडिया के सत्र में बोलते हुए आशीष नंदी ने पश्चिम बंगाल में सीपीएम के शासनकाल काल का उदाहरण देते हुए कहा था कि वो एक ऐसा राज्य है जहां भ्रष्टाचार न्यूनतम है क्योंकि पिछले सौ सालों से वहां पिछड़े, दलित और आदिवासी वर्ग का कोई नुमाइंदा सत्ता के करीब नहीं आया । आशी। नंदी के इस बयान को कई समाजशास्त्री तंज और व्यंग्य के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं । इस भाषण में कहां से तंज है यह बात समझ से परे है । 26 जनवरी की सुबह के सत्र के दौरान मैं पूरे वक्त मौजूद था और पूरी बातचीत और उसके कहने के अंदाज से कहीं भी नहीं लग रहा था कि आशीष नंदी व्यंग्य के रूप में यह बात कह रहे हैं । नंदी के इस बयान पर राजनीतिक दलों में दबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और सभी दलों ने उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी । मायावती से लेकर एससी कमीशन के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने उनकी गिरफ्तारी की मांग की । पुनिया ने तो उनके बयान को आपराधिक प्रवृत्ति तक का करार दे दिया । पुनिया के इस बयान के किसी भी तरह से सहमत नहीं हुआ जा सकता है, ना ही नंदी की गिरफ्तारी की मांग को जायज करार दिया जा सकता है । पुनिया इस बहाने राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं । लेकिन हमारे देश के बुद्धिजीवियों का एक तबका राजनेताओं को नंदी के बयान पर राजनीति नहीं करने की सलाह दे रहे हैं । उनका तर्क है कि नंदी के बयान का प्रतिवाद तर्कों के आधार पर किया जाना चाहिए और इस मामले से राजनेताओं को अलग रहना चाहिए । दरअसल कुछ बुद्धिजीवियों का यह तर्क बेहद हास्यास्पद है । वो राजनेताओं को राजनीति ना करने की सलाह दे रहे हैं, उनकी अपेक्षा है कि मायावती या पुनिया या बीजेपी-कांग्रेस के नेता अखबारों और पत्रिकाओं में लेख लिखकर विरोध जताएं । लोकतंत्र में राजनेता राजनीति ही करते हैं और करेंगे । हमारे बुद्धिजीवी यह भूल गए हैं कि अगर आशीष दा की तरह का कोई बयान राजनेता देता तो उसके क्या तर्क होते । लोकतंत्र के नाम पर हमारे देश के बुद्धिजीवी एक और खेल खेलते हैं , वह है अपने विचारों को थोपने का खेल । अगर आप हमारे विचारों के साथ नहीं हैं तो आप अनपढ़, मूढ़ और दकियानूसी हैं जबकि होना यह चाहिए कि आशीष नंदी की तरह हर किसी को अपने विचारों को जताने का हक है ।
अमर्त्य सेन ने अपनी किताब में तीन बच्चों- अन्ना, बॉब और कार्ला ( हिंदी अनुवाद में इसे सरल करते हुए ए, बी और सी नाम दे दिया गया है ) के बीच एक बांसुरी के स्वामित्व को लेकर हुए विवाद का उदाहरण देते हैं । अन्ना यह कहकर बांसुरी पर अपना हक जताता है कि उसे ही बांसुरी बजानी आती है । वहीं बॉब का तर्क यह है कि वह बेहद गरीब है और उसके पास कोई खिलैना नहीं है लिहाजा बांसुरी उसको मिलनी चाहिए । कार्ला का तर्क है कि उसने कड़ी मेहनत करके बांसुरी बनाई है इसलिए उसपर उसका ही अधिकार है । अब इन तीन बच्चों के तर्क के आधार पर आपको फैसला करना है । सेन का मानना है कि मानवीय आनंदानुभूति, गरीबी निवारण और अपने श्रम के उत्पादन का आनंद उठाने के अधिकार पर आधारित किसी भी दावे को निराधार कहकर ठुकरा देना सहज नहीं है । आर्थिक समतावादी के लिए बॉब के पक्ष में निर्णय देना आसान है क्योंकि उनका आग्रह संसाधनों के अंतर कम करने को लेकर है । दूसरी ओर स्वातंत्र्यवादी सहज भाव से बांसुरी बनानेवाले यानि कार्ला के पक्ष में फैसला सुना देगा । सबसे अधिक कठिन चुनौती उपयोगिता आनंदवादी के समक्ष खडा़ हो जाता है लेकिन वह स्वातंत्र्यवादी और समतावादी की तुलना में अन्ना के दावे को प्रबल मानते हुए उसके पक्ष में फैसला दे देगा । उसका तर्क होगा कि चूंकि सिर्फ अन्ना को ही बांसुरी बजानी आती है इसलिए उसको सर्वाधिक आनंद मिलेगा । सेन का मानना है कि तीनों बच्चों के निहित स्वार्थों में कोई खास अंतर नहीं है फिर भी तीनों के के दावे अलग-अलग प्रकार के निष्पक्ष और मनमानी रहित तर्कों पर आधारित हैं । ठीक इसी तरह से नंदी, उनके पक्ष में खड़े बुद्धिजीवी और राजनेताओं के अपने अपने तर्क हैं, जिनको रोकना बौद्धिक तानाशाही को बढ़ावा देगा ।

Wednesday, January 23, 2013

लेखकों के मंथन का वक्त

भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की वजह से खुलेपन का फायदा हर क्षेत्र को हुआ । विदेशी कंपनियों को भारत में एक बड़ा बाजार दिखाई देने लगा था आर्थिक उदारीकरण का फायदा यह हुआ कि देश के अन्य क्षेत्रों की तरह प्रकाशन जगत में भी विदेशी प्रकाशकों की आवाजाही बढ़ी भारत के प्रकाशक भी विदेशी पुस्तक मेलों में जाने लगे हिंदी के कई प्रकाशकों ने अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों का अनुवाद करवाना शुरू किया नतीजा यह हुआ कि भारत के पाठकों को विदेशी लेखकों की रचनाओं से परिचय होने लगा उसके पहले तो सिर्फ रूस का प्रगति प्रकाशन ही विश्व साहित्य, या यों कहें कि एक खास विचारधारा की साहित्य, से हमारा परिचय करवाता था । इसके अलावा इस उदारीकरण का एक और फायदा यह हुआ कि हमारे देश में भी साहित्यक संस्कृतियों के नाम पर मेले शुरू होने लगे । पहले तो भारत में साहित्य संस्कृति के नाम पर चंद आयोजन होते थे । साहित्य के आयोजन या तो सृजनात्मकता की कब्रगाह (राजेन्द्र यादव के शब्द ) भारतीय विश्वविद्यालयों में होते थे या फिर कुछ लेखक संघों की पहल पर होते थे । उदारीकरण के बाद से देश में साहित्यिक आयोजन भी प्रगतिशीलों और विश्वविद्यालय शिक्षकों के हाथों से निकलकर सृजनात्मकता से लबरेज लेखकों के हाथों में भी पहुंचा । उन लेखकों के हाथों में जो साहित्यक आयोजनों के बहाने अपनी और साथी लेखकों की बात आम जनता या यों कह सकते हैं कि साहित्य में रुचि रखनेवाले लोगों तक पहुंचा सकें । पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाने के काम से मुक्त होकर ये आयोजन साहित्यक विमर्श के मंच बनने लगे । इन आयोजनों की सफलता से एक बात तो साफ हो गई कि जन और लोक की बात करनेवाले साहित्यकारों और साहित्य के ठेकेदारों के आयोजनों से ज्यादा जन और लोक दोनों की भागीदारी इन मेलों में होने लगी ।
साहित्य के नाम पर होने वाले आयोजनों में पूंजी को लेकर भी प्रगतिशीलों ने पूर्व में खासा बखेड़ा किया था । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक कोरियाई कंपनी ने साहित्य अकादमी के एक पुरस्कार की धनराशि को स्पांसर करने का फैसला लिया था । साहित्य अकादमी ने उसे मंजूरी भी दे दी थी लेकिन उस पुरस्कार को लेकर हिंदी जगत में वामपंथी लेखकों ने बड़ा वितंडा खड़ा कर दिया था । साहित्य अकादमी पर चंद लेखकों ने प्रदर्शन कर विरोध जताया था । उस पुरस्कार के खिलाफ हिंदी में कई लेख लिखे गए । बाद में जब दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में य़े कार्यक्रम आयोजित हुआ था तो मुट्ठीभर लोगों ने वहां भी विरोध जताने की कोशिश की थी । ये लोग साहित्य में पूंजीवाद का विरोध कर बड़ा सवाल खड़ा करने का दंभ भरनेवाले लोग थे । विरोध करनेवाले विचारधारा की बिनाह पर लंबे चौड़े वादे और दावे करनेवाले थे जिनको खुद की पत्रिका में देशी-विदेशी कंपनियों के विज्ञापन छापने से परहेज नहीं था । इस विरोध का नतीजा यह हुआ कि कंनी ने उस पुरस्कार से अपना हाथ खींच लिया । उस घटना के बाद से साहित्य में पूंजी लगाने में कारपोरेट कंपनियां हिचकने लगी हैं ।
इसके अलावा हिंदी के लोगों ने कई साहित्यक मेलों का विरोध भी किया था । उसमें से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी एक है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल हर साल जयपुर के दिग्गी पैलेस में आयोजित होता है । चार पांच साल पहले तो हिंदी में जयपुर लिटरेचर फेस्टविल का हिंदी के साहित्यकारों ने जमकर विरोध किया था । उन्हें लगता था कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है और उनको हाशिए पर रखा जाता है । लेकिन आनेवाले दिनों में हिंदी के लेखकों की ये शंका निर्मूल साबित हुई । जयपुर साहित्य सम्मेलन में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी और हिंदी के लेखकों की भागीदारी भी, जाहिर सी बात है कि प्रतिष्ठा में भी इजाफा हुआ । आज जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान हिंदी के दर्जनों सत्र होते हैं . हिंदी के कई लेखकों की उसमें शिरकत होती है । पिछले साल आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के आलोचर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने शुरुआती सत्रों को ही संबोधित किया था । अंतराष्ट्रीय लेखकों से उनका मिलना जुलना होता है । अंतराष्ट्रीय पाठकों और विद्वानों के सामने हिंदी के लेखकों की रचनाओं पर विमर्श होता है । इन विमर्शों का फायदा अंतत: हिंदी और हिंदी के लेखकों को ही होता है । यह बात अब हिंदी के लेखकों की समझ में आने लगी है । इस साल जनवरी में होनवाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बड़ी संख्या में हिंदी के लेखकों की भागीदारी देखी जा सकती है । इस वजह से अक्तूबर नवंबर से ही हिंदी के लेखक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करवाने में जुटे रहते हैं । दरअसल यह हम हिंदीवालों के स्वभाव में है । पहले विरोध करते हैं, फिर जब लगता है कि उससे हमारा लाभ होनेवाला है तो उसके साथ हो जाते हैं ।
अगर आप पिछले सालों में हिंदी में उठे विवादों पर नजर डालें तो यह बात पूरी तौर पर साफ हो जाती है । हिंदी की साहित्यक पत्रिका नया ज्ञानोदय में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय का एक साक्षात्कार छपा था जिसमें उन्होंने छिनाल शब्द का इस्तेमाल किया था । उस एक शब्द को लेकर हिंदी साहित्य में काफी बवाल मचा था जिसके बाद विभूति ने खेद प्रकट कर विवाद को खत्म करने की कोशिश की थी  । लेकिन हिंदी के कई लेखकों ने राय के खिलाफ एक मुहिम शुरू की थी और ज्ञानपीठ के सामने धरना प्रदर्शन किया था । हल्ला गुल्ला और धरना प्रदर्शन में जोर शोर से शिरकत करनेवाले कई लेखक अब उसी विश्विद्यालय में अपना बुढापा काट रहे हैं । दरअसल हिंदी के लेखकों के बीच एक अजूब किस्म की स्नाबरी देखने को मिलती है । उजाले में तो वो सिद्धांत, विचारधारा, जन, लोक, आदि की बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन अंधेरा होते ही या सूना पाते ही उन सबको भुलाकर अपने लाभ लोभ के चक्कर में पड़ जाते हैं । जिससे उनकी विश्वसनीयता एकदम से दरक जाती है ।
हिंदी के प्रकाशकों को लेकर लेखकों को बहुत शिकायतें रहती हैं । यह बात बार बार सुनने में आती है कि हिंदी का लेखक गरीब होता जा रहा है और प्रकाशक अमीर होते जा रहे हैं । बहुत आसानी से प्रकाशकों पर लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप भी लगता रहता है । हो सकता है कि उन आरोपों में आंशिक सचाई हो लेकिन सवाल यह उठता है कि वही लेखक जब प्रकाशकों के सामने होते हैं तो उनका रूप बदला सा नजर आता है । वहां वो याचक की भूमिका में होते हैं । उनकी पहली इच्छा यह होती है कि प्रकाशक उनकी किताब छाप दे । हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने तो प्रकाशकों से उपन्यास और किताबें लिखने के लिए अग्रिम पैसे लिए लेकिन आजतक ना तो किताब लिखी गई और ना ही प्रकाशकों को उनका चेक वापस मिला । कई लेखकों ने तो एक प्रकाशक से पैसे लिए और दूसरे से अपनी किताब छपवा ली । यहां सवाल यह उठता है कि लेखकों के इस गोरखधंधे पर कभी बात क्यों नहीं होती है । क्या हिंदी के लेखकों, साहित्यकारों में इस बात का साहस नहीं है कि वो अपने बीच के लोगों की गड़बड़ियों का पर्दाफाश कर सकें । विचारधारा और सिद्धांत की बड़ी बड़ी बातें करने और उसकी दिन रात दुहाई देने से कुछ नहीं होनेवाला है । वो सारी बातें खोखली लगती हैं जब सिद्धांत और विचारधारा को अपने स्वार्थ के लिए ताक पर रख दिया जाता है । इन हालात में लेखकों की साख खराब होती है । पाठकों का उनपर से भरोसा टूटता है । आज जरूरत इस बात की है कि लेखकों को एक ऐसी कमेटी को बनाने पर विचार करना चाहिए जिसमें लेखकों के साथ-साथ प्रकाशकों की भी भागीदारी हो । इस कमेटी का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसकी साख निर्दोष हो, जो विचारधारा की बेड़ियों में ना जकड़ा हो और जिसकी सोच वस्तुनिष्ठ हो । इस कमेटी को साहित्य अकादमी के अंदर स्वायत्ता दी जा सकती है । जिस तरह से न्यूज चैनलों ने स्वनियमन के लिए जस्टिस जे एस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया है जो चैनलों में हो रही गड़बड़ियों पर नजर रखता है और उसका दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्रवाई भी करता है । इस तरह की कमेटी का फायदा यह होगा कि ये लेखकों प्रकाशकों के बीच की शिकायतों का निबटारा करेगा । जो लेखक बेवजह प्रकाशकों को निशाने पर लेते हैं उनकी पहचान कर उनको दंडित करने का मैकेनिज्म बनाएगा । इसी तरह जो प्रकाशक लेखकों को ठगते हैं उनकी भी पहचान की जाएगी और उनपर भी जुर्माना लगाया जा सकेगा ।

Wednesday, January 16, 2013

अमिताभ से कसाब की तुलना नाजायज

हिंदी की साहित्यिक पत्रिका पाखी पिछले करीब दो महीनों से हिंदी जगत में विवादों के केंद्र में है । पहले तो उसने रांची में रह रहे हिंदी के बुजुर्ग प्रोफेसर और लेखक श्रवण कुमार गोस्वामी का हिंदी की चर्चित लेखिका महुआ माजी के उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला के बारे में एक विवादास्पद लेख छाप कर हिंदी जगत में हडकंप मचा दिया । लेखकों के बीच महुआ के पक्ष और विपक्ष की रेखा साफ तौर पर दिखाई दी । कई लोगों को महुआ में कृतघ्नता का बोध दिखा तो कई लेखकों को इसमें महिलाओं को लेकर पुरुषों की मानसिकता का प्रतिबिंब दिखा । बहरहाल उस विवाद से एक बार फिर से अच्छी रचना की कमी झेल रहे हिंदी साहित्य को विवाद के रूप में विमर्श की गरमाहट मिली । लेखकों ने कम से कम इस मसले पर स्टैंड तो लिया । क्योंकि हाल के दिनों में लेखकों ने सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करनी बंद कर दी है ।
अब ताजा विवाद पाखी के जनवरी अंक में मशहूर शायर निदा फाजली के पत्र से उठा है । अपने पत्र में निदा फाजली ने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की तुलना मुंबई हमले के गुनहगार और पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब से कर दी है। संपादक के नाम लिखे पत्र में निदा फाजली ने लिखा कि दूसरी बात जो आपकी संपादकीय में खटकी वह ज्ञानरंजन जैसे साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है । एंग्री यंग मैन को सत्तर के दशक तक कैसे सीमित किया जा सकता है । क्या 74 वर्षीय अन्ना हजारे को भुलाया जा सकता है । मुझे तो लगता है कि सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत है, और फिर अमिताभ को एंग्री यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया ? वे तो केवल अजमल आमिर कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना हैं । एक को हाफिज मुहम्मद सईद ने बनाया था, दूसरे को सलीम जावेद की कलम ने गढ़ा था, खिलौने को फांसी दे दी गई, लेकिन उस खिलौने को बनाने वाले को पाकिस्तान खुलेआम उसकी मौत का नमाज पढ़ने के लिए आजाद छोड़े हुए है । आपने भी खिलौने की प्रशंसा की, लेकिन खिलौना बनाने वाले को सिरे से भुला दिया । किसी का नाम, किसी का कामकी कहावत शायद इसी लिए गढ़ी गई है ।  निदा साहब के इस पत्र के बाद साहित्यिक जगत में हलचल मच गई । उनके पक्ष और विपक्ष में लेखकों के बयान आने लगे । बयानों की पड़ताल के पहले हमें निदा फाजली के पत्र का विश्लेषण करना चाहिए । निदा फाजली को इस बात पर आपत्ति है कि कथाकार ज्ञानरंजन को पाखी में एंग्री यंग मैन क्यों बताया गया । दरअसल पिछले साल सितंबर में पाखी ने ज्ञानरंजन पर भारी भरकम विशेषांक निकाला था जिसके संपादकीय में प्रेम भारद्वाज ने लिखा था ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है । यह आक्रोश उनकी कहानियों के पात्रों में भी दिखाई देता है । इन पंक्तियों के लिखते लिखते सहसा सत्तर दशक के एंग्रीयंगमैन अमिताभ याद आ जाते हैं । कुछ समानताएं और बहुत असमानताएं हैं दोनों दिग्गजों में । फिल्म को हेय मानने वाले कुछ शुद्धतावादियों के लिए यह तुलना असहज लग सकती है । लेकिन किसी चीज को अलग बड़े कैनवास में देखने में बुराई क्या है । मुझे इस तुलना के लिए माफ किया जाए, अगर किया जा सकता है तो । अपने उसी संपादकीय में प्रेम भारद्वाज लिखते हैं कि सुधीश पचौरी ने तो केवल स्टारडम के चलते नामवर सिंह को हिंदी साहित्य का अमिताभ बच्चन तक कह डाला । प्रेम भारद्वाज के इस बात का अंदेशा था कि साहित्य से जुड़े लोग उनकी इस तुलना पर सवाल खड़े कर सकते हैं लिहाजा उन्होंने पहले ही माफी मांग ली थी । लेकिन पाखी संपादक को शायद ही इस बात का इल्म रहा होगा कि साहित्य के अलावा फिल्मों से जुड़ा एक शायर उनकी तुलना पर उंगली उठाते हुए एक भयंकर भूल कर देगा ।
पाखी के इसी संपादकीय पर निदा फाजली को आपत्ति थी और उन्होंने पत्र लिखकर उसे जाहिर किया । लेकिन निदा इतने नाराज हो गए कि उन्हें यह तक याद नहीं रहा कि आमिर अजमल कसाब को भारत पर हमला करने और एक राष्ट्र के खिलाफ युद्ध झेड़ने का दोषी करार देकर उसे फांसी पर लटकाया गया है । एक ऐसे आतंकवादी से अमिताभ बच्चन की तुलना को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है । क्या अमिताभ बच्चन के देशप्रेम और उनकी कला पर कोई शक है । लेकिन जिस तरह से बुजुर्ग शायर निदा ने उनकी तुलना की है उससे ये लगता है कि निदा अमिताभ को अपमानित करना चाहते हैं । निदा ने जो लिखा उससे एक और बात ध्वनित होती है कि अमिताभ कुछ नहीं होते अगर सलीम जावेद नहीं होते तो । निदा के इन तर्कों पर बहस हो सकती है कि अमिताभ की सफलता में सलीम जावेद की कहानियों का कितना योगदान है । लेकिन अगर निदा ये मानते हैं कि सिर्फ कहानियों की वजह से ही अमिताभ बच्चन सदी के महानायक बने तो ये उनकी भूल ही नहीं है बल्कि ऐसा कहकर वो फिल्मों से जुड़े निर्देशकों, अन्य साथी कलाकारों, संगीतकारों के योगदान को भुला रहे हैं । किसी भी फिल्म की सफलता में कई सारे लोगों का सामूहिक योगदान होता है । निदा साहब फिल्मों को बहुत करीब से जानते हैं । बावजूद इसके इस तरह की तुलना करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है । अमिताभ बच्चन ने सलीम जावेद की कहानियों के अलावा भी कई ऐसी फिल्में की जो ना केवल यादगार हैं बल्कि क्लासिक्स की श्रेणी में आती हैं । अपनी सफलता की दूसरी पारी में अमिताभ बच्चन ने ब्लैक और पॉ जैसी सार्वकालिक फिल्में की जो ना केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रही बल्कि उसे सराहना भी मिली । लेकिन इन फिल्मों में रानी मुखर्जी और विद्या बालन के किरदार के बगैर सफलता का आकलन नहीं किया जा सकता है । इसके अलावा पॉ फिल्म में अमिताभ बच्चन के बोलने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया उसके बिना क्या उस किरदार को निभा पाना संभव होता । हां इतना अवश्य है कि फिल्म और अभिनेता दोनों की सफलता में कहानियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।
कहानीकार ज्ञानरंजन की तुलना अमिताभ बच्चन से करने से निदा फाजली इतने खफा हो गए कि गुस्से में अमिताभ की तुलना कसाब से तो की ही लेकिन इसके अलावा सलीम जावेद की तुलना भी पाकिस्तान में बैठे खूंखार आतंकवादी हाफिज सईद से कर डाली । किसी भी व्यक्तित्व की तुलना का एक अलिखित नियम होता है, एक मर्यादा होती है जिसका पालन करने की अपेक्षा सबों से की जाती है । तुलना करने में परंपराओं लोक मान्यताओं का भी ध्यान रखना आवश्यक माना गया है । हमारे आजादी के आंदोलन के दौरान कई आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बेहद उग्र रुख अपनाया हुआ था लेकिन क्या हम उनको आतंकवादी कह सकते हैं ।क्या भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों की तुलना दो हजार एक में भारतीय संसद पर हमला करनेवाले आतंकवादियों से की जा सकती है । कतई नहीं । उसी तरह अमिताभ बच्चन को चाहे निदा फाजली खिलौना माने लेकिन उन्हें उनकी तुलना कसाब से नहीं करनी चाहिए थी । अगर हम देखें तो पहले भी इस तरह की तुलनाएं हुई हैं जिसे साहित्य जगत ने नकार दिया था । इस लेख का अंत मैं मशहूर कथाकार और नाटककार असगर वजाहत के शब्दों में करना चाहूंगा- इस तरह की अभिव्यक्ति हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण है ।

Monday, January 14, 2013

आत्मकथा से दरकती छवि

अभिज्ञानशाकुन्तल का एक श्लोक है यद्यत्साधु न चित्रे स्यात् क्रियते तत्तदन्यथा । तथापि तस्या लावण्यं रेखया किंचिदन्वितम् ।।  यह बात उस प्रसंग में कही गई है जब राजा दुश्यंत ने शकुन्तला की एक पेंटिंग बनाई थी । उस पेंटिंग को देखने के बाद दुश्यंत ने कहा था कि अगर चित्र में जो जैसा है वैसा नहीं बन पाता है तो उसे अलग तरीके का बना दिया जाता है । भारत के प्रख्यात पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कुलदीप नैयर की आत्मकथा बियांड द लाइंस पढते हुए मुझे अभिज्ञानशाकुन्तल का ये श्लोक याद आ रहा था । अपनी इस पूरी आत्मकथा में कुलदीप नैयर ने तत्तदन्यथाका भरपूर इस्तेमाल किया है । यानि अगर किताब के हिसाब से तथ्य अगर ना बन पाएं तो उसे अन्यथा कर दो, अपने हिसाब से उसकी व्याख्या कर दो । कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा बियांड द लाइंस में इस तरकीब का जमकर इस्तेमाल किया है । कहीं वो तथ्यों को बेहतर तरीके से पेश कर बेहतरीन तस्वीर बना देते हैं तो कहीं जो तस्वीर बनती है उससे कुछ और ही निकल कर सामने आ जाता है । जैसे अपनी आत्मकथा में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने के दौरान और बाद की परिस्थितियों की जो वो तस्वीर पेश करते हैं वो इसी तत्तदन्यथा का नमूना है जिसपर आगे विस्तार से चर्चा है ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारों में से एक हैं । इसके पहले भी उनकी कई किताबें प्रकाशित होकर खासी चर्चित हो चुकी हैं । दो हजार छह में जब उनकी किताब स्कूप छपकर आई थी तो उससे  यह अंदाजा हो गया था कि कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं और वो जल्द ही प्रकाशित होनेवाली है । कुलदीप नैयर की आत्मकथा के छपकर आने के बाद से उनकी सरकारी पत्रकार की छवि और मजबूत हो गई है । नैयर ने अपने करियर की शुरुआत एक उर्दू दैनिक से की लेकिन उनका करियर सरकार की पब्लिसिटी के लिए बनाए गए प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो की नौकरी करने के बाद से ही परवान चढ़ा । पहले वो  उस वक्त के गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के सूचना अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए फिर उनको लाल बहादुर शास्त्री के साथ काम करने का मौका मिला । इस दौरान कुलदीप नैयर ने अखबारों के लिए लिखना जारी रखा था । उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि स्वतंत्र न्यूज एजेंसी यूएनआई ज्वाइन करने के बाद भी वो अनौपचारिक रूप से लाल बहादुर शास्त्री को उनकी छवि मजबूत करने के बारे में सलाह देते रहते थे । अपनी आत्मकथा के अध्याय- लाल बहादुर शास्त्री एज अ प्राइम मिनिस्टर में पृष्ठ 141 पर उन्होंने स्वंय माना है कि उनकी स्टोरी से मोरार जी देसाई को काफी नुकसान हुआ । जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद जब पूरा देश शोक में डूबा था उसी वक्त कुलदीप नैयर ने यूएनआई की टिकर में एक खबर लगाई पूर्व वित्त मंत्री मिस्टर मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उतरनेवाले पहले शख्स हैं । ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अपने करीबियों को इस बारे में बता दिया है । ये भी माना जा रहा है कि देसाई चुनाव के पक्ष में अड़े हुए हैं और वो किसी भी कीमत में रेस से बाहर नहीं होंगे । इसी खबर में दूसरी लाइन लिखते हैं- बगैर पोर्टफोलियो के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार माने जा रहे हैं, हलांकि वो अनिच्छुक बताए जा रहे हैं । शास्त्री के करीबियों के मुताबिक वो चुनाव टाल कर आमसहमति के पक्ष में हैं ।  कुलदीप नैयर ने खुद माना है कि उनकी इस खबर से मोरारजी देसाई को काफी नुकसान हुआ और वो उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं बन पाए । बाद में लाल बहादुर शास्त्री और कामराज ने उन्हें इलके लिए धन्यवाद भी दिया । हलांकि वो यह सफाई देते हैं कि उनकी मंशा मोरारजी को नुकसान पहुंचाने की नहीं थी लेकिन अगर हम समग्रता में पढ़े और शास्त्री की छवि मजबूत करने में सहायता वाली बात को जोड़कर देखें तो यह साफ तौर पर उभरता है कि एक पत्रकार के तौर पर नैयर ने वही किया जिसके वो इन दिनों खिलाफ हैं । इस वजह से वरिष्ठ पत्रकार और प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार रह चुके हरीश खरे ने भी लिखा है कि कुलदीम नैयर भारत में एंबेडेड जर्निज्म करनेवाले पहले पत्रकार हैं। हरीश की इन बातों को कुलदीप की किताब में लिखे गए तथ्यों से काफी बल मिलता है । कुलदीप नैयर लंबे समय तक सत्ता के साथ रहे और अपनी लेखनी से उनको लाभान्वित भी करते रहे ।
इमरजेंसी के बाद के दौर में तो कुलदीप नैयर ने पत्रकारिता करते हुए पूरी तरह से राजनीति शुरू कर दी थी और विपक्ष के साथ हो लिए थे । नैयर ना केवल अपनी लेखनी से बल्कि विपक्षी दलों के नेताओं के साथ घुलमिलकर इंदिरा को पद से हटाने का उपक्रम कर रहे थे । क्या ये पत्रकारिता के उन सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है जो पत्रकारों से तटस्थ रहने की अपेक्षा करता है । यह भी सही है कि अगर लोकतंत्र की हत्या का खेल खेला जा रहा हो तो पत्रकारों को उसके खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए, यह उनका दायित्व भी है, लेकिन किसको क्या पद मिले इससे पत्रकारों को क्या लेना देना है, वो इन पचड़ों में क्यों पड़े । वीपी सिंह के प्रधानमंत्री पद के चुनाव के वक्त भी कुलदीप नैयर ने बेहद सक्रिय भूमिका निभाई । उनका दावा है कि चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जो फॉर्मूला बना था वो उनका ही तैयार किया हुआ था (पृ 315) । उनके फॉर्मूले पर चलकर ही पहले देवीलाल को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया और बाद में देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया । कुलदीप नैयर का दावा है कि उनके इस फॉर्मूले की जानकारी पंजाब केसरी के संपादक अश्विनी कुमार को भी थी । सवाल यही उठता है कि एक पत्रकार के तौर पर कुलदीप नैयर क्या लॉबिंग नहीं कर रहे थे । बाद में वी पी सिंह ने उन्हें ब्रिटेन का उच्चायुक्त नियुक्त किया था । हलांकि उस वक्त नैयर के मन में यह सवाल उठा था कि एक पत्रकार के तौर पर सरकार का हिस्सा बनना कितना उचित है लेकिन वो सवाल कहीं बिला गया और कुलदीप नैयर ने विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के तमाम असहयोग के बावजूद उच्चायुक्त का पद संभाल लिया था।     
इमरजेंसी के पहले के दौर में उनका इंदिरा गांधी से मोहभंग अवश्य हो गया था । इमरजेंसी के दौर में वो जेल भी गए । लेकिन इमरजेंसी में जेल जाने की घटना का जिस उल्लास और उत्साह से उन्होंने वर्णन किया है वो भी हैरान करनेवाला है । नैयर लिखते हैं कि जब पुलिसवाले उनको गिरफ्तार करके निकल रहे होते हैं तो वायरलेस पर मैसेज देते हैं- शेर पिंजरे में आ गया है । उसके बाद जिस तरह से पुलिस का आला अधिकारी उनके पास आता है और उनके लेखन की तारीफों के पुल बांध देता है ।  कुलदीप नैयर की आत्मकथा को पढ़ते हुए जब वो अपनी तारीफों के पुल बांध रहे होते हैं तो उन प्रसंगों को पढ़ते हुए में हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता की कुछ पंक्तियां जो कुछ इस तरह से हैं जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब/तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा/और कुछ भी नहीं में /सबकुछ होना बचा रहेगा / - बरबस याद आने लगती है । नैयर ने अपनी आत्मकथा में अपनी प्रशंसा के अलावा आजाद भारत के कई दिलचस्प प्रसंगों को भी कलमबद्ध किया है । जैसे जब नोबोकोब का मशहूर उपन्यास लोलिता का प्रकाशन हुआ तो लाल बहादुर शास्त्री ने फौरन उसको भारत में प्रतिबंधित करने की वकालत करते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा । अपनी आदत के मुताबिक नेहरू ने अगले ही दिन लाल बहादुर शास्त्री को विस्तार से पत्र लिखकर लोलिता को प्रतिबंधित करने से मना कर दिया । नेहरू ने साथ ही ये दलील भी दी कि डी एच लारेंस का लेडी चैटर्लीज लवर भी बाजार में मौजूद होना चाहिए । नैयर लिखते हैं कि शास्त्री नैतिकतावादी तो नहीं थे लेकिन रूढ़िवादी थे । इस प्रसंग में उन्होंने लेनिनग्राद में बैले नृत्य के प्रसंग का उदाहरण देते हुए बताया कि लाल बहादुर शास्त्री कैसे असहज हो गए थे । उन्होंने नृत्य के बीच में जब शास्त्री से पूछा कि कैसा लग रहा है तो शास्त्री ने जवाब दिया कि पूरे नृत्य के दौरान वो इस वजह से असहज रहे कि नर्तकियों के पांव उपर तक खुले थे और वो अपनी पत्नी के साथ बैठे थे ।
कुलदीप नैयर की आत्मकथा इस मायने में भी थोड़ी अहम है कि उसमें आजाद भारत की राजनीति का इतिहास है थोड़ा प्रामाणिक लेकिन बहुधा सुनी सुनाई बातों पर आधारित । कुलदीप नैयर स्कूप के लिए जाने जाते रहे हैं लेकिन उनके स्कूप कई बार सुनी सुनाई बातों या राजनीतिक गॉसिप का अंग रहे हैं । जैसे संजय गांधी की मौत के बाद एक जगह नैयर लिखते हैं इंदिरा गांधी ने दुर्घटनास्थल का एक बार फिर से दौरा किया और कोई चीज ढूंढकर अपने पास रख ली । वह क्या चीज थी, यह आजतक रहस्य बना हुआ है । क्या वह संजय के स्विस खाते का नंबर था ?  संजय गांधी की मौत के बाद इस तरह की अफवाहें काफी फैली थी । तो गॉसिप को स्कूप की चासनी में पेश करने का काम भी नैयर ने अपनी पत्रकारिता में किया और उसको अपनी आत्मकथा में भी तमगे की तरह से प्रस्तुत किया । जैसे एक जगह वो लिखते हैं कि जब जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया था तो उनके फैसले के बारे में जानने के लिए उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों को देखते हुए साधु संन्यासियों का इस्तेमाल किया गया । कोई प्रमाण नहीं, लेकिन कोई कंडन करनेवाला भी नहीं ।  उसी तरह से जब जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए इंदिरा गांधी को पंद्रह दिनों का समय दिया था । नैयर ने लिखा- एक स्थानीय वफादार वकील वी एन खरे ने खुद ही अपनी तरफ से अपील दाखिल की (पृ 224) । यहां तो ठीक था लेकिन उसके बाद उन्होंने एक लाइन लिख दी कि खरे बाद में भारत के मुख्य न्यायधीश बने । इस तरह से उन्होंने वी एन खरे की वफादारी को उनकी योग्यता बता दिया । संदेह पैदा कर गए ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पत्रकारों में से एक हैं । उनकी योग्यता और उनकी साख पर कोई सवाल भी नहीं है । उनकी लगभग चार सौ पन्नों की यह किताब आजाद भारत का राजनीतिक इतिहास हो सकता था लेकिन नैयर साहब ने कई जगह पर सुनी सुनाई बातों और घटनाओं का वर्णन किया है जिसको भविष्य के इतिहासकार मानेंगे या नहीं इसमें संदेह है । जैसे उन्होंने अपने स्टेटसमैन से हटाए जाने का जो प्रसंग लिखा है और उसी प्रसंग को लेकर जो अन्य संपादकों की किताबें हैं वो अलग अलग तथ्य बयान करती है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कुलदीप नैयर की इस किताब को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए । इसमें कई घटनाओं का प्रामाणिक और फर्स्ट हैंड चित्रण है । अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि बियांड द लाइंस उनकी आत्मकथा है लेकिन इसमें वो बियांड और बिटवीन द लाइंस के बीच उलझ कर रह गए हैं जिससे उनकी पत्रकार की छवि पुष्ट होने के बजाए दरकती है ।

 

Saturday, January 5, 2013

अकादमी के लिए मंथन का वक्त


अभी हाल में कोलकाता में आयोजित साइंस कांग्रेस के अधिवेशन में देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वो विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीतने के लिए काम करें । प्रधानमंत्री के उस बयान को देश के वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती और उत्साहवर्धन दोनों के तौर पर देखा जा रहा है । लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि सृजनात्मक लेखन के लिए भारत के लेखकों को नोबेल पुरस्कार के लिए ना तो कोई चुनौती देता है और ना ही उत्साहवर्धन करता है । गाहे बगाहे ये खबर छपती हैं कि साहित्य अकादमी ने अमुक साहित्यकार का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया है । साहित्य अकादमी से निकलनेवाली उस खबर को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि अमुक साहित्यकार नोबेल पुरस्कार की रेस में है । लेकिन वो प्रचार वास्तविकता से कोसों कूर होती है । दरअसल नोबेल पुरस्कार के लिए कोई भी संगठन किसी का भी नाम प्रस्तावित कर सकता है । ठीक उसी तरह से जैसे भारत में पद्म पुरस्कारों के लिए कोई भी किसी का नाम प्रस्तावित कर सकता है ।
सवाल नोबेल पुरस्कार का नहीं है । यहां सवाल यह है कि भारत के, खासकर हिंदी के, लेखकों को अंतराष्ट्रीय पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए हम कितना प्रयास कर रहे हैं । क्या हमारे लेखक, प्रकाशक, साहित्य अकादमी और राज्यों की अकादमियां इस दिशा में शिद्दत से प्रयास कर रही हैं । अगर हम इस सवाल का जवाब ढूंढने निकलते हैं तो हमें पूरे परिदृष्य में घुप्प अंधेरा नजर आता है । लेखक और प्रकाशक तो अपने तईं कोशिश करते हैं लेकिन जिस तरह से साहित्य अकादमी पर भारतीय भाषाओं के रचनात्मक लेखन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी थी उसमें अकादमी बुरी तरह से विफल रही है । 12 मार्च 1954 को जब संसद के सेंट्रल हॉल में साहित्य अकादमी का उद्धघाटन हुआ था तो उस वक्त के उपराष्ट्रपति और विद्वान चिंतक एस राधाकृष्णन ने कहा था कि -साहित्य अकादमी ऐसे लोगों का समूह है जो सृजनात्मक और आलोचनात्नक लेखन में रुचि रखते हैं । उन्होंने आगे कहा था कि साहित्य अकादमी का उद्देश्य है कि वो सृजनात्मक लेखकों की पहचान करें और उन्हें प्रोत्साहित करे । इसके अलावा साहित्य अकादमी के अन्य उद्देश्यों में उन्होंने सृजनात्मक लेखन को बढ़ावा देने के कामों पर भी जोर दिया था । लेकिन लगभग अट्ठावन साल बाद यह सवाल जोरदजार तरीके से उठाया जाना चाहिए कि साहित्य अकादमी ने सृजनात्मक लेखन की पहचान करने और उसे आग बढ़ाने के लिए क्या किया । दरअसल साहित्य अकादमी में नब्बे के दशक के आखिरी सालों में राजनीति बुरी तरह से हावी हो गई । लेखकों के बीच की राजनीति का असर यह हुआ कि धीरे धीरे   साहित्य अकादमी सृजनात्मक लेखकों से दूर होकर विश्वविद्लाय के शिक्षकों के शिकंजे में चली गई । भारत के उन विश्वविद्लायों के शिक्षकों के कब्जे में जिन्हें राजेन्द्र यादव सृजनात्मक लेखन की कब्रगाह कहते हैं । साहित्य अकादमी के अपने उद्देश्यों के भटक जाने से सृजनात्मक लेखन का बड़ा नुकसान हुआ । साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों पर नजर डालें तो पाते हैं कि लेखकों से मिलिए जैसे कार्यक्रमों के अलावा कोई खास कार्यक्रम नहीं होते । पर्दे के पीछे और कागजों पर अगर होते होंगे तो वो जनता को ज्ञात नहीं हैं ।
दरअसल अगर हम साहित्य अकादमी की सामान्य परिषद के सदस्यों पर नजर डालेंगे तो तस्वीर आईने की तरह से साफ हो जाएगी । साहित्य अकादमी का जब गठन हुआ था तो उसके सामान्य सभा के सदस्यों में एस राधाकृष्णन, अबुल कलाम अजाद, सी राजगोपालाचारी, के एम पाणिक्कर, ए एम मुंशी, वी एन मेनन, जाकिर हुसैन, हुमांयू कबीर, सुनीति कुमार चटर्जी, उमाशंकर जोशी, जैनेन्द्र कुमार, नीलमणि फूकन, हजारी प्रसाद द्विववेदी, एम वी आयंगर, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे उदभट विव्दान थे जो खुद भी बेहतरीन सृजनात्मक लेखन कर रहे थे । लेकिन कोई भी व्यक्ति साहित्य अकादमी की बेवसाइट पर जाकर वर्तमान सदस्यों की सूची देख सकता है । स्तरीयता और स्तरहीनता का पता खुद चल जाएगा । सृजनात्मक लेखन करनेवाले वहां बहुत कम हैं । साहित्य अकादमी की कार्यशैली एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी बाद में विस्तार से चर्चा होगी लेकिन सवाल यगह उठता है कि मीडियॉकर लोगों से क्या हम ये अपेक्षा कर सकते हैं कि वो देश की सृजनात्मक प्रतिभा को नोबेल पुरस्कार दिलवाने जैसी योजना पर काम कर पाएंगे, उसके लिए कोई रणनीति बना पाएंगे । जबाव ना में ही मिलेगा । राज्यों की अकादमियों का हाल तो और भी बुरा है । राज्यों की भाषा और साहित्य की अकादमियां वहां की सरकारों के लिए प्रचार प्रसार के काम में जुड़ी हैं ।
अब बचते हैं प्रकाशक जिनसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश में सृजनात्मक लेखकीय प्रतिभा को सामने लाने का काम करेंगे । हाल के दिनों में हिंदी के कम से कम तीन प्रकाशकों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया है जो संतोष देने के लिए तो काफी है । वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन और प्रभात प्रकाशन ने हिंदी के लेखकों की किताबों को अंग्रेजी में छापना शुरू कर दिया है । इससे एक फायदा तो यह होगा कि हिंदी के लेखकों की कृतियां उस भाषा में उपलब्ध होंगी जो पूरे विश्व में एक संपर्क भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है । अभी हाल में वाणी प्रकाशन से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कृति कुरुक्षेत्र का अंग्रेजी में अनुवाद छपा है द बैटल रॉयल इस काम को अंजाम दिया है डॉक्टर सचिकांत और डॉक्टर रमन पी सिंह ने । अब अगर हम देखें तो दिनकर का ये प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र आज से तकरीबन छियासठ साल पहले 1946 में प्रकाशित हुआ था लेकिन उसके अनुवाद का काम छह दशक बाद हुआ । जिस वक्त दिनकर जी इस काव्य की रचना कर रहे थे वह वक्त युद्ध और उसके बाद की शांति का था । उनके काव्य में युद्ध और शांति समान रूप से चलते जाते हैं । उसमें वो अपने समय से पहले की बात भी करते हैं और उसे सार्वजनिक भी करते चलते हैं । दिनकर या यह प्रबंध काव्य अगर उस वक्त या बाद के दस बीस वर्षों में भी अंग्रेजी में अनुदित होकर दुनिया के पाठकों के बीच जाता तो विश्व के उस वक्त के माहौल में उक्त कृति का मूल्यांकन होता लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका । ऐसा नहीं है कि सिर्फ रामधारी सिंह दिनकर ही बेहतरीन कवि हैं, हिंदी में कई ऐसे कवि हुए हैं जिनकी कृतियां नोबेल पुरस्कार के योग्य हैं । क्या अज्ञेय और निर्मल वर्मा की कृतियां ओरहन पामुक या फिर फ्रेडरिक येलेनिक से कमजोर हैं । कतई नहीं । यहां सवाल यह है कि जिस तरह से ओरहन पामुक की कृतियां अग्रेजी समेत विश्व की अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुई उससे उन कृतियों को एक विशाल पाठक वर्ग मिला और उसकी चर्चा कई देशों के अखबारों में हुई । नतीजा यह हुआ कि उनकी कृतियों के पक्ष में एक माहौल बना जो बाद में उनके नोबेल पुरस्कार का आधार बना । लेकिन हमारे यहां जिनके कंधों पर साहित्यक कृतियों के प्रचार प्रसार और पाठकों के बीच पहुंचाने की जिम्मेदारी है वो बेहद छोटे कामों में उलझे हैं । मैं कई ऐसे लेखकों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं जिन्होंने साहित्य अकादमी को अहम पुस्तकों का अनुवाद कर दे दिया लेकिन पांच छह वर्षों बाद भी वहां यह बतानेवाला कोई नहीं है कि उन पुस्तकों का प्रकाशन कब होगा । दरअसल यहां भी एक भयंकर भूल है कि साहित्य अकादमी खुद से किताबों का प्रकाशन करेगा । यह काम प्रकाशकों के जिम्मे छोड़ देना चाहिए । होना यह चाहिए कि अकादमी पुस्तकों का अनुवाद करवाए और प्रकाशकों पर उसे छापने की जिम्मेदारी दे । अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी अपने क्रियाकलापों को बदले और उसका जो मूल उद्देश्य था उसके लिए काम करे और छोटे छोटे कामों में ना उलझे ।
इसके अलावा हिंदी के प्रकाशकों को अपनी भाषा के क्लासिक्स को ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी में अनुवाद करवाना चाहिए और अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेलों में भागीदारी के दौरान उसको शोकेस करना चाहिए । इसमें लेखक की तो प्रतिष्ठा बढे़गी ही, नया पाछक वर्ग भी मिलेगा।  लेकिन अगर हमारे किसी लेखक को कोई अंतराष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया तो किताब की भी जबरदस्त बिक्री होगी और अंतत: उनका लाभ प्रकाशकों को ही होगा । पश्चिम में इस तरह की प्रवृत्ति है आम है कि वहां पुरस्कृत कृतियों को पाठक हाथों हाथ लेते हैं । और कारोबार के नजरिए से भी इस तरह के काम करना प्रकाशकों के लिए फायदे का सौदा रहेगा । भारतीय लेखकों को अंतराष्ट्रीय मंच पर पहुंचाने में जहां साहित्य अकादमी विफल रही है वहां से प्रकाशकों की जिम्मेदारी शुरू होती है ।

राजनीति का दिवालियापन

उन्नीस सौ पैंसठ की जनवरी की बात है तब यह तय किया गया था कि 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का ऐलान किया जाएगा । दक्षिणी राज्यों के हुक्मरान इस बात के लिए तैयार भी हो गए थे लेकिन जनता में इस बात को लेकर गहरा रोष था कि हिंदी उनपर थोपी जा रही है । लिहाजा तमिलनाडु में हिंसात्मक प्रदर्शन हो रहे थे । तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री इंतजार करो और देखो की रणनीति अपना कर चुप बैठे थे । लेकिन मद्रास में हालात बेकाबू हो रहे थे और प्रदर्शनकारी लगातार उग्र हो रहे थे और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे । उस वक्त तमिलनाडू कांग्रेस के दिग्गज के कामराज की भी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि वो तमिलनाडु के हिंसाग्रस्त इलाकों में जाएं और वो दिल्ली में ही रुके थे । ऐसे हालात में इंदिरा गांधी ने फैसला लिया कि वो तमिलनाडु जाएंगी । वो वहां पहुंच गई और मद्रास में प्रदर्शनकारियों के बीच जाकर उनसे बात की । उनकी मांगों को सुना और उन्हें जितना हो सकता है वो करने का आश्वासन दिया । इतिहास इस बात का गवाह है कि इंदिरा गांधी के मद्रास पहुंचने और आंदोलनकारियों से बात करने का जबरदस्त असर हुआ और हिंसा की आग में जल रहा मद्रास एकदम से शांत हो गया ।
पिछले दिनों दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ गैंग-रेप के दौरान इंडिया गेट और राजपथ पर लोगों के प्रदर्शन के दौरान इंदिरा गांधी और मद्रास आंदोलन का प्रसंग शिद्दत से याद आ रहा था । गैंगरेप के खिलाफ जब आंदोलन अपने चरम पर था तो सोनिया गांधी ने जरूर अपने घर के बाहर निकलकर गेट पर चंद मिनट आंदोलनकारियों से बात चीत की थी । उनसे बातचीत भी हुई थी लेकिन अगले दिन उनके कारकुनों ने जिन छात्रों को उनसे मिलवाया उनके परिदृश्य से गायब होने से सोनिया की पहल हवा हो गई । इसके अलावा आंदोलन के काफी दिनों बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जंतर मंतर पर पहुंची थी । यह अलग बात है कि तबतक काफी देर हो चुकी थी और आंदोलनकारियों ने उन्हें वहां रुकने की इजाजत नहीं दी । देर ही सही शीला दीक्षित ने यह साहस तो दिखाया कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाएं । गैंगरेप के खिलाफ लगभग हफते भर तक इंडिया गेट और विजय चौक पर जमा लोगों से मिलने के लिए किसी भी दल का राजनेता नहीं पहुंचा । उम्मीद तो सत्ता पक्ष के नेताओं से काफी थी कि कोई वहां पहुंचकर आक्रोशित आंदोलनकारियों से बात करेगा । लेकिन कांग्रेस का कोई नेता यह साहस नहीं दिखा पाया जबकि दिल्ली की सातों लोकसभा सीट से कांग्रेस के पार्टी के ही सांसद हैं । यहीं से एक सांसद महिला एवं बालविकास मंत्रालय की मंत्री हैं । आंदोलनकारियों से राजनीतिक तौर पर निबटने की बजाए उन्हें दिल्ली पुलिस के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया ।
सत्तपक्ष से तो अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में चूक हुई ही, विपक्षी दल भी अपनी भूमिका के निर्वहन में नाकाम रहे । देश की मुख्य विपक्षी पार्टी , भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने अपने घरों से चंद मीटर की दूरी पर हो रहे प्रदर्शन में शामिल होने की बात तो दूर आंदोलनकारियों से बात तक करने की जहमत नहीं उठाई । लोकसभा में विपक्ष की नेता और भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले सुषमा स्वराज सिर्फ ट्विटर पर बयानबाजी करती नजर आई । सुषमा जी ने अपनी पोजिशनिंग एक ऐसी भारतीय नारी की बनाई है जो तमाम भारतीय परंपराओं का पालन करती हुई भी राजनीति के शीर्ष पर ना केवल पहुंची है बल्कि वहां लंबे समय से जमी हुई हैं । जब भी जनता के बीच जाने की बात आती है तो सुषमा जी कहीं नजर नहीं आती है । गैंग रेप के मामले में लगातार ट्विटर पर अपनी बात कहने वाली सुषमा स्वराज का ज्यादा जोर संसद का विशेष सत्र बुलाने को लेकर था । क्या हमारे देश के आज के नेताओं को लगता है कि जनता के बीच जाने का सबसे बेहतरीन जरिया संसद है । संसद जनता की समस्याओं को उठाने का मंच हो सकता है लेकिन संसद जनता से संवाद कायम करने का माध्यम नहीं हो सकता है । आज बीजेपी के नेताओं को लगने लगा है कि संसद में साल में दो बार लच्छेदार भाषण देकर, जिसे देशभऱ के तमाम न्यूज चैनल एक साथ चलाते हैं, जनता पर चमत्कारिक प्रभाव पैदा किया जा सकता है । बीजेपी के दूसरे कद्दावर नेता और प्रधानमंत्री पद के एक और सुयोग्य उम्मीदवार अरुण जेटली भी इस पूरे आंदोलन के दौरान कहीं नजर नहीं आए । जेटली साहब भी शानदार वक्ता हैं लेकिन जनता से सीधे संवाद कायम करने में उनकी कोई रुचि दिखाई नहीं देती है । मुझे उस वक्त का एक वाकया याद आ रहा है जब भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने कोलकाता से जम्मू तक की भारत एकता यात्रा की थी तब जम्मू  में उसमें शरीक होने पर अरुण जेटली को हिरासत में लिया गया था । उस वक्त बीजेपी की तरफ से जो खबरें आ रही थी उसमें इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि जेटली साहब को हिरासत में लेकर जिस कार में बैठाया गया है उसमें एयरकंडीशनर नहीं लगा है । यह हमारे देश के विपक्ष के नेताओं की एयरकंडीशनर राजनीति की मानसिकता का उत्स था । भारतीय जनता महिला मोर्चा की अध्यक्षा स्मृति ईरानी न्यूज चैनलों पर संघर्ष करती नजर आई लेकिन लोगों के बीच जाने का साहस उनमें भी नहीं था ।
हमारे देश में आजादी के बाद से ही वामपंथी पार्टियों ने अपने आपको जन और वाद का रहनुमा बताया और कई मौकों पर वाम दलों ने आंदोलनों की रहनुमाई की लेकिन दिल्ली गैंगरेप के मुद्दे पर उनके नेता भी जनता के साथ खड़े नहीं दिखे । लोक और जन की भलाई और उनके बीच समानता के सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ी ये पार्टियां भी जन और लोक की भावनाओं को समझने में बुरी तरह से नाकाम रही । गैंगरेप के खिलाफ आक्रोशित जनता को नेतृत्व देनेवाला कोई सामने नहीं आ सका । बैगर नेतृत्व के किसी आंदोलन का जो हश्र हो सकता है वही इस आंदोलन का भी हुआ । आंदोलन के बीच कुछ गुंडे और मवाली किस्म के लोग घुस आए और उन्होंने कुछ ऐसी हरकतें की जिसकी वजह से पुलिस को कार्रवाई का मौका मिल गया । कई जानकारों का कहना है कि पुलिस ने ही इन लोगों को आंदोलनकारियों के बीच में घुसाया । यह जांच का विषय हो सकता है ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर जंग छेड़नेवाले अरविंद केजरीवाल पर राजनीति का रंग चढ़ गया है । गैंगरेप के खिलाफ आंदोलन जब अपने चरम पर पहुंचा तो उन्हें लगा कि मौका हाथ से निकल ना जाए लिहाजा तीन चार दिन बाद वो अपने सहयोगियों के साथ आंदोलनकारियों के बीच जाकर बैठ गए । टेलीविजन चैनलों के लिए बातें की, विजुअल बनवाए और फिर वहां से चलते बने । अरविंद केजरीवाल एंड आम आदमी कंपनी भी आंदोलन के दौरान चंद घंटों के लिए वहां नजर आई । अब उनके लोग तर्क दे रहे हैं कि रेप जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे का वो राजनीतिकरण नहीं करना चाहते थे लिहाजा केजरीवाल एंड कंपनी वहां से लौट आई । उनका यह तर्क बेहद ही हास्यास्पद है , अगर उनको इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर राजनीति नहीं करनी थी तो दो दिन भी वहां जाने का कोई औचित्य नहीं था । लेकिन केजरीवाल चर्चा में बने रहने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते हैं लिहाजा उन्होंने ये मौका भी नहीं छोड़ा ।
गैंगरेप के दौरान लोगों के गुस्से और दिल्ली के इंडिया गेट और विजय चौक पर लगातार हफ्ते भर चले आंदोलन ने भारत के राजनीतिक वर्ग के दिवालिएपन को उजागर कर रख दिया है । आज देश में राजनीतिक समस्याओं का प्रशासनिक हल निकालने की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति से लोकतंत्र की स्थापित मान्यताओं के बिखर जाने का खतरा भी पैदा हो गया है । आज देश को एक ऐसे नेता की जरूरत है जो जनता के बीच जा सके और उनकी समस्याओं को उनके बीच बैठकर बात करे । देश की जनता तैयार है वैसे नेताओं को अपने सर आंखों पर बैठाने के लिए जो जनता की भावनाओं को वाणी दे सके । विपक्ष में होने की वजह से भारतीय जनता पार्टी की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि उनके नेता वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर बयानबाजी करने के बजाए जनता के बीच जाएं और उनके दुख दर्द में भागीदार बने और उसको वाणी दें । कांग्रेस के लिए तो बस वही कहा जा सकता है जो इंदिरा गांधी ने पहली बार अध्यक्ष चुने के सालभर बाद पद छोड़ने पर कहा था- आजादी के आंदोलन के दौरान जो कांग्रेस एजेंट ऑफ चेंज थी वही कांग्रेस अब चुनावी मशीन बन कर रह गई है । वक्त बेवक्त राहुल गांधी चेंज की बात करते हैं लेकिन बातें हैं , बातों का क्या