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Monday, June 9, 2014

विधा के सन्नाटे को तोड़ती किताब

हिंदी में पाठकों की कमी का रोना दशकों से रोया जा रहा है । पाठकों की कमी पर छाती तो कूटी जा रही है लेकिन कभी इसकी वजह ढूंढने की कोशिश नहीं की गई । हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य रहा कि पिछले कई दशकों से रचनात्मकता पर आरोपित वैचारिक आग्रह हावी रहा । इन आग्रहों के पीछे एक खास राजनैतिक उद्देश्य होता था । उन राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, जीवन की सचाई के नाम पर लिखी गई रचनाओं को उसी वैचारिक आग्रह के आलोचकों ने आगे बढ़ाया और उससे इतर लेखन करनेवालों को कलावादी, जनविरोधी आदि आदि कह कर खारिज करते रहे । आलोचक के लिए सबसे जरूरी शर्त होती है कि वो किसी भी रचना का बारीकी से अध्ययन करे और फिर उनकी विशेषताओं को रेखांकित करे । लेकिन हिंदी साहित्य के एक लंबे कालखंड में ऐसा नहीं हुआ । वैचारिक आग्रह की वजह से लेखक के नाम और उसकी ज्ञात वैचारिक प्रतिबद्धता की कसौटी पर उनकी रचनाओं को कसा गया और सतही तौर पर ऐसी बातें कही गई जो लेखकों को अच्छी लगे चाहे उसका पाठकों के लिए कोई अर्थ निकले या ना निकले । रचनाश्रयी आलोचना की जगह विचारधारा की आलोचना ने ली । हर तरह की रचना की आलोचना के लिए एक ही तरह के औजार का इस्तेमाल किया गया । इससे आतंकित लेखकों ने स्वीकार्यता के लिए खास किस्म की रचना लिखनी शुरू कर दी जो एक खास विचार और धारा को बढ़ावा देने लगी । शिल्पगत नवीनता, वस्तु की नवीनता आदि के आधार पर यथार्थ की नई जमीन को तोड़ने की कोशिश की गई खास कर गद्य में, नतीजा यह हुआ कि हिंदी गद्य लेखन में एकरूपता और एकरसता आते चली गई । इस एकरसता और एकरूपता ने सृजनात्मक साहित्य का बड़ा नुकसान किया, पाठक तो विमुख हुए ही लेखकों की रचना शक्ति में कमी आते चली गई । लेखकों के लिए जरूरी होता है पाठकों का प्यार । इस प्यार में ऐसी ऊर्जा, ऐसी ताकत होती है जो किसी भी लेखक को महानता की ऊंचाई पर पहुंचा देती है । आलोचकों का प्यार हासिल करने के चक्कर में हिंदी के कथा लेखकों से पाठकों के प्यार का सिरा छूटता चला गया । दशकों बाद जब इस बात का एहसास हुआ तो सिवा छाती कूटने के और कुछ बचा ही नहीं । एक आलोचक ने लिखा भी है समय से घिसकर हर विचारधारा सृजनात्मकता में अपने खाने स्वयं बना लेता है और उसका जरूरत से ज्यादा कसाव-बढ़ाव रचनात्मकता की शक्ति वो वैसे ही नष्ट कर देता है जैसचे जरूरत से ज्यादा खाद पानी पौधे को जला-सड़ा देता है । हाल के दिनों में हलांकि कई युवा लेखकों ने अपनी रचनात्मकता को वैचारिक लेखन से मुक्त कर प्रतीकात्मकता, य़थार्थवादी कथात्मकता, अति यान्त्रिकता आदि से मुक्त किया है । लेकिन विचारधारा ने सृजनात्मक लेखन को जितना नुकसान पहुंचाया है उसकी भारपाई इतनी जल्दी संभव नहीं है । उसमें वक्त लगेगा । विचाराक्रांत लेखन का एक और दुश्परिणाम हुआ, वह यह कि इसने हिंदी साहित्य की कई विधाओं को नेपथ्य में धकेल दिया । जैसे हिंदी में पिछले कई वर्षों में अगर हम देखें तो संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी लेखन आदि बहुत ही कम लिखे गए । काशीनाथ सिंह और कांति कुमार जैन ने अपने लेखन से इस सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश की थी । इसके अलावा भी छिटपुट लेखन इस क्षेत्र में होता रहा । संस्मरण लेखन को लेकर तो यहां तक प्रचारित किया गया कि जो लेखक चुक जाते हैं वो संस्मरण लेखन की ओर प्रवृत्त होते हैं । इस तरह के दुश्प्रचार का भी दुश्परिणाम निकला कि संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज और यात्रा वृत्तांत जैसी विधा साहित्य के हाशिए पर चली गई । वर्ना कोई वजह नहीं थी हिंदी में संस्मऱण और रेखाचित्र लेखन की समृद्द परंपरा होने के बावजूद अब उसके वजूद पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं । महादेवी वर्मा ने अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी जैसे बेहतरूीन संस्मरणात्मक किताबें लिखी तो शिवपूजन सहाय की किताब वे दिन वे लोग अब भी अपने व्यंग्यात्मक और मुहावरेदार भाषा के लिए याद किया जाता है । इसके अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क और राहुल सांकृत्यायन ने भी इस विधा को अपनी लेखनी से समृद्ध किया । रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंश राय बच्चन ने भी उल्लेखनीय संस्मरणात्मक लेखन किया ।  एक जमाना था जब अन्य भाषाओं के लेखकों के संस्मरण हिंदी में अनूदित हुआ करते थे । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना मेरा बचपन का हिंदी में अनुवाद किया था । इसी तरह से रिपोर्ताज हिंदी की अपेक्षाकृत नई विधा थी । रूसी साहित्यकारों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास इस विधा का जमकर उपयोग किया था जिसे बाद में हिंदी के साहित्यकारों ने भी अपनाया । बंगाल के अकाल पर रांगेय राघव के लिखे रिपोर्ताज आज भी अपनी मार्मिकता के लिए हिंदी साहित्य में मील का पत्थर है । उनके ये रिपोर्ताज बाद में तूफानों के बीच नाम से पुस्तककार प्रकाशित हुआ था । बाद में फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर धर्मवीर भारती तक ने कई अच्छे रिपोर्ताज लिखे । इस विधा के साथ भी यही हुआ कि वो धीरे-धीरे नेपथ्य में चला गया । संचार क्रांति के दौर में पत्र-लेखन भी लगभग खत्म ही हो गया है ।
इस बीच सामयिक प्रकाशन ने दो ऐसी किताबें छापी हैं जिनसे कुछ उम्मीद जगती है । इसमें से एक है मशहूर कथाकार राजेन्द्र राव की उस रहगुजर की तलाश में और कांति कुमार जैन की महागुरू मुक्तिबोध । राजेन्द्र राव की किताब इस मायने में थोड़ी अलहदा है कि इसमें संस्मरण भी हैं और रिपोर्ताज भी और साक्षात्कार आदारित लेख भी , जबकि कांति कुमार जैन की किताब में मुक्तिबोध से जुड़े संस्मरण हैं । समीक्ष्य पुस्तक उस रहगुजर की तलाश में राजेन्द्र राव के रिपोर्ताज बेहद शानदार हैं । हाटे बाजार नाम के अपवने रिपोर्ताज में राजेन्द्र राव ने कोलकाता और उसके आसपास के वेश्या जीवन पर बहुत ही संवेदनशील और मर्यादित ढंग से लिखा है । हाटे बाजार की भाषा और उसमें प्रयोग किए गए जुमले इस लेख में बहुधा चमक उठते हैं । देह के बाजार में वेश्या और ग्राहकों के बीच की बातचीत की भाषा इतनी मर्यादित है कि वो अपनी बात भी कह जाते हैं लेकिन कहीं भी अश्लीलता नहीं आती है । इसके अलावा अपनी इस रिपोर्टातज में राजेन्द्र राव ने समाज में देहज की कुरीति पर भी चोट की है । एक जगह वह बताते हैं कि मनु देहबाजार में इस वजह से आई कि कुछ पैसे इकट्ठा हो जाएं तो उसी बड़ी बहन का ब्याह हो सके । मनु बेहद सहजता से कहती है कि जब उसका ब्याह होनेवाला होगा तो उसकी छोटी बहन यहां बैठेगी और उसी सहजता से कह देती है कि उसकी छोटी बहन का ब्याह नहीं होगा क्योंकि उसकी कोई छोटी बहन नहीं है जो देह के बाजार में बैठकर उसके लिए पैसा जमा कर सके । इसके अलावा किस तरह के बीचशहर के एक मैदान में महिलाएं और लड़कियां अपने देह का सौदा करने को मजबूर हैं । किस तरह से ग्यारह साल की लड़कियां अपनी मजबूरियों के चलते इसस बाजार में अपनी देह का सौदा कर रही हैं । पैसे के लिए मजबूरी में पुरषों का हवस मिटाने के लिए चंद पलों की नारकीय यातना सरेआम भुगतती हैं । अब एक जगह लेखक की भाषा देखिए- दो भयानक पंजे हमारे ओर बढ़ रहे थे । वे हाथों के नाग थे, जिनकी डसन का मार्फिया लेने लोग मैदान में सौदा करते हैं । इसके अलावा बांग्ला शब्दों का प्रयोग एक अलग तरह की प्रभावोत्पादकता उत्तपन करती है । इनके रिपोर्चाज के अलग अलग शेड्स इस किताब में संग्रहीत हैं । बांधो तो नाव इस ठांव बंधु में राजेन्द्र राव ने मशहूर कथाकार शिवमूर्ति के गांव की यात्रा और वहां के अपने प्रवास के बारे में विस्तार से लिखा है । इस पूरी रिपोर्ताज में राजेन्द्र राव, शिवमूर्ति के पारिवारिक जीवन से लेकर उनके लेखन तक पर टिप्पणी करते चलते हैं लेकिन इसमें आधुनिक ग्राम्य जीवन का एक खाका भी खींचते हैं किस तरह से कच्चे मकानों की जगह ईंट गारे ने ले ली है । किस तरह गांव में भी शादी ब्याह में डीजे की धुनें गूजने लगी हैं आदि आदि । इस रिपोर्ताज में भी इन सबके अलावा लेखन ने जिस प्रतीकात्मक भाषा में बातें कही हैं वो रेखांकित करने योग्य है । शिवमूर्ति के घर से जब वो रात में बाहर निकलते हैं तो खेतों में टहलने का वर्णन देखिए- पार निकलकर खेतों की मेड़ पर चलते हुए धनिए की फसल के बीच पहुंचकर मदमाती गंध का जादू देखा जो दिलो दिमाग पर हावी हो गया । निखालिस वासना की गन्ध की तरह ....अंधेरे में हीमसल कर देखा, बड़ी तीखी गन्ध उठी । वर्जित दिनों में उठने और छा जानेवाली । इन पंक्तियों के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है । कल्पनाशीलता के छोरों को सिर्फ पढ़कर महसूस किया जा सकता है । उस रहगुजर की तलाश भी इंदौर की यात्रा का वर्णन है जिस यात्रा में पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज और अपूर्व जोशी भी उनके साथ थे । एक शहर और उसके मिजाज का बेहतरीन वर्णन लेकिन यहां भी आधुनिकता के बोझ तले परंपरा के दबते चले जाने की कहानी भी ।

पंडित सोहनलाल द्विवेदी से मार्मिक साक्षात्कार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव से बिंदास अंदाज में बातचीत इस किताब की पठनीयता को बढ़ा देती है । कामता नाथ और कृष्ण बिहारी पर लिखे संस्मरणों में लेखक का शहर कानपुर बार बार आता है । एक ओर जहां कामता नाथ पर लिखे संस्मरणों में छोटे शहर के लेखकों के बीच चलनेवाली राजनीति के संकेत हैं तो कृष्ण बिहारी के बहाने वो एक बेहद प्रतिभाशाली लेखक से पाठकों को रूबरू करवाते हैं । कृष्ण बिहारी को मैं उनकी रचनाओं से जानता था लेकिन राजेन्द्र राव के संस्मरण पढ़ने के बाद अब उनकी रचनाओं को पढ़ने समझवने की एक अलग दृष्टि और पृष्ठभूमि मिल गई है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि राजेन्द्र राव की यह किताब लंबे समय बाद हिंदी साहित्य में इस विधा में मौजूद सन्नाटे को तोड़ती है । इस किताब का एक और लाभ जो मुझे दिखाई देता है वो यह कि यह पाठकों में कथेतर साहित्य को लेकर एक उत्सुकता भी जगाएगी । बस अंत में एक बात कहना चाहता हूं कि रिपोर्ताज और संस्मरणों के अंत में उसके लिखे जाने का वर्ष होता तो बेहतर होता । वर्षोल्लेख नहीं होना कोई दोष नहीं है बल्कि होना पाठकों की सहूलियत को बढ़ाता । तकरीबन डेढ सौ पन्नों की किताब का मूल्य तीन सौ होना भी अखरता है ।  

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