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Friday, July 4, 2014

भरोसे का छलात्कार

एक पार्टी है जिसका नाम है आम आदमी पार्टी । उसके नेता हैं अरविंद केजरीवाल । दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त देश के राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु की तरह चमके थे । उसी चमक के आलोक में देश पर शासन का सपना देखने लगे थे । लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस से ज्यादा लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए । जब चुनाव के नतीजे आए तो सबसे ज्यादा उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने का रिकॉर्ड बना । पार्टी के बनने के दो साल के पहले ही राजनीति का ये सितारा अस्ताचल की ओर क्यों चल पड़ा है । यह गंभीर मंथन और चिंतन की मांग करता है । राजनीतिशास्त्र के छात्रों के लिए केस स्टडी भी है । आम  आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द बनी यह पार्टी उनकी ही महात्वाकांक्षा, जिद और दूसरे की नहीं सुनने की आदत का शिकार हो गई । मैंने पहले भी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की सियासी चालों को परखते हुए कई लेख लिखे हैं । उन लेखों में इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि केजरीवाल की महात्वाकांक्षा और मैं सही बाकी सब गलत का एटीट्यूड पार्टी को ले डूबेगी । वही होता नजर आ रहा है । अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज हैं । कई लोग उनको अन्ना हजारे के आंदोलन का रणनीतिकार भी मानते हैं । होंगे भी । अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में हुए आंदोलन के दौरान से लेकर अगर अब तक अगर केजरीवाल के कदमों का विश्लेषण किया जाए तो साफ है कि पारदर्शिता की बात करनेवाले केजरीवाल सियासत के माहिर और शातिर खिलाड़ी हैं और उतनी ही बातें सामने लाते हैं जितनी बातों से उनको लाभ होता है । जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था तब भी केजरीवाल मंच से लगातार पारदर्शिता का दावा करते थे । अनशन के वक्त रामलीला मैदान के अनशन मंच से बार बार ये एलान किया जाता था कि सरकार से पर्दे के पीछे कोई बात नहीं चल रही है । बाद में माना कि सरकार से बैक चैनल से बात हो रही थी । जनता को सरकार से अपनी बातचीत के हर कदम की चीख चीख जानकारी देनेवाले अरविंद जनता से बिना बताए सरकार से बात कर रहे थे, यह उनका खुद का खुलासा है जो हैरान करनेवाला है बाद में केजरीवाल ने अपनी इस सिसासी बिसात को और आगे बढ़ाया और कहा कि वो अहम फैसले जनता की राय से करेंगे । उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के पहले रायशुमारी का दांव चला था । जोर शोर से प्रचारित किया गया था कि भारत में ये अपनी तरह का अनूठा प्रयोग है । लेकिन उसके पहले भी वो एक बार जनता से इस बाबत पूछ चुके थे कि क्या उन्हें कांग्रेस या यूपीए के खिलाफ प्रचार करना चाहिए या नहीं । उस वक्त भी हरियाणा के हिसार में हुए उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से नहीं पूछा था उस वक्त भी केजरीवाल कंपनी ने बगैर जनता से पूछे हिसार के उपचुनाव को लोकतंत्र का लिटमस टेस्ट घोषित कर दिया था वहां कांग्रेस की हार को लोकतंत्र की जीत और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के खिलाफ जनता के गुस्से की परिणति के तौर पर पेशकिया था । दरअसल केजरीवाल या ये दोहरा रवैया बार बार दोहराया जाता रहा और बार बार जनता छली जाती रही । दिल्ली में सरकार बनाने से पहले रायशुमारी और छोड़ने का फैसला अकेले का । साथियों तक से न पूछा और ना उनकी राय मानी ।  
दरअसल अगर हम इस पूरे उठान और पतन का विश्लेषण करें तो देखते हैं कि अन्ना के दो अनशन की सफलता से उत्साहित टीम अन्ना को यह लगने लगा था कि पूरे देश की जनता उनके साथ है भ्रष्टाचार से तंग चुकी जनता को अन्ना में एक उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी थी नतीजे में लोग घरों से बाहर सड़कों पर निकले वह मध्यवर्ग घरों से निकला जिनके बारे में यह माना जाता था कि आमतौर पर वह ड्राइंगरूम में बहस कर संतोष कर लेता है । लोगों ने बदलाव का एक सपना देखा था । अन्ना में उन्हें एक ऐसा भारतीय नजर आया था जो मंदिर में रहता है, जिसका कोई परिवार नहीं है । गांधी टोपी पहनता है । बदलाव की अकुलाहट में जनता ने उनको समर्थन दिया । बाद में टीम अन्ना खंड खंड होकर बिखर गई । अलग होनेवाले सभी साथियों ने केजरीवाल पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाया था । जब केजरीवाल ने अन्ना से अलग होने का फैसला किया तो मीडिया का चतुराई से इस्तेमाल करते हुए टीम केजरीवाल नाम चलवा दिया । टूटी और बिखरी हुई टीम अन्ना के बरक्श टीम केजरीवाल खड़ी होने लगी । मीडिया के कैमरों और टेलीविजन के तरंगों पर सवार होकर टीम केजरीवाल और उनका संदेश घर घर तक पहुंचने लगा । कंसेंट मैन्युफैक्टर होने लगे । दिल्ली में बिजली पानी की बढ़ती कीमतों के खिलाफ केजरीवाल की मुहिम को समर्थन मिलने लगा । नेताओं को चोर लुटेरा कहने से बॉलीवुड फिल्मों की तरह उनकी सभाओं में तालियां बजने लगी थी । तालियों की गड़गड़ाहट ने केजरीवाल की महात्वाकांक्षाओं को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया । उन्हें लगने लगा कि ताकतवर लोगों को गाली देने से जनता उनपर खुश हो जाएगी । जनता की इसी खुशी को भुनाने के लिए केजरीवाल ने राजनीति के अलावा उद्योग जगत के लोगों को भी भ्रष्ट कहना शुरू कर दिया । पुराने उपलब्ध कागजातों के आधार पर सनसनीखेज खुलासों का दावा किया जाने लगा । अबतक मीडिया उनपर मेहरबान थी । बीजेपी नेता गडकरी अपने उपर लगे आरोपों के खिलाफ कोर्ट गए तो अपनी जिद में केजरीवाल को जेल जाना पड़ा । न्यायपालिका के आगे ना तो जिद चली और ना ही जेल जाने का सियासी ड्रामा हिट हो सका ।
दिल्ली का मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद केजरीवाल की आक्रामकता बढ़ने लगी थी । फिल्म नायक का किरदार हकीकत में दिखाई देने लगा था । सियासत इतना क्रूर होता है कि वहां फिल्मी किरदार और लटके झटके चलते नहीं हैं । उसपर से उस वक्त केजरीवाल से एक रणनीतिक चूक हो गई । दिल्ली में लोकपाल के मुद्दे पर उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । लोकसभा चुनाव खत्म होने तक अपने पद छोड़ने को जायज ठहराते रहे । चुनाव में पार्टी की और खुद की करारी हार के बाद सचाई को स्वीकारते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए जनता से माफी मांगते हुए कह रहे हैं कि एक बार और मौका दें अब पद नहीं छोड़ूंगा । उनचास दिन के कार्यकाल में कई विवाद उठे । उन विवादों के बावत सवाल पूछ जाने पर उन्होंने मीडिया पर भी बिकने का आरोप लगा दिया । केजरीवाल की सबको बेईमान बताने से जनता उबने लगी थी । सबको बेईमान कहने में यह छुपा होता था कि वो ही ईमानदार हैं । लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी की कथित ईमानदारी को भी कई लोगों ने देखा ।

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी में जनता ने जो भरोसा दिखाया था उसके साथ पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने छलात्कार किया । अब ना केवल भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की हवा निकल गई है बल्कि केजरीवाल की राजनीति भी चौराहे पर खड़ी है उन्हें कहां जाना है इस बात को लेकर भ्रम में हैं । कभी दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करते नजर आते हैं तो कभी चुनाव में जाने की बात करते हैं । अरविंद केजरीवाल को यह समझना होगा कि जनता भी उसी चौराहे पर खड़ी है जहां उनकी राजनीति खड़ी है । सबको बेईमान, चोर, लुटेरा कहने से राजनीति नहीं चलती । राजनीति का यथार्थ बेहद खुरदरा और रास्ता पथरीला होता है । अगर संभल कर नहीं चले तो लुढ़कने का खतरा रहता है, चुनाव नेता को करना होता है । 

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