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Monday, September 15, 2014

साहित्येतास लेखन का विकेन्द्रीकरण

हिंदी में साहित्येतास लेखन की परंपरा कापई समृद्ध है । मेरे जानते अबतक करीब पच्चीस तीस पुस्तकें तो साहित्य के इतिहास पर प्रकाशित हो चुकी हैं । इसमें अगर विश्वविद्यालयों से प्रकाशित होनेवाले रस्मी शोध की किताबों की संख्या को जोड़ दें तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा हो सकता है । मिश्र बंधु से लेकर रामचंद्र शुक्ल तक ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा । रामचंद्र शुक्ल का लिखा हिंदी साहित्य का इतिहास इस वक्त भी सबसे प्रामाणिक और वाज्ञानिक माना जाता है । उसके बाद द्विवेदी जी ने भी इस विषय पर लिखा । हिंदी के मूर्धन्य आलोचक नंददुलारे वाजपेयी और डॉ नागेन्द्र ने भी हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा । डॉ नागेन्द्र का हिंदी साहित्य का इतिहास में तो हिंदी की अलग अलग प्रवृत्तियों पर अलग अलग लेखकों ने लिखा । उस पुस्तक की भूमिका में ड नागेन्द्र ने लिखा था गुण और परिमाण में समृद्ध निरन्तर विकासशील हिंदी साहित्य का परिपूर्ण इतिहास तो कोई एक कृती लेखक ही लिख सकता है, परंतु उसके अभाव में यह संकलन ग्रन्थ भी शायद, कुछ सीमा तक, रिक्तिपूर्ति कर सके । यह अलहदा विषय है कि डॉ नागेन्द्र का संपादित वह ग्रंथ कितना उपयोगी है, लेकिन नागेन्द्र की उस किताब ने हिंदी साहित्य लेखन में उस समय के सन्नाटे को तोड़ने का काम तो किया ही था । जब हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की बात हो रही है तो बच्चन सिंह और विजेन्द्र स्नातक को नहीं भूला जा सकता है । बच्चन सिंह ने तो हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास नाम से किताब लिखी थी । रामनिरंजन परिमलेंदु ने भी हिंदी साहित्य के इतिहास पर सिलसिलेवार ढंग से लिखा । हिंदी के अलावा विदेशी विद्वानों ने भी साहित्य के इतिहास पर लिखा जिसमें ग्रियर्सन का नाम सर्वप्रमुख है । लेकिन कालांतर में हिंदी साहित्य का इतना अधिक विस्तार हो गया कि किसी भी एक लेखक के लिए पूरे हिंदी साहित्य का इतिहास लिखना संभव नहीं रहा । एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान समय में सिर्फ दिल्ली में विभिन्न पीढ़ियों के पांच सौ से ज्यादा कवि सक्रिय हैं । इन सब को समेटना किसी एक लेखक के बूते की बात है नहीं और व्यावहारिक भी नहीं है । रचनाकारों की बहुलता की वजह से संपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की बजाए विधाओं का इतिहास लिखा जाने लगा । गोपाल राय ने हिंदी कहानी का उपन्यास और हिंदी उपन्यास का इतिहास लिखा । गोपाल राय ने हिंदी उपन्यास का इतिहास में माना है कि इतिहास की किताब में सबसे मुश्किल काम उसे कालखंडों में बांटना और उसका नामकरण करना होता है । गोपाल राय के अलावा विजय मोहन सिंह ने भी कथा साहित्य के इतिहास पर काम किया और नंदकिशोर नवल ने कविता का इतिहास लिखा । इसके अलावा सुरेन्द्र चौधरी से लेकर देवीशंकर अवस्थी तक ने कहानी के इतिहास पर गंभीर काम किया है । मधुरेश और सत्यकेतु सांकृत ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है । लेकिन मेरे जानते किसी शहर को केंद्र में रखकर साहित्यकारों और साहित्यिक गतिविधियों का इतिहास कम ही लिखा गया है । उन्नीस सौ चौरानवे में बिहार के एक लेखक उमाशंकर निशेष ने - जमालपुर का साहित्य और इतिहास विषय पर एक पुस्तक लिखी थी जिसे विजय प्रकाशन जमालपुर ने छापा था । उस किताब की भूमिका में लेखक उमाशंकर निशेष ने दावा किय़ा था कि- मेरे विचार से हिंदी में यह पहला साहित्यक इतिहास है जो किसी एक छोटे से कस्बाई शहर पर हीपूरीतरह से केंद्रित है । हलांकि लेखक ने अपने इस विचार के समर्थन में किसी तरह का कोईसबूत या तर्क नहीं दिया था । कहना ना होगा कि उन्नीस सौ चौरानबे में इस तरह की कम किताब रही होगी क्योंकि पहला होने का दावा करना जोखिम भरा काम है ।

शहरों के साहित्यक इतिहास लेखन की इस कड़ी में डॉ देवेन्द्र कुमार शर्मा की किताब हिंदी साहित्य का विकास ऐतिहासिक दृष्ठिकोण (प्रयाग 1900-1950) प्रकाशित हुआ है । इस किताब में लेखक ने इलाहाबाद के पचास साल का इतिहास लिखने की कोशिश की है । इस पुस्तक के प्रकाशन से एक बात साफ है कि अब हिंदी में साहित्य का इतिहास लिखने के कार्य का विकेन्द्रीकरण जोर पकड़ने लगा है । इतिहास लेखन एक श्रमसाध्य काम है । इतिहास लेखन में लेखक को एक कउसल नट की तरह से बेहद सावधानी से चलते हुए पतली सी रस्सी पर चलते हुए अपनी साख बचानी होती है । डॉ देवेन्द्र शर्मा की इस किताब में दो तीन उल्लेखनीय भूलें हैं जिन्हें ठीक किया जाना चाहिए । इन चंद भूलों को अगर दरकिनार कर दें तो देवेन्द्र शर्मा ने बहुत ही मेहनत के साथ इलाहाबाद शहर के पचास साल का इतिहास लिखा है । उन्होंने विस्तार से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और उनकी कृतियों के हवाले से इतिहास लेखन किया है । इसके अलावा लेखक ने उस दौर में इलाहाबाद में चलनेवाली साहित्यक संस्थाएं, पत्र-पत्रिकाएं और युगीन साहित्यकार और उनकी साधना के आदार पर एक शहर का इतहास प्रस्तुत किया है । इस किताब में साहित्यक संस्थाएं वाले अध्याय में कई दिलचस्प और उपयोगी जानकारियां हैं । इन जानकारियों से इस वक्त भी कई सवाल खड़े होते हैं । जैसे हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्तूबर 1910 को प्रस्ताव पारित किया था विश्वविद्यालय शिक्षा में हिंदी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्र लिपि का निर्धारण । तकरीबन सौ साल बाद भी हमारे शीर्ष विश्वविद्लायों में हिंदी को अबतक आदर नहीं मिल पाया है और अब भी अंग्रेजी के बरक्श दोयम दर्जे पर ही है । इसी तरह से दीसरे अधिवेशन में पुरुषोत्तम दास टंडन के बनाए प्रस्तावों को पास किया गया । इसमें सबसे अहम था सारे देश में हिंदी के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना । आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे पुरखों के प्रण अब भी अधूरे हैं । इस मायने में देखें तो यह किताब कई गंभीर सवाल भी खड़े करती है । किसी भी किताब की सार्थकता इस बात में है कि वो अपने लेखों या संदर्भों से वैचारिक हलचल पैदा करती है या नहीं । इस कसौटी पर देवेन्द्र शर्मा की यह किताब खरी उतरती है । 

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