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Saturday, October 11, 2014

महाराष्ट्र चुनाव की बिसात

तैंतीस विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों के झटके के बाद बीजेपी का तर्क था कि ये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का पैमाना नहीं है । पार्टी का तर्क था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहीं भी चुनाव प्रचार नहीं किया था । लेकिन अब महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी धुंआधार चुनाव प्रचार कर रहे हैं । इसलिए इन दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों को मोदी की लोकप्रियता की कसौटी के तौर पर देखा जाने लगा है । पार्टी को भी नरेन्द्र मोदी पर ही सबसे ज्यादा भरोसा है और उनकी सभाओं में आनेवाली भीड़ को देखकर उत्साहित भी है । उधर राजनीतिक पंडित तमाम तरह के गुणा भाग में लगे हैं । चुनावी पंडितों और सर्वे के मुताबिक हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर तो उभर रही है लेकिन बहुमत से दूर है  । हलांकि इसी साल मई में जब लोकसभा चुनाव नतीजे आए थे तो मोदी की लोकप्रियता ने तमाम राजनीतिक पंडितों और सर्वे के अनुमान को गलत साबित कर दिया था ।  दरअसल महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्य बीजेपी के लिए इस वजह से अहम हैं वहां कभी भी पार्टी ने अपने बूते पर सरकार नहीं बनाई है । महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना चुकी है । हरियाणा में भी बीजेपी हमेशा से वहां की किसी पार्टी के साथ गठबंधन में रही है । कभी चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल तो कभी कुलदीप विश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस के सहारे बीजेपी ने राजनीति की है । तब की बात कुछ और थी और इस बार जब लोकसभा चुनाव में पार्टी को जनादेश मिला तो अब हरियाणा और महाराष्ट्र में वो अपनी धमक बरकरार रखना चाहती है । हरियाणा में तो पार्टी ने अकले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। उधर महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने शिवसेना के साथ अपना सालों पुराना गठबंधन तोड़ दिया । दो हजार नौ के विधानसभा चुनाव में दो सौ अठासी  सीटों में से शिवसेना को चौवालीस और बीजेपी को पैंतालीस सीटें मिली थी । लेकिन दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में बीजेपी शिवसेना गठबंधन को अड़तालीस में से इकतालीस सीटें हासिल हुई थी । लोकसभा चुनाव की सफलता के बाद शिवसेना को लगने लगा था कि सूबे में उसकी सरकार बन रही है । लिहाजा उद्धव ठाकरे ने अपना नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चलवा दिया है । यहीं से दोनों दलों के बीच खटास पैदा हुई ।  आज से करीब बीस साल पहले महाराष्ट्र में एक पार्टी की आखिरी सरकार थी।उन्नीस सौ पचानवे के विधानसभा चुनाव में बीजेपी शिवसेना गठबंधन की जीत के बाद सूबे में गठबंधन सरकार की परंपरा शुरू हुई । इस बार जब केंद्र में बीजेपी ने अपने बूते बहुमत हासिल किया तो विधानसभा चुनाव के लिए उसके हौसले बुलंद हुए । लिहाजा वो अपने सहयोगी शिवसेना से ज्यादा सीटों की मांग करने लगी । नतीजा यह हुआ कि शिवसेना और बीजेपी का पच्चीस साल पुराना गठबंधन टूटा । उधर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी गत से एनसीपी ने भी  आंखे तरेरनी शुरू कर दी । यहां भी सीटों का पेंच फंसा और पिछले पंद्रह साल से सत्ता में रही कांग्रेस और एनसीपी की दोस्ती भी टूट गई । महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव इस लिहाज से इस बार ऐतिहासिक और दिलचस्प हो गया है कि इस बार का चुनाव चारों पार्टियां अपने बलबूते पर लड़ रही हैं । इन सबके अलग अलग चुनाव लड़ने से प्रचार के दौरान अहम मुद्दे गौण होते चले गए । चारो पार्टियां एक दूसरे पर गठबंधन ठोकरे की जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ने में लगी है । मानो गठबंधन का टूटना ही जनता के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो । कुछ समय पहले तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चौहान ने एनसीपी पर बीजेपी के साथ अंदरखाने हाथ मिलाने का आरोप लगाया है तो अजीत पवार ने पृथ्वीराज चौहान का नकारा मुख्यमंत्री तक कह डाला । उधर शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने दो दशक से ज्यादा तक सहयोगी रहे बीजेपी की तुलना अफजल खान की सेना से कर दी । उद्व के मुताबिक जिस तरह से अदिल शाह की सेना छत्रपति शिवाजी को मारकर महाराष्ट्र पर कब्जा करना चाहती थी उसी तरह से बीजेपी महाराष्ट्र पर कब्जा करना चाहती है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो शिवसेना पर सीधा हमला नहीं करने का एलान किया लेकिन बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष देवेन्द्र फडणवीस ने तो सरेआम शिवसेना पर रंगदारी वसूलने का इल्जाम मढ़ दिया । महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में आरोप प्रत्यारोप के इस कोलाहल में के बीच असल मुद्दे दबते नजर आने लगे हैं । मुद्दों के बजाए आरोपों पर बात होने से विदर्भ के किसानों की बदहाली का मुद्दा गौण हो गया । हजारों किसानों के कर्ज में डूबे होने और वक्त पर उसे नहीं चुका पाने के तनाव में खुदकुशी करने पर कोई राजनीतिक दल बात नहीं कर रहा है । तकरीबन हर चुनाव में विदर्भ के किसानों का मुद्दा उठता रहा है लेकिन सालों बाद पहलीबार ऐसा हो रहा है कि इस विधानसबा चुनाव में इन किसानों की बदतर हालत और खुदकुशी चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है । विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग भीइस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ कर दिया है कि उनके दिल्ली की गद्दी पर होते कोई भी शिवाजी की इस धरती को बांटने के अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाएगा । इस चुनाव में महाराष्ट्र में हुए हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले पर बात नहीं हो रही है । मुंबई को शंघाई बनाने के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वादे के बारे में कोई कांग्रेस से सवाल नहीं पूछ रहा है । महंगाई और भ्रष्टाचार इस ब महाराष्ट्र में चुनावी मुद्दा  नहीं है । लोकसभा चुनाव के दौरान महंगाई और भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने वाली पार्टी बीजेपी भी अब इन दो मुद्दों से किनारा करती नजर आ रही है । उसके लिए भी महंगाई का मुद्दा उठाना अब आसान नहीं रहा । केंद्र में उनकी ही सरकार है लेकिन महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है । कांग्रेस का तो इतना बुरा हाल है कि उसको कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि वो क्या करे । पार्टी का पूरा चुनावी कैंपेन बुरी तरह से बिखरा बिखरा सा नजर आ रहा है । ऐसा लग रहा है कि पार्टी ने पहले ही हार मान ली है । एनसीपी दस साल तक कांग्रेस के साथ सरकार में रही अब वो अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर चुनावी फायदा उठाने की जुगत में है लेकिन जनता अब इतनी समझदार तो हो ही चुकी है कि वो राजनीतिक दलों के इन खेल को समझ सके । लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर पर सवार होकर ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद थे लेकिन उसके कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे की सड़क हादसे में मौत के बाद पार्टी को थोड़ा झटका लगा है । गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे ने पिता की मौत के बाद पूरे सूबे में यात्रा की उसको बड़ा जनसमर्थन मिला । पंकजा मुंडे महाराष्ट्र बीजेपी की ऐसी नेता है जिनकी भूमिका आनेवाले दिनों में अहमन हो सकती है । पार्टी के आला नेता लगातार पंकजा को आगे कर रहे हैं । 
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पहली बार महाराष्ट्र में ये लग रहा है कि चुनावी मुकाबला चतुष्कोणीय है लेकिन असलियत में ऐसा है नहीं । अलग अलग इलाके में अलग अलग दल एक दूसरे के सामने हैं और यह कहा जा सकता है कि इलाका विशेष में चुनावी मुकाबला सीधा है । महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुख्य रूप से विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्ट्र, उत्तरी महाराष्ट्र और मुंबई ठाणे के पांच रणक्षेत्र में बांट सकते हैं । विदर्भ इलाके में विधानसभा की साठ सीटें हैं । पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इस इलाके की दस सीटें में से बीजेपी ने 6 और शिवसेना ने 4 सीटें जीती थीं । विदर्भ की सबसे बड़ी समस्य़ा किसानों की खुदकुशी की है और सबसे बड़ी मांग अलग राज्य की है । परंपरागत विश्लेषम यह कहता है कि इस इलाके में मुख्य मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में होगा । मराठवाड़ा को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है और इस इलाके से कांग्रेस के कई मुख्यमंत्री हुए । विलासराव देशमुख के निधन और अशोक चौहान के आदर्श घोटाले में आरोपी होने के बाद कांग्रेस इस इलाके में भी कमजोर हुई और लोकसभा में मराठवाड़ा से सिर्फ दो सीटें जीत पाई । मोदी लहर का असर यहां भी दिखा । मराठवाड़ा में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद यह माना जा रहा है कि इस इलाके में चारों दलों ने अपनी- अपनी पैठ बनाई है ।
पश्चिमी महाराष्ट्र को एनसीपी नेता शरद पवार का गढ़ माना जाता रहा  है जहां चीनी मिलों के की राजनीति के मार्फत उनका दबदबा रहा है । इस इलाके में विधानसभा की 78 सीटें हैं और इस बार शरद पवार के सामने अपने गढ़ को बचाने की चुनौती भी है । लोकसभा चुनाव के दौरान सात में से चार सीट जीतकर शरद पवार ने अपनी लाज बचाई थी । बदले हुए राजनीतिक हालात में एनसीपी के कई नेता पाला बदलकर बीजेपी में जा चुके हैं । इसका नुकसान एनसीपी को हो सकता है। इसी इलाके में शरद पवार के सालों से पॉलिटिकल राइवल स्वाभिमानी शेतकारी संगठना के राजू शेट्टी भी एनसीपी को नुकसान पहुंचा सकते हैं । तमाम अमुमानों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि इस इलाके में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और एनसीपी में ही होगा । अगर शिवसेना, बीजेपी और शेतकारी संगठना इकट्ठे चुनाव लड़ते तो शरद पवार का दुर्ग ढह सकता था । उत्तरी महाराष्ट्र हमेशा से बीजेपी को समर्थन करता रहा है और मोदी लहर ने उसको और मजबूत ही किया है । मुंबई ठाणे इलाके में शहरी वोटर ज्यादा हैं । 2009 में इस इलाके से कांग्रेस को सफलता मिली थी और करीब आधी विधानसभा सीट पर जीत हासिल हुई थी अनुमान है कि मोदी के करिश्मे की वजह से इस इलाके से इस बार कांग्रेस एनसीपी का सूपड़ा साफ हो सकता है । चार दलों के बीच मचे घमासान में इस बार कोई भी राज ठाकरे और उनकी पार्टी मनसे को याद नहीं कर रहा है क्योंकि गांधी के इस देश में हिंसा और नफरत की राजनीति से पहचान तो मिल सकती है लेकिन लंबा चलने के लिए चोला बदलना ही पड़ता है ।

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