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Sunday, August 31, 2014

बाल साहित्य की उपेक्षा

दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मशहूर गीतकार और लेखक गुलजार ने हिंदी में बाल साहित्य की उपेक्षा पर क्षोभ प्रकट किया था । गुलजार ने कहा कि हमारे साथी साहित्यकार बच्चों को ध्यान में रखते हुए छिटपुट लिख रहे हैं, जो किसी भी पीढ़ी को संस्कारित करने के लिए नाकाफी है । गुलजार ने कहा कि हमारे समाज में बच्चों को लेकर एक खास किस्म की उपेक्षा दिखाई देती है जो हमारी जिंदगी के हर क्षेत्र में है । चाहे वो बाल मजदूरी को लेकर कानूनी खामियां हों या फिर बच्चों के यौन शोषण का मामला । समाज की इस उपेक्षा से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं है । गुलजार ने जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया दरअसल वह हमारे साहित्य समाज की तो बड़ी समस्या है ही उसका असर भी बहुत दूरगामी है । अगर हम हिंदी समाज में बाल साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालें तो लगभग सन्नाटा नजर आता है । बच्चों की कई स्तरीय पत्रिकाएं बंद हो गईं । जो निकल रही हैं उनकी रचनाओं में विविधता का अभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है । एक जमाने में अमर चित्रकथा समेत कई कॉमिक्स बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय थे लेकिन अब सब गायब । अभी हाल ही में प्राण का निधन हुआ । उन्होंने चाचा चौधरी और साबू जैसे मशहूर चरित्र को गढा और बच्चों के बीच उसे दीवानगी की हद तक लोकप्रिय बना दिया था । बच्चे उस श्रृंखला की नई कॉमिक्स का शिद्दत से इंतजार करते थे । पता नहीं किस बिनाह पर उसका प्रकाशन बंद कर दिया गया । माना यह गया कि घाटे की वजह से प्रकाशन बंद कर दिया गया । उसी तरह से एक बड़े प्रकाशन गृह से निकलनेवाली बच्चों की एक पत्रिका लोकप्रियता के चरम पर बंद कर दी गई । वजह वही बताया गया कि पत्रिका से मुनाफा नहीं हो रहा था । बाल प्रकाशनों में सवाल मुनाफे का नहीं होना चाहिए यह तो एक पूरी पीढ़ी को पढ़ने की आदत डालने के लिए किए जाने वाले निवेश की तरह देखा जाना चाहिए । एक ऐसा निवेश जो आगे जाकर कारोबारी और समाज दोनों को फायदा पहुंचा सकता है । अगर बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित ही नहीं होगी तो बड़ा होकर वो अखबार और अन्य पत्र पत्रिकाएं कैसे पढे़गा । इस मामूली सी बात को समझ कर बच्चों के प्रकाशनों पर कंपनियों को निवेश करना चाहिए था ।
अगर हम साहित्य को देखें तो वहां भी बच्चों को लेकर एक अजीब किस्म की उदासीनता देखने को मिलती है, सिर्फ मराठी, बांग्ला और मलयालम को छोड़कर, जहां जमकर बाल साहित्य लिखा और छापा जा रहा है  । इसका नतीजा वहां साफ दिखता है । इन भाषाओं में साहित्य के गंभीर पाठक हैं और नई पीढ़ी की भी पढ़ाई में रुचि है जो इन भाषाओं में बिकनेवाली किताबों की संख्या में साफ तौर पर दिखाई देती है  । हिंदी साहित्य की ही बात करें तो वहां पिछले चार पांच दशकों से बाल साहित्य पर गंभीरता से कोई काम ही नहीं हुआ  है। अब भी बच्चों को महाभारत की काहनियां, रामायण की प्रेरक कहानियां और पंचतंत्र की कहानियां पढ़ाकर बड़ा किया जाता है । जो लोग भी बाल साहित्य लिखते हैं उनको साहित्य जगत में मेनस्ट्रीम का लेखक नहीं माना जाता है । यह अकारण नहीं हो सकता कि जैसे जैसे एक खास विचारधारा का साहित्य में दबदबा बढ़ा वैसे वैसे हिंदी साहित्य में बाल साहित्य हाशिए पर चला गया ।बाल साहित्य के प्रति लेखकों की उदासीनता को समझा जा सकता है । अब अगर हम साहित्य और साहित्यकारों से इतर हटकर अखबारों को देखें तो इक्का दुक्का अखबारों को छोड़कर, बच्चों के लिए वहां पढ़ने की सामग्री नहीं के बारबर होती है। जो होती भी हैं वो साप्ताहिक परिशिष्ठों के अंत में बच्चों का कोना में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हैं । टेलीविजन चैनलों पर तो और भीबुरा हाल है । कार्टूनों की बहुलता ने बच्चों को पढ़ाई से दूर करने में अहम भूमिका का निर्वाह किया है । बाल साहित्य को लेकर इस उदासीनता से तो एक बात साफ है कि हमारा समाज चाहे वो किसी भी तबके का हो अपने बच्चों और उसके भविष्य को लेकर गंभीर नहीं हैं । मध्यवर्ग में हर माता पिता चाहता है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा हासिल करे लेकिन बच्चों को नैतिक शिक्षा देने को लेकर कोई पहल दिखाई नहीं देती है । इसी समस्या से जुड़ा है बच्चों की शिक्षा पद्धति । पिछले दो तीन दशकों में पूरे देश में अंग्रेजी स्कूलों की दुकानें गली मुहल्ले में खुलीं । कॉंन्वेंट स्कूल या अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर माता पिता बच्चों को धड़ल्ले से वहां भेज रहे हैं । इस तरह के स्कूलों में साहित्य के नाम पर आर्चीज और ऐरी आदि काफी लोकप्रिय हैं । इन स्कूलों के फैलाव ने हिंदी के बाल साहित्य पर काफी बुरा असर डाला क्योंकि अभिभावकों ने भी बच्चों को अंगेजी में पढ़ने के लिए प्रेरित करना शुरू किया ।
अब वक्त आ गया है कि हमें यह समझना होगा कि देश को अगर सचमुच विकसित राष्ट्र बनाना है तो समाज में बच्चों की उपेक्षा का जो अंधकारपूर्ण माहौल है उसको को खत्म करना होगा । हमारे नौनिहाल हमारे देश के भविष्य हैं और अपने भविष्य की उपेक्षा करनेवाला राष्ट्र एक हद से ज्यादा आगे नहीं जा सकता है । इस काम में देश के नागरिकों और सरकार को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा । यह बात तो हिंदी के कर्ताधर्ताओं को भी समझनी होगी और रचनाकर्म से जुड़े लोगों को भी ताकि बाल साहित्य में जो एक सन्नाटा है उसको तोड़ा जा सके । इससे बच्चों के साथ साथ साहित्य के लिए भी एक बड़ी जमीन तैयार होगी । 

स्वायत्ता की आड़ में खेल

भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सरकार बनाने के बाद इस बात की आशंका तेज हो गई थी कि सांस्कृतिक संगठनों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के लोगों की नियुक्ति होगी । वामपंथी बुद्धिजीवी लगातार यह आशंका जता रहे हैं कि सांस्कृतिक संगठनों की स्वायत्ता खत्म करके सरकार इन संगठनों पर अपना कब्जा जमा लेगी । भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर संघ की पृष्ठभूमि के वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति से इन आशंकाओं को बल भी मिला । दरअसल हमारे देश में इन सांस्कृतिक संगठनों पर लंबे समय से वामपंथी बुद्धिजीवियों का कब्जा रहा है । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उन्नीस सौ पचहत्तर में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाया था तब वामपंथी बुद्धिजीवियों ने आपातकाल का समर्थन किया था । दिल्ली में भीष्म साहनी की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक में आपातकाल के समर्थन में प्रस्ताव पास किया गया था । उसके बाद से इंदिरा गांधी ने पुरस्कार स्वरूप सांस्कृतिक संस्थाओं की कमान प्रगतिशीलों के हाथ में सौप दी । प्रगतिशील जब बंटे तो इन संस्थाओं का भी बंटवारा हुआ और कुछ लेखक जनवाद के फेरे में जा पहुंचे, लेकिन मूल विचारधारा वही रही । ईनाम में मिली मिल्कियत का जो हश्र होता है वही इन साहित्यक सांस्कृतिक संगठनों का हुआ । अंधा बांटे रेवड़ी जमकर अपने अपनों को दे । 1954 में जब साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी तो कौशल विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे । तकरीबन छह दशक के बाद भी साहित्य अकादमी देश की सभी भाषाओं में शोध और कौशल विकास को अपेक्षित स्तर पर नहीं ले जा पाई । साहित्य और अन्य कला अकादमियां एक तरह से पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर अपने पसंदीदा लेखक लेखिकाओं को घुमाने वाली ट्रैवल एजेंसी या फिर इवेंट मैनजमेंट कंपनी मात्र बनकर रह गई है । साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव पर यात्रा भत्ता में घपले के आरोप समेत कई संगीन इल्जाम लगे थे । उन्हें मुअत्तल किया गया । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बना दी गई थी । जांच के दौरान ही सचिव रिटायर और तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुन लिए गए । जांच कहां तक पहुंची या फिर क्या कार्रवाई की गई ये सार्वजनिक नहीं हुआ । इसके पहले भी गोपीचंद नारंग के साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहते उनपर अपने कार्यलय की साज सज्जा पर फिजूलखर्ची के आरोप लगे थे । यह हाल सिर्फ साहित्य अकादमी का नहीं है ।  ललित कला अकादमी ने अपने पूर्व अध्यक्ष के आर सुब्बन्ना समेत इ्क्कीस कलाकारों पर प्रतिबंध लगा दिया है । इन सभी पर अनियमितताओं और पद पर दुरुपयोग का आरोप लगाए गए हैं । संगीत नाटक अकादमी के एक सचिव के कार्यकाल को बढ़ाने को लेकर भी नियुक्ति प्रक्रिया का पालन किए बिना अधिशासी बोर्ड ने फैसला ले लिया था । बाद में विधि और न्याय मंत्रालय ने अपनी राय दी थी कि नियुक्ति गैरकानूनी तरीके से की गई थी ।
इन स्थितियों से इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि हमारे देश के सांस्कृतिक संगठनों में स्वायत्ता की आड़ में कुछ गड़बड़ चल रहा है । सत्रह दिसंबर दो हजार तेरह को संसद के दोनों सदनों में सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी । इस रिपोर्ट में साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी के अलावा इंदिरा गांधी कला केंद्र और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज पर टिप्पणियां की गई थी । येचुरी की अगुवाई वाली इस समिति ने साफ तौर पर कहा कि देश की ये अकादमियां निहित स्वार्थों को साधने का अड्डा बन गई हैं । अपने प्रतिवेदन में  संसदीय समिति ने लिखा- समिति यह अनुभव करती है कि कला और संस्कृति अभिन्न रूप से हमारी परंपराओं से जुड़े हैं और इसे एक विकास और आवयविक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए साथ ही ये केवल अतीत की वस्तु नहीं हैं इनका वर्तमान और भविष्य के साथ निकट सहसंबंध है । अत: समिति ये सिफारिश करती है कि संस्कृति को इसके समग्र रूप में समझने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और ऐसा तभी हो सकता है जब हमारे उत्कृष्ट सांस्कृतिक संगठन, जैसे विभिन्न अकादमियों के बीच समुचित समन्वय और सहक्रिया हो ।कमेटी ने यह भी माना था कि अनुवाद के काम स्तरीय नहीं हो रहे हैं । कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में पारर्दर्शिता का अभाव है । अब अगर हम वर्तमान में साहित्य अकादमी में हिंदी की बात करें इसके जो संयोजक हैं उनका साहित्य को योगदान अभी तक ज्ञात नहीं है, पर वो हिंदी की दशा दिशा तय करते हैं । रिमोट चाहे जिनके भी हाथ में हो । यह बात भी सामने आई कि साहित्य अकादमी में वित्तीय सहायता देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है । इस तरह की अनियमितताएं के आरोप साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पर भी लगते रहे हैं और लग रहे हैं । साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसके अध्यक्ष को असीमित अधिकार हैं । कई बार इन अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप भी लगे हैं ।  साहित्य अकादमी में तो अनुवाद का इतना बुरा हाल है कि पारिश्रमिक का भुगतान होने के बाद भी अनुवादकों को किताब छपने के लिए दस दस साल का इंतजार करना पड़ता है । संसदीय समिति की रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि साहित्य अकादमी साल भर में तकरीबन चार सौ सेमिनार आयोजित करती है । बेहतर होता कि संसदीय समिति के अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डालते कि कितने कार्यक्रम दिल्ली में अकादमी के सेमिनार हॉल में हुए और कितने बाहर । इसी तरह से ललित कला अकादमी में भी कलाकारों के साथ भेदभाव किया जाता है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब ललित कला अकादमी पर कला दीर्घा की बुकिंग में भी धारा और विचारधारा के आधार पर खारिज करने का आरोप लगा था । सवाल यही कि क्या देश की सांस्कृतिक संस्थाएं किसी खास विचारधाऱा की पोषक और किसी खास विचारधारा की राह में बाधा बन सकती हैं ।
अकादमियों की इन बदइंतजामियों के बारे में संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट के पैरा 56 में लिखा- समिति यह दृढता से महसूस करती है कि ऐसी स्थिति को बनाए नहीं रखा जा सकता है और इन अकादमियों को व्यवस्थित करने के लिए कुछ करने का यह सही समय है । समिति यह महसूस करती है कि इन निकायों को भारत की समेकित निधि से धनराशि प्राप्त होती है और इस संसदीय समिति की सिफारिशों पर इनकी अुनदान मांगों को संसद द्वारा प्रत्येक वित्तीय वर्षों में अमुमोदित किया जाता है । अत यह समिति पूरी जिम्मेदारी से कहती है कि इन संस्थाओं को आवंटित निधियों का इनके कार्यनिष्पादन की लेखा परीक्षा करके प्रत्येक वर्ष गहन तथा नियमित अनुवीक्षण किए जाने की आवश्यकता है । सांस्कृतिक संस्थानों के कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा की जानी चाहिए । ये समीक्षाएं बाहरी व्यक्तियों और समितियों द्वारा की जानी चाहिए और उन्हें उन वार्षिक प्रतिवेदनों में शामिल किया जाना चाहिए । बाद में उन्हें संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए । इस तरह की कठोर टिप्पणियों से यह संदेश जा सकता है कि संसदीय समिति इन अकादमियों की स्वायत्ता को खत्म करना चाहती है ।
संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के बाद जनवरी 2014 में यूपीए सरकार के दौरान अभिजीत सेन की अध्यक्षता में एक हाई पॉवर कमेटी का गठन किया गया । अकादमियों के कामकाज की समीक्षा के बारे में 1988 में हक्सर कमेटी बनी थी और तकरीबन पच्चीस साल बाद अब सेन कमेटी का गठन हुआ है । इस कमेटी में  नामवर सिंह, रतन थियम, सुषमा यादव, ओ पी जैन आदि सदस्य थे । इस कमेटी का गठन इन अकादमियों के संविधान और उसके कामकाज में बदलाव को लेकर सुझाव देना था ।इस कमेटी ने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की । लगभग सवा सौ पृष्ठों की रिपोर्ट में इस कमेटी ने भी माना कि इन अकादमियों में जमकर गड़बड़झाले को अंजाम दिया जा रहा है । हाई पावर कमेटी ने यह भी माना कि साहित्य अकादमी की आम सभा में विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि होने के बावजूद स्तरीय शोध नहीं होते हैं । इस समिति ने अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव विशेषज्ञों की एक समिति से करवाने की सिफारिश भी की है । इसके अलावा अकादमी के अध्यक्ष और अन्य कमेटियों के अध्यक्षों की उम्र सीमा भी 70 साल तय करने की सिफारिश की गई है । उपाध्यक्ष के पद को बेकार मानते हुए उसे खत्म करने और सचिव का कार्यकाल तीन साल करने की सिफारिश की गई है । इसके अलावा एक टैलेंट पूल की भी वकालत की गई है, साथ ही तीनों अकादमियों की लाइब्रेरी को मिलाकर एक करने का सुझाव भी दिया गया है । यहां यह याद दिलाते चलें कि यह सब कुछ यूपीए सरकार के दौरान हुआ है ।

सेन कमेटी की इन सिफारिशों को लेकर साहित्य अकादमी के अंदर खलबली मची हुई है । इसको अकादमी की स्वायत्ता पर हमले के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है । संभव है कि एनडीए सरकार की मंशा भी ऐसी हो । साहित्य अकादमी की गंभीरता को समझने के लिए पिछले दिनों गुवाहाटी में हुई सामान्य सभा की बैठक पर गौर फर्माना होगा । सेन कमेटी समेत अन्य मुद्दों पर बाइस अगस्त को सामान्य सभा की बैठक होनी थी । सुबह साढे् ग्यारह बजे का वक्त तय था । बैठक सवा बारह बजे शुरु हुई और दोपहर एक बजे लंच लग गया । इस बैठक में एक दो वक्ताओं ने सेन कमेटी की सिफारिशों पर ज्ञान दिया और फिर हाथ उठाकर पहले से तैयार किए गए एजेंडे को स्वीकृति । दरअसल अगर हम साहित्य अकादमी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो यह देखकर तकलीफ होती है कि वहां किस तरह से स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जा रहा है । साहित्य अकादमी अपने स्थापना की मूल अवधारणा से भटक गई प्रतीत होती है । साहित्य अकादमी समेत अन्य केंद्रीय अकादमियों की स्वायत्ता का मोदी सरकार अगर अतिक्रमण करती है तो इसके लिए हाल के वर्षों में वहां काबिज रहे रहनुमाओं की भी थोड़ी बहुत जिम्मेदारी बनती है । क्योंकि यह सवालतो खड़ा होगा ही कि जिन संस्थाओं पर देशभर की साहित्य-संस्कृति को वैश्विक फलक पर ले जाने की जिम्मेदारी थी वो उसमें कहां तक सफल रही है । अशोक वाजपेयी और नमिता गोखले की संयुक्त पहल और संकल्पना इंडियन लिटरेचर अब्रॉड का क्या हुआ इस बारे में भी जानकारी बाहर आनी शेष है । स्वायत्ता के नाम पर इस अराजकता पर कहीं ना कहीं तो पूर्ण विराम लगाना ही होगा । 

Wednesday, August 27, 2014

जिंदगी का रफ ड्राफ्ट

और क्या यह जिंदगी यों ही व्यर्थ गई । यह मेरी व्यक्तिगत अर्थहीनता है या विशेष समय में होने की नियति जहां कुछ भी सार्थक नहीं रह गया है ? मुझे अक्सर चेखव के नाटक तीन बहनें की याद आती हैं । इस व्यर्थता बोध की मारी इरीनी अवसाद के क्षणों में कहती है,काश, जो कुछ हमने जिया है वह सिर्फ जिंदगी का रफ ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर और मिलता । इसी वाक्य से प्रेरित होकर एक साहब इस रफ ड्राफ्टको फेयर करने बैठे हैं और जिंदगी की एक-एक निर्णायक घटना को उठाकर जांच परख रहे हैं कि अगर फिर से वह क्षण आए तो वे क्या करेंगे? ...मित्रो, प्रेमिका या जीवन के एक विशेष ढर्रे लेकर हर जगह वे पाते हैं कि उस समय जो निर्णय उन्होंने लिए हैं, सिर्फ वही लिए जा सकते थे । जो कुछ उन्होंने किया, उसके सिवा वो कुछ और कर भी नहीं सकते थे । रफ हो या फेयर, उनकी जिंदगी वही होती, जो है ...। यह बात राजेन्द्र यादव ने अपनी लगभग आत्मकथ्य, मुड़ मुड़ के देखता हूं... में लिखी थी । भले ही उन्होंने यह बात इरीनी और अपने एक कथित साहब के मार्फत कही हो लेकिन यादव जी के जीवन और लेखन दोनों का फलसफा यही था । वो अपनी जिंदगी को रफ ड्राफ्ट ही रहने देना चाहते थे और अंत तक उसको फेयर करने में उनकी कोई रुचि थी नहीं । वो तो बल्कि जिंदगी के कई कई रफ ड्राफ्ट तैयार करते चलते थे और उसको संभाल कर रखने में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी । इस अरुचि की वजह यह भी थी कि उनकी पसंद का रेंज बहुत व्यापक था । उन्होंने बहुत ज्यादा विश्व साहित्य पढ़ लिया था । उनेक जीवन पर विश्व साहित्य का गहरा प्रभाव था । वो हिंदी साहित्य में एक सिमोन की तलाश में रहते थे ताकि खुद को सार्त्र साबित कर सकें । और इसी सिमोन की तलाश में वो एक दिन अंतिम यात्रा पर निकल पड़े ।
आज यदि राजेन्द यादव जीवित होते तो 28 अगस्त को जीवन के पचासी वसंत पूरे कर रहे होते । राजेन्द्र यादव के निधन से साहित्य का कितना नुकसान हुआ इसका आकलन तो विद्वान आलोचक करेंगे लेकिन उनके जाने से दिल्ली का साहित्यक माहौल सूनेपन का दंश झेल रहा है । राजेन्द्र यादव के खिलंदड़ेपन और युवाओं को उकसाने और बुजुर्ग लेखकों को लगातार छेड़ने से साहित्यक परिदृश्य जीवंत रहता था । निकट भविष्य में साहित्य के इस सूनेपन की भारपाई होती भी नहीं दिख रही है । आज पूरे देश में युवाओं को लेकर खूब बातें होती हैं लेकिन जब राजेन्द्र यादव ने उन्नीस सौ छियासी में हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया उस वक्त से ही उन्होंने युवा रचनाकारों को तवज्जो देनी शुरू कर दी । हंस के माध्यम से यादव जी ने हिंदी कहानी की कम से कम दो पीढ़ी तैयार कर दी । मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ मिलकर नई कहानी का डंका बजानेवाले राजेन्द्र यादव ने अकेले दम पर हंस का प्रकाशन शुरु किया और नए कहानीकारों को मंच प्रदान कर स्थापित किया । इसके अलावा राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय के माध्यम से अछूते सवालों को उठाते हुए समाज को झकझोरने का काम भी किया । स्त्री और दलित विमर्श को साहित्य की केंद्रीय विधा बनाने के लिए यादव जी को काफी संघर्ष करना पड़ा । आलोचकों ने उनपर जमकर हमले किए लेकिन राजेन्द्र यादव अपने धुन के पक्के थे, जिद्दी भी । जब अड़ गए तो अड़ गए । सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखे उनके लेखों की वजह से कई मुकदमे झेले और कई दिन पुलिस सुरक्षा में गुजारने पड़े । तनाव के उन क्षणों में उनके व्यक्तित्व का खिलंदड़ापन जारी रहता था । कथाकार राजेन्द्र यादव का, संभव है, मूल्यांकन हो गया हो, लेकिन एक संपादक और एक्टिविस्ट राजेन्द्र यादव का मूल्यांकन होना अभी शेष है ।

Monday, August 25, 2014

हमारे समय का कबीर

हिंदी के मशहूर कथाकार और हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव आज अगर जीवित होते तो 28 अगस्त को पचासी साल के होते । पिछले साल राजेन्द्र यादव के निधन से साहित्य का एक जीवंत कोना सूना हो गया । कहना ना होगा कि राजेन्द्र जी की जिंदादिली के किस्से और उनके  ठहाकों की गूंज अब भी साहित्य जगत में महसूस किए जा सकते हैं । राजेन्द्र यादव अपने लेखन और जीवन में लगातार प्रयोग करते रहते थे लेकिन अपने प्रयोगों से वो कभी संतुष्ट नहीं होते थे । कहानी और उपन्यास लेखन में जब वो अपने प्रयोगों से संतुष्ट नहीं हुए तो प्रकाशन की तरफ मुड़े । प्रकाशन में होम करते ही जब हाथ जले तो हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । हंस में उन्होंने लगातार प्रयोग किए । राजेन्द्र यादव ने हंस के माध्यम से कहानीकारों की कई पीढ़ी तैयार कर दी । उसके बाद फिर कुछ नया करने की चाहत उन्हें स्त्री और दलित विमर्श की ओर ले गई । यादव जी ने साहित्य में विमर्श की ऐसी आंधी चलाई कि दोनों ही साहित्य की परिधि उसके केंद्र में आ गए । सामाजिक कुरीतियों और सांप्रदायिकता पर उन्होंने अपने संपादकीय के माध्यम से लगातार चोट की । एक और बड़ा भारी दुर्गुण राजेन्द्र यादव के अंदर था । वो परले दर्जे के जिद्दी थी । जो ठान लेते थे उसको पूरा करके ही दम लेते थे । और उस जिद में अगर पूर्वग्रहों और विचारधारा का घोल मिला दिया जाए तो राजेन्द्र यादव की मानसिकता को समझने में मदद मिल सकती है । हलांकि राजेन्द्र यादव का दावा था कि वो खुद को नहीं समझ पाए तो दूसरे उन्हें क्या समझ पाएंगे । इसी तरह के संकेत मन्नू भंडारी ने भी अपने एक लेख में दिए थे ।

राजेन्द्र यादव की एक और खूबी थी कि जिस किसी में भी थोड़ा सा स्पार्क दिखाई देता था उसको वो लगातार उत्साहित करते रहते थे । उसे लिखने के लिए प्रेरित करते रहते थे और उससे लिखवा कर ही दनम लेते थे । राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी शादी के बाद कलकत्ता में थे तो एक दिन पता चला कि उनका नौकर कहानियां लिखता है । फिर क्या था यादव जी का अगला पूरा दिन नौकर की काहनियां सुनने और उसको कहानी पर भाषण पिलाने में बीता । राजेन्द्र यादव लगातार युवाओं को आगे बढ़ाने और उनके साथ कदमताल करना चाहते थे । उन्हें किसी भी तरह का बंधन मंजूर नहीं था, ना लेखन में ना ही समाज और परिवार में और ना ही प्रेम में । सामाजिक विसंगतियों पर वो कबीर की ही तरह चोट करते थे । यहां कबीर और राजेन्द्र यादव में एक बुनियादी फर्क था । कबीर जहां अपने लेखन में गंभीर थे वहीं राजेन्द्र यादव के बाद के लेखन में एक खास किस्म की विवादप्रियता दिखती है । तर्क की बजाए राजेन्द्र यादव भावुकता से काम लेने लगे थे । बावजूद इसके यादव जी अपने कुछ गुणों की वजह से कबीर के करीब थे । उनके जाने से साहित्य जगत में जो सन्नाटा पसरा है वह हाल फिलहाल में टूटता नजर नहीं आ रहा है । 

Sunday, August 24, 2014

अनंत बौद्धिकता के मूर्ति को सलाम

जिस शहर को यू आर अनंतमूर्ति ने नया नाम दिया था। बैंगलोर को बेंगलुरू बनाने कीमहिम छेड़ी थी । अपने उसी शहर में कन्नड के महान साहित्यकार अनंतमूर्ति ने अंतिम सांसें ली । यू आर अनंतमूर्ति का मानना था कि बैंगलोर गुलामी का प्रतीक है और इस नाम से औपनिवेशिकता का बोध होता है, लिहाजा उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद बेंगलुरू नाम दिलाने में सफलता हासिल की थी । कई सालों से नियमित डायलिसिस पर चल रहे अनंतमूर्ति पिछले कई दिनों से किडनी में तकलीफ की वजह से अस्पताल में थे । शुक्रवार को उनकी तबीयत इतनी बिगड़ी की उनको बचाया नहीं जा सका । यू आर अनंतमूर्ति अपने जीवन के इक्यासी वर्ष पूरे कर चुके थे और दिसंबर में बयासी साल के होनेवाले थे । अनंतमूर्ति का जाना कन्नड साहित्य के अलावा देश के बौद्धिक ताकतों का कमजोर होना भी है । अनंतमूर्ति देश के उन बौद्धिक शख्सियतों में थे जिनकी पूरे देश को प्रभावित करने वाले हर अहम मसले पर राय होती है, लेकिन इन बौद्धिकों में से कम ही लोग अपनी इस राय को सार्वजनिक करते हैं । अनंतमूर्ति उन चंद लोगों में थे जो अपनी राय सार्वजनिक करने में हिचकते नहीं थे । गांधीवादी समाजवादी होने के बावजूद यू आर अनंतमूर्ति किसी विचारधारा या वाद से बंधे हुए नहीं थे । उन्होंने जहां गलत लगा वहां जमकर प्रहार किया । सच कहने के साहस का दुर्लभ गुण उनमें था । जिस तरह से उन्होंने कट्टर हिंदूवादी ताकतों का जमकर विरोध उसी तरह से उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज में जाति प्रथा जैसी कुरीति और समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर प्रहार किया । नतीजा यह हुआ कि कट्टरपंथी हिंदू ताकतें उनसे खफा हो गई और ब्राह्मणों को इस बात की नाराजगी हुई कि उनकी जाति में पैदा हुआ शख्स ही ब्राह्मणवाद पर हमले कर रहा है । विडंबना यह कि मार्क्सवादी लेखक भी उनको अपना नहीं समझते थे । उनकी शिकायत थी कि अनंतमूर्ति नास्तिक नहीं है । इसी बिनाह पर वामपंथी उन्हें खास तवज्जो नहीं देते थे और प्रकारांतर से उनके लेखन को ध्वंस करने में लगे रहते थे । एक साक्षात्कार में अनंतमूर्ति ने जोर देकर कहा था कि उनके लिए आलोचकों से ज्यादा अर्थ पाठकों का प्यार का है । इस सिलसिले में उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया था कि उर्दू के शायरों के लिए श्रोताओं की एक वाह और इरशाद आलोचकों की टिप्पणियों से ज्यादा अहमियत रखती है । अपनी इसी बेबाक और बेखौफ शैली की वजह से अनंतमूर्ति इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान विवादों से घिर गए थे । अनंतमूर्ति ने कहा था कि अगर नरेन्द्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो देश छोड़ देंगे । इस बयान के बाद उनपर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे । धमकियां मिलने लगी थी, उन्हें सरकार को सुरक्षा मुहैया करवानी पड़ी थी । बाबवजूद इसके अनंतमूर्ति अपने बयान पर कायम रहे थे । चुनाव नतीजों में नरेन्द्र मोदी को अभूतपूर्व सफलता के बाद अनंतमूर्ति ने कहा था कि उन्होंने भावना में बहकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बयान दे दिया था । वो भारत छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते हैं क्योंकि और कहीं वो रह नहीं सकते या रहने का साधन नहीं है । यह थी उनकी साफगोई और सच को स्वीकार करने का साहस । यह गुण हमारे लेखकों में देखने को मिलता नहीं है । भगवा ब्रिगेड चाहे अनंतमूर्ति से लाख खफा हो लेकिन वो इस बात पर हमेशा एतराज जताते थे कि इस तरह के कट्टरपंथियों को भगवा कहना उचित नहीं है । लगभग तीन साल पहले दिल्ली के आईआईसी में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा था कि भगवा बहुत ही खूबसूरत रंग है और इस तरह की हरकत करनेवालों को भगवा के साथ जोड़ना उचित नहीं है । यह उनके व्यक्तित्व का ऐसा पहलू था जो कम उभरकर सामने आ सका । अनंतमूर्ति की राजनीति में गहरी रुचि थी और वो चुनाव भी लड़े और पराजित भी हुए । दरअसल अनंतमूर्ति ने बर्मिंघम युनिवर्सिटी से जो शोध किया था उसका विषय था फिक्शन एंड द राइज ऑफ फासिज्म इन यूरोप इन द थर्टीज । अनंतमूर्ति के पूरे लेखन पर इस विषय की छाया किसी ना किसी रूप में देखी जा सकती है ।
पचास और साठ के दशक में कन्नड साहित्य परंपरा की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था । लगभग उसी दौर में यू आर अनंतमूर्ति ने लिखना शुरू किया और अपने लेखन से उन्होंने साहित्य के परंपरागत लेखन और सामाजिक कुरीतियों पर जमकर प्रहार किए । यह वही दौर था जब अपनी कविताओं के माध्यम से पी लंकेश और अपने नाटकों से माध्यम से गिरीश कर्नाड कन्नड समाज को झकझोर रहे थे । इसी दौर में अनंतमूर्ति ने कन्नड साहित्य में नव्य आंदोलन की शुरुआत की । अनंतमूर्ति के उन्नीस सौ छियासठ में छपे उपन्यास संस्कार ने कन्नड साहित्य और पाठकों को झटका दिया । इस उपन्यास में अनंतमूर्ति ने जातिप्रथा पर जमकर हमला बोला है । अनंतमूर्ति के इस उपन्यास को भारतीय साहित्य में मील के पत्थर की तरह देखा गया । आलोचकों का मानना है कि इस उपन्यास ने कन्नड साहित्य की धारा मोड़ दी । अनंतमूर्ति ने अनेकों उपन्यास और दर्जनों कहानियां लिखी । उन्हें उनके साहित्यक अवदान के लिए 1994 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उन्नीस अठानवे में उनको पद्मभूषण से सम्मानित किया गया ।
दिसंबर उन्नीस सौ बत्तीस में कर्नाटक के शिमोगा में पैदा हुए यू आर अनंतमूर्ति ने मैसूर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम किया फिर बर्मिंघम विश्वविद्यालय से पीएचडी । उन्नीस सौ सत्तर से मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया। अनंतमूर्ति साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और नेशनल बुक ट्रस्ट के मुखिया भी रहे । इसके अलावा अनंतमूर्ति ने पुणे के मशहूर फिल्म और टेलीविजन संस्थान का दायित्व भी संभाला । कर्नाटक सेंट्रल य़ुनिवर्सिटी के चांसलर भी रहे । देशभर में होनेवाले साहित्यक फेस्टिवल में अनंतमूर्ति की मौजूदगी आवश्यक होती थी । वो भाषणों से वहां होनेवाले विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करते थे । अपनी जिंदगी के अस्सी पड़ाव पार कर लेने के बावजूद वो लगातार लेखन में जुटे थे और अखबारों में नियमित स्तंभ लिख रहे थे । इन दिनों स्वराज और हिंदुत्व नाम की किताब पर काम कर रहे थे । इस किताब के शीर्षक से साफ है कि उन्होंने स्वराज को हिंदुत्व के नजरिए से देखने की कोशिश की होगी । ब्राउन विश्वविद्यालय में अंतराष्ट्रीय अध्ययन और समाज विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने सही कहा कि यू आर अनंतमूर्ति ज्वाजल्यमान बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनकी राजनीति में गहरी रुचि थी और हमेशा दूसरों की बातें सुनने को तैयार रहते थे । ऐसे शख्स का जाना ना केवल साहित्य समाज की क्षति है बल्कि समाज में भी एक रिक्ति पैदा करती है । सलाम अनंतमूर्ति ( वो हमेशा जी और सर कहे जाने के खिलाफ रहते थे ) 

अलविदा अनंतमूर्ति

कन्नड़ के मशहूर साहित्यकार यू आर अनंतमूर्ति का निधन हो गया । अपने प्रशंसकों और साथियों के बीच यूआरए के नाम से जाने जानेवाले यू आर अनंतमूर्ति कन्नड़ के सबसे बड़े साहित्यकारों में से एक थे । उन्होंने पचास और साठ के दशक में कन्नड़ साहित्य को परंपरा की बेड़ियों से मुक्त कर नव्य आंदोलन की शुरुआत की थी । उस दौर में कन्नड साहित्य में गिरीश कर्नाड भी लोकप्रिय हो रहे थे । इस आंदोलन के अगुवा होने की वजह से यू आर अनंतमूर्ति ने उस वक्त तक चली आ रही कन्नड़ लेखन की परंपरा को ध्वस्त कर दिया। बर्मिंघम विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि लेकर भारत लौटे यू आर अनंतमूर्ति कर्नाटक के ही एक कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यपक हो गए । अनंतमूर्ति के शोध प्रबंध का विषय था उन्नीस सौ तीस के दशक की राजनीति और फासीवाद । यह विषय उनके पूरे लेखन में भी लगातार परिलक्षित होता रहा है । इस साल लोकसभा चुनाव के दौरान अनंतमूर्ति के बयान ने सियासी भूचाल खड़ा कर दिया था । अनंतमूर्ति ने कहा था कि अगर नरेन्द्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो भारत छोड़ देंगे । इस बयान के बाद उनपर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे । धमकियां मिलने लगी थी । बाबवजूद इसके अनंतमूर्ति अपने बयान पर कायम रहे । चुनाव नतीजों में नरेन्द्र मोदी को अभूतपूर्व सफलता के बाद अनंतमूर्ति ने कहा था कि उन्होंने भावना में बहकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बयान दे दिया था । वो भारत छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते हैं क्योंकि और कहीं वो रह नहीं सकते या रहने का साधन नहीं है । यू आर अनंतमूर्ति की राजनीति में गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने नामवर सिंह की तरह चुनाव भी लड़ा था और उन्हीं की तरह पराजित भी हो गए थे । अनंतमूर्ति खांटी गांधीवादी समाजवादी थे और यह उनके लेखन में लगातार दिखता रहता था । उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से सामाजिक बुराइयों पर जमकर प्रहार किया था । समाज में ब्राह्मणों के वर्चस्व के खिलाफ उन्होंने जमकर लिखा । नतीजा यह हुआ कि उन्हें ब्राह्मणों की नाराजगी और अपने समाज का तिरस्कार झेलना पड़ा ।

1932 में कर्नाटक के शिमोगा जिले में जन्मे अनंतमूर्ति ने अंग्रेजी में एमए किया था । उन्नीस सौ छियासठ में उनका उपन्यास संस्कार प्रकाशित हुआ जो काफी मशहूर हुआ । इस उपन्यास पर फिल्म भी बनी । अनंतमूर्ति के कई उपन्यासों और कहानियों पर फिल्म बन चुकी है । 1994 में उनको भारत का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था । चार साल बाद उनको भारत सरकार ने 1998 में पद्मभूषण से नवाजा था । अनंतमूर्ति महात्मा गांधी विश्वविद्यालय केरल के चासंलर भी रहे । 2013 के मैन बुकर प्राइज के लिए उनका नामांकन भी हुआ था । इसके अलावा यू आर अनंतमूर्ति नेशनल बुक ट्रस्ट के चैयरमैन, फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रहे । अनंतमूर्ति विदेश के कई विश्वविद्लायों में विजिटिंग प्रोफेसर भी थे । इसके अलावा देश-विदेश में होनेवाले साहित्यक मेलों और लिटरेचर फेस्टिवल में अनंतमूर्ति अपने बेबाक बयानों की वजह से काफी लोकप्रिय थे । अनंतमूर्ति के निधन से हमने एक ऐसे शख्स को खो दिया जिनकी देश को प्रभावित करनेवाले मसलों पर राय होती थी और बेबाकी से उसको सामने रखते थे । एक लोकतांत्रिक देश के लिए इस तरह के शख्स का जाना आवाम की आवाज को कमजोर कर जाने जैसा है । 

Wednesday, August 20, 2014

भारतीय लोकतंत्र की परख

हमारे देश को आजाद हुए तकरीबन सड़सठ साल हो गए हैं और देश ने आज से करीब चौंसठ साल पहले अपने को गणतंत्र घोषित किया था । अगर राजनीतिशास्त्र के लिहाज से किसी भी देश के लोकतंत्र का आंकलन करें तो इसके लिए छह सात दशक की यात्रा बहुत लंबी नहीं मानी जाती है । आजादी के सडसठ साल बाद ही भारतीय लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी हो गई हैं । अगर सिर्फ उन्नीस सौ पचहत्तर के इमरजेंसी के दौर को छोड़ दें तो उसके अलावा हमारे लोकतंत्र पर कोई गंभीर संकट खड़ा नहीं हुआ । इंदिरा गांधी के इमरजेंसी को भी देश की जनता ने महज दो ढाई साल ही में उखाड़ फेंका । इमरेंजसी के खिलाफ देशभर में जनता के उठ खड़े होने का जो इतिहास है वो भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का भी सबूत है । देश की जनता अपने नागरिक अधिकारों को लेकर बेहद सतर्क और जागरूक है और इसपर किसी भी तरह की पाबंदी या कटौती उसे किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है । भारतीय लोकतंत्र और उसकी सफलता को लेकर राजनीतिशास्त्र के विदेशी विद्वान और विश्लेषक हमेशा से आशंका ही जताते रहे हैं । वो अमेरिका, इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के आधार और कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र को कसते और परखते रहे हैं । उन्हें लंबे समय से भारतीय लोकतंत्र की सफलता में संदेह रहा है । भारत की विविधता उनको लोकतंत्र की सफलता में सबसे बड़ी बाधा लगती रही है । जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर बंटा भारतीय समाज लोकतंत्र के नाम पर एकजुट रहेगा, इसमें पश्चिमी विद्वानों को संदेह रहता है । ब्राउन विश्वविद्यालय में अंतराष्ट्रीय अध्ययन और समाज विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की नई किताब बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज़ इंप्रोबेबल डेमोक्रैसी- आजादी के बाद से लेकर अबतक के कालखंड को परखती है । प्रोफेसर वार्ष्णेय ने अपनी इस किताब बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज़ इंप्रोबेबल डेमोक्रैसी में आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र को लेकर चले विश्वव्यापी मंथन को नए सिरे और नजरिए से देखने की कोशिश की है । अपनी स्थापनाओं में प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय कई पश्चिमी राजनीति विज्ञानियों की स्थापनाओं और परिभाषाओं को दिलचस्प तर्कों के साथ निगेट करते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय का नाम भारतीय राजनीति में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए नया नहीं है । उनके स्तंभ भारतीय अखबारों में नियमित अंतराल पर छपते रहते हैं । वो भारतीय राजनीति के बदलते स्वरूप का बारीकी से अध्ययन करते हुए उनपर टिप्पणी करते रहते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की यह किताब उसी तरह की टिप्पणियों का संग्रह है ।आशुतोष वार्ष्णेय के ये लेख पिछले बीस सालों में लिखे गए हैं जो लोकतंत्र के अलावा लोकतंत्र में धर्म की भूमिका, लोकतंत्र में जाति और भाषा की भूमिका के अलावा गरीबी और आर्थिक उन्नति को लोकतंत्र से जोड़कर नए सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं । प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की यह किताब हलांकि लोकसभा चुनाव के पहले प्रकाशित हो गई थी लेकिन यह कहा जा सकता है कि इस किताब का प्रकाशन और उसका वितरण उपयुक्त वक्त पर हो रहा है । इस वक्त हमारे देश में लोकतंत्र और आजादी को लेकर बहस की शुरुआत हो रही है । इस तरह की बहस की शुरुआत तो लोकसभा चुनाव के पहले हो गई थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में जबरदस्त सफलता के बाद यह बहस तेज होने लगी है । देश और लोकतंत्र को लेकर अलग अलग मतों और विचारधारा के लेखकों और विचारकों की अलग अलग राय है । भारतीय जनता पार्टी पर धर्म-आधारित राजनीति करने और लोगों की भावनाएं भड़काकर वोट लेने के आरोप लगते रहे हैं । धर्म और राजनीति के घालमेल के भी, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में धर्म के अलावा विकास के मुद्दे पर जिस तरह से रिवर्स पोलराइजेशन हुआ उसने तमाम सिद्धांतकारों को पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया । फासीवाद के आसन्न खतरे की भी बहुत बातें होती रही हैं, हो भी रही हैं । ऐसे में प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय की ये किताब लोकतंत्र की गुणवत्ता और लोकतंत्र के अस्तित्व दोनों को अपने तर्कों की कसौटी पर परखती है ।
इस किताब के शुरुआती लेख में आशुतोष वार्ष्णेय अपने तर्कों के साथ यह बताते हैं कि भारतीय लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था नहीं है बल्कि यह लोगों के लिए यह एक जीवनशैली है और देश की राजनीतिक संस्कृति में बहुत गहरे तक अपनी पैठ बना चुकी है । वार्ष्णेय इस बात पर भी जोर देते हैं कि देश की आजादी के वक्त उन्नीस सौ सैंतालीस में कांग्रेस ने अंग्रेजों से जो सत्ता व्यवस्था हासिल की उसने भी हमारे देश में लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने में एक अहम भूमिका निभाई । अंग्रेजों के वक्त जो संघीय ढांचा था उसको अपनाकर भारत ने अपने लोकतंत्र को मजबूत किया । आशुतोष वार्ष्णेय का मानना है कि ब्रिटिश व्यवस्था का अपनाने से कांग्रेस को लोकतंत्र को लेकर एक समझ विकसित हुई जिसे जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में मजबूती मिली, वहीं उनका यह भी मानना है कि मुस्लिम लीग को ब्रिटिश व्यवस्था की विरासत से कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि उनके नेतृत्व में इस व्यवस्था को मजबूत करने की ना तो चाहत थी और ना ही इच्छाश्कति और विजन । हलांकि इस किताब में आशुतोष वार्ष्णेय जवाहरलाल नेहरू के प्रति नरम दिखते हैं । एक जगह वो सवाल उछालते हैं कि इस बात की कल्पना की जा सकती है कि अगर उन्नीस सौ चालीस और पचास के दशक में सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस का दबदबा रहता तो किस प्रकार की व्यवस्था होती । सुभाषचंद्र बोस की भूमिका और उनकी बातों को अगर हम एक मिनट के लिए ओझल भी कर दें तो यह मानना कठिन है कि लेखक को पचास के दशक में सरदार पटेल की भूमिका के बारे में पता नहीं है । पचास के दशक में भारतीय लोकतंत्र के बरक्श सरदार पटेल की भूमिका एक निर्माणकर्ता की थी जिसने हमारे लोकतंत्रीय वयवस्था को ना सिर्फ दिशा दी बल्कि उसको मजबूत करने में भी अहम भूमिका निभाई । जवाहरलाल नेहरू को लेकर आशुतोष वार्ष्णेय की नरनमी कई बार साफ तौर पर दिखती है । इसका एक और उदाहरण है जब वो इंदिरा गांधी की धर्मनिरपेक्षता को जवाहर लाल नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से तुलना करते हैं । इंदिरा गांधी की पंजाब के चरमपंथी भिंडरावाले से निपटने की रणनीति और जवाहरलाल नेहरू की मास्टर तारा सिंह से निपटने की रणनीति का तुलनात्मक अध्ययन पेश करते हुए इंदिरा की अड़ियल धर्मिनरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं ।

विविधताओं भरे इस देश में अगर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को अहमियत मिलती है तो देश का लोकतंत्र मजबूत होता है । आशुतोष वार्ष्णेय ने बेहद दिलचस्प व्याख्या की है । उनके मुताबिक देश में जातियों की बहुतायत इस देश को जोड़े रखने में अहमियत रखती है । उनके मुताबिक एक ही जाति के लोगों के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नेता हैं । उदाहरण के तौर पर उन्होंने यादव जाति का अध्ययन किया है । उत्तर प्रदेश में इस जाति की रहनुमाई मुलायम सिंह यादव के पास है तो बिहार में इस जाति के अगुवा लालू प्रसाद यादव हैं । इन दोनों नेताओं की स्वीकार्यता अपने प्रदेश से बाहर दूसरे प्रदेशों में नहीं है । आशुतोष वार्ष्णेय का तर्क है कि पिछड़ी जातियों के अलग अलग तरह के नेतृत्व की वजह से ये जातियां पूरे देश में एकजुट नहीं हो पाती हैं, लिहाजा लोकतंत्र के लिए उनके खतरा बनने की संभावना कम रहती है । अपनी इस किताब में आशुतोष वार्ष्णेय धर्म की राजनीति को चिंता के तौर पर देखते हैं । अस्सी के दशक में पंजाब और कश्मीर के अलावा शाह बानो केस के दौरान संविधान में बदलाव को लेकर लेखक चिंतित दिखाई देते हैं । अस्सी के दशक में ही धर्म के आधार पर जारी गतिविधियों की परणिति मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर उठे जनज्वार में होती है । वो दौर धर्म की राजनीति का उत्स था । उस दौर में चुनिंदा धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ देशभर एक अजीब किस्म की प्रतिक्रिया देखने को मिली और जिसका नतीजा ध्रुवीकरण में हुआ । यहीं से भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को लोकप्रियता मिलनी शुरु हुई । नब्बे के दशक के आखिरी वर्षों में जब देश में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी तो विचारकों ने इसे धर्म आधारित राजनीति बताकर उसपर चिंता जताना शुरू कर दिया था । उसके बाद के दिनों में एक बार फिर से कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार ने देश पर शासन किया जो इतिहास है । भारत में धर्म पर आधारित राजनीति को लेकर चिंता जताई जा सकती है, जताऩी भी चाहिए लेकिन भारतीय लोकतंत्र अब इतना मजबूत हो चुका है कि इस तरह की राजनीति करनेवालों को भी अपना रास्ता बदलना पड़ रहा है । उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता है कि धर्म के रास्ते पर चलकर राजनीति में फौरी तौर पर तो सफलता प्राप्त की जा सकती है लेकिन स्थायी राजनीति का रास्ता कहीं और से निकलता है । इस किताब के दूसरे खंड- धर्म, भाषा और राजनीति में आशुतोष वार्ष्णेय ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है । इसमें हिंदू राष्ट्रवाद के उभार के साथ साथ जाति आधारित राजनीति को भी व्याख्यायित किया गया है । पहले खंड में आजादी के बाद से लेकर अबतक के लोकतंत्र को एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में परखते हुए विदेशी विद्वानों की व्याख्याओं के बरक्श अपने सिद्धांतों को लेखक ने सामने रखा है । इस किताब का तीसरा अध्याय आर्थिक विकास और लोकतंत्र पर है । इस अध्याय में गरीबी और लोकतंत्र में विस्तार से इस बात पर चर्चा की गई है कि गरीब लोकतंत्र के सामंने कैसी दिक्कतें हैं । अंत में आशुतोष वार्ष्णेय ने लोकतंत्र और भारतीय बाजार की चर्चा की है । आशुतोष वार्ष्णेय की इस किताब को अगर समग्रता में देखें तो भारतीय राजनीति पर पैनी और गहरी नजर रखनेवालों के लिए तो पठनीय सामग्री मुहैया करवाती ही है लेकिन नए पाठकों को भारतीय लोकतंत्र और इसके साल दर साल मजबूत होने की दास्तां भी कहती चलती है ।  

Monday, August 18, 2014

छोटी पर अहम पहल

हिंदी के साहित्याकारों में आमतौर पर नई तकनीक के इस्तेमाल में एक खास किस्म की उदासीनता देखने को मिलती है । फेसबुक के अस्तित्व में आने के कई सालों बाद अब हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार इस मंच पर आने शुरू हुए हैं । शुरुआत में तो फेसबुक को लेकर हिंदी के साहित्यकार मजाक उडाया करते थे । उनके तर्क होते थे कि जब साथी लेखक आपस में फोन पर बात नहीं कर सकते तो आभासी दुनिया में क्या खाक कर पाएंगे । बदलते वक्त के साथ और युवा पीढ़ी के साथ चलने के लिए कई वरिष्ठ साहित्यकार इस आभासी मंच पर आए । अब भी कई वरिष्ठ साहित्यकार यहां नहीं है । कई वरिष्ठ साहित्यकारों का तो हाल और भी बुरा है वो अब भी हाथ से लिखकर अखबारों और पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजते हैं । फेसबुक ने धीरे-धीरे कॉफी हाउस की जगह ले ली है और यहां गंभीर विमर्श होने लगे हैं । फेसबुक पर अराजकता भी है लेकिन हमें इसके सकारात्मक पहलू को देखना चाहिए । फेसबुक के अलावा हिंदी के साहित्यकार तकनीक के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं । ज्यादातर लेखक अब भी ट्विटर और गूगल प्लस की तकनीक और उसकी पहुंच से अनभिज्ञ हैं । इसका नुकसान साहित्य को हो रहा है । किताबों की दुकानों के कम होते जाने से नई नई कृतियों के बारे में लेखक अपने पाठकों को सूचित नहीं कर पा रहे हैं । इन दिनों एक नई पहल शुरू हुई है । स्मार्टफोन की बढ़ती लोकप्रियता और इंटरनेट के फैलाव ने लेखकों को एक नया मंच दिया है । यह मंच है व्हाट्स ऐप । इसपर कई साहित्यक ग्रुप सक्रिय हैं । व्हाट्स ऐप पर मौजूद दो समूहों से मेरा परिचय है । एक का नाम है कथाकार और दूसरा है रचनाकार । और भी ऐसे समूह व्हाट्स ऐप पर चल रहे होंगे । कथाकार समूह को इंदौर के कहानीकार सत्य नारायण पटेल चलाते हैं । इस समूह के हर सदस्य की जिम्मेदारी है कि वो किसी खास दिन एक रचना पोस्ट करें और अन्य साथी उसपर अपनी राय दें और फिर बहस की शुरुआत हो । रचनाकार समूह को दिल्ली की कथाकार और पत्रकार गीताश्री चलाती हैं । रचनाकार समूह में लंदन और जापान के साहित्यकार जुडे हैं । कथाकार और रचनाकार समूह में बुनियादी फर्क यह है कि कथाकार जहां सिर्फ कृतियों पर चर्चा को प्रोत्साहित करता है वहीं रचनाकार समूह में कहानी कविता के अलावा कला, संस्कृति और संगीत पर भी बात होती है । इस ग्रुप में बहुत ही सार्थक चर्चा होती है । हिंदी में क्या नया लिखा पढ़ा जा रहा है वह साझा किया जाता है । साथी रचनाकारों की कृतियों पर बातचीत होती है । व्हाट्स ऐप पर बने समूह की एक खूबी यह है कि यहां फेसबुक वाली अराजकता नहीं है । मसेजिंग सर्विस पर चलनेवाले इन समूहों के एडमिनिस्ट्रेटर ही सदस्यों को जोड़ते हैं और वो चाहें तो सदस्यों को हटा सकते हैं । सदस्यों के पास भी विकल्प होता है कि वो जब चाहें समूह से अपने आप को अलग कर लें ।

हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों के लिए यह एक बिल्कुल नई घटना है और तकनीक का साहित्य के फैलाव में इस्तेमाल करने की एक छोटी सी पहल है । मेरा मानना है कि साहित्य के विस्तार के लिए तकनीक क जमकर इस्तेमाल करना वक्त की मांग है । अंग्रेजी के तमाम लेखक अपनी रचनाओं का इंटरनेट के माध्यम से जमकर प्रचार करते हैं । इससे उन्हें फायदा भी होता है । इसका बेहतरीन उदाहरण ई एल जेम्स हैं । उनकी फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी पिछले छियासठ हफ्ते से न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर की सूची में है । रचनाकार के माध्यम से गीताश्री और कथाकार के माध्यम से सत्यनाराय़ण पटेल ने अच्छी शुरुआत की है लेकिन अभी काफी लंबा रास्ता तय करना शेष है ।  

Sunday, August 17, 2014

बाजार पर छाते लेखक

अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट एनफ के विमोचन के मौके पर पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने एलान किया कि उनकी किताब की करीब पचास हजार प्रतियां बिक चुकी हैं । किताब के विमोचन के पहले पचास हजार प्रतियां बिक जाना मामूली घटना नहीं है । नटवर सिंह ने इसके लिए इशारों इशारों में सोनिया गांधी के सर सेहरा बांधा । दरअसल नटवर सिंह की किताब के रिलीज होने के तकरीबन दस दिनों पहले ये खबर आई थी कि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी नटवर सिंह से मिलने उनके घर गईं थी । इस मुलाकात में प्रियंका ने छपने वाली किताब के बारे में दरियाफ्त की थी । ये खबर लीक इस तरह से की गई कि सोनिया और प्रियंका किताब के कुछ अंशों को रोकने का आग्रह करने के लिए नटवर सिंह के पास गईं थी । ये खबर जंगल में आग की तरह फैली और पूरे देश में नटवर सिंह की आनेवाली किताब को लेकर एक उत्सुकता का वातावरण बना । इसके बाद नटवर सिंह की किताब के कुछ चुनिंदा अंश लीक किए गए जिसमें ये बताया गया था कि सोनिया गांधी ने दो हजार चार में प्रधानमंत्री का पद राहुल गांधी के दबाव में छोड़ा था । किताब रिलीज होने के पहले ही इस बात को लेकर देशभर में चर्चा शुरू हो गई । लोकसभा चुनाव में करारी हार के सदमे से उबर रही कांग्रेस के लिए ये खुलासा बड़े झटके की तरह था । सोनिया ने जब दो हजार चार में प्रधानमंत्री पद ठुकराया था तब उन्होंने अपने भाषण में इसे अंतरात्मा की आवाज करार दिया था । इस खबर के सामने आते ही कांग्रेसियों में नंबर बढ़ाने की होड़ लग गई और वो सोनिया के समर्थन में बयानबाजी करने लगे । नटवर की किताब को लेकर बने उत्सुकता के माहौल को कांग्रेसियों की बयानबाजी ने और बढ़ा दिया । एक खुलासा और हुआ कि सोनिया की मर्जी के बगैर सरकार में पत्ता भी नहीं हिलता था । प्रकरांतर से ये बात फैली कि सोनिया सरकारी फाइलें देखती थी । इस खुलासे को मजबूती मिली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार की किताब में हुए खुलासे से । संजय बारू की किताब में भी इस तरह की ही बात थी कि यूपीए सरकार के अहम फैसले सोनिया की मंजूरी के बाद होते थे । हलांकि यह बात दीगर है कि सोनिया गांधी ने अपने इंटरव्यू में कह चुकी थीं कि उनके बच्चे उनके प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ थे । इस बात का खंडन भी आ चुका था कि मनमोहन सिंह सरकार के फैसलों में सोनिया का दखल नहीं होता था । लेकिन किताब की बिक्री बढ़ाने के लिए इतना मसाला काफी था । नतीजा यह हुआ कि किताब के औपचारिक रूप से जारी होने के पहले ही उसकी पचास हजार प्रतिया बिक गई । इस बिक्री को बढ़ाने में ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स ने भी मदद की । प्री लांच के तहत पाठकों को छूट के साथ औपचारिक रिलीज के पहले किताब देने की रणनीति काम आई । ऑनलाइऩ बिक्री के आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि पचास फीसदी से ज्यादा बिक्री इन साइट्स के माध्यम से हुई ।
अब एक दूसरी साहित्यक घटना पर नजर डालें । अंग्रेजी में उपन्यास लिखनेवाले चेतन भगत के नए उपन्यास का एलान एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक के पहले पन्ने पर छपे पूरे पेज के विज्ञापन से हुआ । विज्ञापन की भाषा थी – द लेटेस्ट ब्लॉकबस्टर फ्राम चेतन भगत इज हाफ गर्ल फ्रेंड, अ लव स्टोरी । पूरे पेज के इस विज्ञापन और उसकी भाषा को देखने के बाद पहली नजर में किसी फिल्म का प्रचार लगा था । लेकिन यह विज्ञापन था चेतन भगत के नए उपन्यास का । भारत के साहित्य जगत में इस तरह का ये पहला और अनूठा प्रयोग है । चेतन भगत मूलत: अंग्रेजी में लिखते हैं । गंभीर साहित्य लिखनेवाले लेखक और आलोचक चेतन भगत के उपन्यासों हल्का और चालू किस्म का मानते हैं । हिंदी के साहित्यकार चेतन भगत की तुलना मेरठ से लुगदी पर छपने वाले उपन्यासकारों से करते हैं । लेकिन पाठकों के बीच चेतन भगत की लोकप्रियता जबरदस्त है । चेतन भगत अपनी और अपनी किताबों की मार्केटिंग करने का नुस्खा जानते हैं । बाजार का फायदा उठाना जानते हैं । उनके उपन्यासों पर आमिर खान अभिनीत थ्री इडियट्स के अलावा टू स्टेट्स समेत कई सुपर हिट फिल्में भी बन चुकी हैं । बाजार का फायदा उठाने और पाठकों को झटका देने की रणनीति के तहत उपन्यास छपने के पहले ही करीब पचास लाख रुपए उसके विज्ञापन पर खर्च कर दिया गया । इसकी कल्पना भारतीय साहित्य जगत में नहीं की गई थी । यह आक्रामक मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा है । जिसमें पाठकों को पहले चौंकाओ और फिर उसे किताब खरीदने के लिए बाध्य कर दो । छपने के पहले उपन्यास की साढे सात लाख प्रतियों का ऑर्डर देना और उसे प्रचारित करना उसी आक्रामक रणनीति का हिस्सा है । किताब की अग्रिम बुकिंग शुरू हो चुकी है । पहले दो महीने किताब सिर्फ ऑनलाइन बेवसाइट पर ही मिलेगी । एक खास बेवसाइट के साथ टाईअप किया गया है जो कि किताब के प्रचार में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही है । उपन्यास के विज्ञापन में चेतन की किताब के अलावा बेवसाइट का पता और प्रकाशक का नाम भी छपा है । भारतीय किताब बाजार के लिए ये एक घटना है । भारत में किताबों का इतना बड़ा बाजार है, इसकी कल्पना नहीं की गई थी, लेकिन ऑनलाइऩ के कारोबार के फैलाव ने इसको यथार्थ बना दिया । भारत की जनसंख्या और साक्षरता दर में बढ़ोतरी के बाद पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है । इस इजाफे को भुनाने में ऑनलाइन कंपनियां आगे हैं । भारत में जैसे जैसे इंटरनेट का घनत्व बढ़ता जाएगा और तकनीक का विकास होगा वैसे वैसे बाजार का फैलाव होगा ।
अब जरा इन दोनों घटनाओं के बरक्श हिंदी प्रकाशन जगत पर नजर डालते हैं तो एक ऐसा सन्नाटा दिखाई देता है जिसके निकट भविष्य में टूटने की गुंजाइश नजर नहीं आती है । हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक तकनीक का अपने हक में इस्तेमाल करने से हिचकिचा रहे हैं । हिंदी पट्टी में साहित्य के पाठक हैं यह बात हर छोटे बड़े शहरों में लगने वाले पुस्तक मेले से बार बार साबित होती है । दिल्ली और अन्य हिंदी भाषी शहरों में किताबो की दुकानें बंद हो गई हैं । पाठकों के  लिए किताब खरीदना एक श्रमसाध्य कार्य है । इस कमी को ऑनलाइन बुक स्टोर से खत्म नहीं तो कम करने की कोशिश की है । हिंदी के हमारे प्रकाशक अबतक इन ऑनलाइन बुक शॉप तक पहुंच नहीं पाए हैं । हिंदी में बड़ी संख्या में किताबें छपती हैं लेकिन बहुत कम संख्या में ये किताबें ऑनलाइन बुकस्टोर तक पहुंच पाती हैं । इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों को पहल करनी पड़ेगी । उन्हें इन साइट्स के साथ रणनीतिक तौर पर समझौते करने होंगे । एक बार हिंदी के पाठकों को यह पता लग गया कि फलां किताब ऑनलाइऩ है तो फिर उसकी बिक्री भी होगी । दूसरी बड़ी बात है कि हिंदी के लेखकों को भी तकनीक को गले लगाना होगा उससे दूर नहीं भागना होगा । पिछले विश्व पुस्तक मेले में एक संगोष्ठी में हिंदी के लेखकों के तकनीक से दूर रहने पर मैने सवाल खड़े किए थे तो गोष्ठी में शामिल एक लेखक को यह बात नागवार गुजरी थी । अब हिंदी के लेखकों में फेसबुक को लेकर एक उत्साह जगा है लेकिन हमारे वरिष्ठ लेखक अब भी फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस आदि से दूर हैं । कई उत्साही युवा लेखक अवश्य तकनीक का बेहतर इस्तेमाल कर पाठकों तक पहुंच रहे हैं । अब जरूरत इस बात की है कि पाठकों तक रचनाएं कैसे पहुंचाई जाएं । नटवर सिंह और चेतन भगत की किताब की सफलता से यह बात साबित हो गई है कि भारत में पाठक हैं । अंग्रेजी पढ़नेवालों की तुलना में हिंदी के पाठक कहीं ज्यादा हैं । अगर नटवर सिंह की किताब पचास हजार बिक सकती है तो रवीन्द्र कालिया, उदय प्रकाश, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुदगल, मृदुला गर्ग जैसी हमारे वरिष्ठ लेखकों की किताबें इतनी कम संख्या में बिकेंगी, इसका कोई आधार नहीं है । कम बिक्री का सिर्फ और सिर्फ एक आधार समझ में आता है वह है कृतियों की अनुपलब्धता । हिंदी साहित्य को लेकर मीडिया में भी एक उपेक्षा भाव लगातार विकसित होता जा रहा है । पहले हिंदी की नई कृतियों और कृतिकारों के बारे में अखबारों में छपा करता था लेकिन बाजारवाद की आड़ में अखबारों में साहित्य का स्पेस कम हुआ । टेलीविजन चैनलों पर तो साहित्य के लिए जगह ही नहीं बची । उधर अंग्रेजी में इसके उलट है । चेतन भगत और नटवर सिंह की किताबें छपने के पहले ही मीडिया ने उनको हिट करवा दिया । हिंदी साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए एक सामूहिक प्रयास की जरूरत है जिसमें प्रकाशकों को पहल करनी होगी और लेखकों और मीडिया को उसमें सहयोग करना होगा । अगर ऐसा होता है तो हिंदी में किताबों के संस्करण तीन सौ से बढ़कर हजारों में पहुंच सकते हैं । 

Tuesday, August 12, 2014

कॉलेजियम से बेहतर सिस्टम जेएसी?

हमारे देश में तकरीबन सभी पदों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के पास है । अदने से पद से लेकर राष्ट्रपति के पद तक का, चाहे वो चुनाव आयुक्त हों, मुख्य सतर्कता आयुक्त हों, सीबीआई या आईबी के निदेशक हों या फिर अन्य दूसरे अहम पद । राष्ट्रपति का चुनाव भले ही सांसद और विधायक करते हों लेकिन उनकी उम्मीदवारी पर मुहर तो राजनीतिक दल का मुखिया ही करता है । प्रतिभा पाटिल को तो सोनिया गांधी ने ही नामित किया था और वो भारत की राष्ट्रपति बनीं भी । परंतु एक महकमा ऐसा है जहां कि कार्यपालिका की नहीं चलती । वह है उच्च न्यायपालिका । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों की एक कमेटी के पास है जिसे कोलेजियम कहते हैं । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस समिति के अध्यक्ष होते हैं और सुप्रीम कोर्ट के चार अन्य वरिष्ठ जज इसके सदस्य होते हैं । कोलेजियम की यह व्यवस्था तकरीबन दो दशक से हमारे देश में लागू है । कोलेजियम बनाने के पीछे की भावना और उद्देश्य यह था कि न्यायपालिका को कार्यपालिका और राजनेताओं के दखल से मुक्त रखा जा सके । कमोबेश कोलेजियन सिस्टम जजों की नियुक्ति में नेताओं की दखलअंदाजी रोकने में काफी हद तक कामयाब रहा । दरअसल कोलेजियम सिस्टम देश की सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद बना था । उन्नीस सौ तिरानवे में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रेकॉर्डस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217(1) की व्याख्या की थी । संविधान की इन धाराओं में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख है । सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा की अगुवाई वाली पीठ के उन्नीस सौ तिरानवे के फैसले की व्याख्या से साफ है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्त में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को तरजीह मिल सके । उस वक्त कोलेजियम सिस्टम के समर्थन में एक तर्क यह भी दिया गया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखनेवालों के बारे में बेहतर जानकारी होती है , लिहाजा नियुक्ति में उनकी राय को अहमियत मिलनी चाहिए । सबसे अहम तर्क यह दिया गया था कि इससे न्यायपालिका को राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त रखा जा सके जो कि संविधान की मूल आत्मा में निहित है । बहुत संभव है कि कोलेजियम सिस्टम की वकालत करनेवालों के जेहन में इंदिरा गांधी का मशहूर कथन- वी वांट अ कमिटेड ज्यूडिशियरी- रहा होगा । अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी की इस इच्छा का उनके राजनीतिक चेलों ने जमकर सम्मान किया था । उस वक्त के कानून मंत्री को लगातार इंदिरा गांधी की बात दोहराते रहते थे और जानकारों का कहना है कि उसी हिसाब से काम भी करते थे । 
पर इससे यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि कोलेजियम सिस्टम लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं थी । कई ऐसे उदाहरण हैं जब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदंडों की रक्षा की । सबसे बड़ा उदाहरण तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का है जिन्होंने बारह जून उन्नीस सौ पचहत्तर को अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द करते हुए अगले छह वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जस्टिस कृष्णाअय्यर ने जस्टिस जगमोहन लाल के फैसले पर रोक लगा दी लेकिन उन्होंने भी इंदिरा गांधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। ये दोनों फैसले देश में इमरजेंसी का आधार बने । उस वक्त इंदिरा गांधी के वकील रहे वी एन खरे बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने थे । अब अगर हम इतिहास से निकलकर वर्तमान में आएं तो यूपीए के दूसरे दौर के शासनकाल में तमाम घोटालों पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये से सरकार परेशान रही । यहां भी अदालत का रुख यूपीए सरकार की रुखसती की कई वजहों में से एक वजह बनी । कहना ना होगा कि आजादी के बाद से हमारे देश की न्यायपालिका कमोबेश कार्यपालिका और विधायिका के दबाव से आजाद रही है और न्याय के उच्चतम मानदंडों की स्थापना की है । लेकिन कोलेजियम सिस्टम के बाद भी जजों के चुनाव में गलतियां होती रही हैं । समय समय पर जजों के उपर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगते रहे हैं । कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोप लगे थे, कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर भी इस तरह के आरोप लगे थे । दोनों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली थी । आजाद भारत के न्यायिक इतिहास में ये तीन ही मौके हैं जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी । पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली , तब कांग्रेस के सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद महाभियोग का प्रस्ताव गिर गया था । इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लगातार एक के बाद एक खुलासा कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को देश के मुख्य न्यायाधीश रोक नहीं पाए, हलांकि काटजू जिन हालातों का बयान कर रहे हैं उनमें नाटकीयता का भी पुट भी है और उनके खुलासे की टाइमिंग को लेकर भी वो सवालों के घेरे में हैं । पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज अपने कई टीवी इंटरव्यू में जस्टिस काटजू की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की बावत उस वक्त के चीफ जस्टिस रहे वाई के सब्बरवाल से बात करने को कहकर कुछ इशारा करते रहे हैं । दरअसल देश के माननीय न्यायाधीशों पर इस तरह के आरोपों से देश की जनता का न्यायपालिका पर से विश्वास दरकने लगा है भारत के लोगों की अपने देश की न्यायपालिका की ईमानदारी और साख पर जबरदस्त आस्था है यह आस्था भारतीय लोकतंत्र को मजबूती भी प्रदान करती है जजों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के खुलासे से जन की इस आस्था पर चोट पहुंचती हैजो अंतत: जनतंत्र पर ही चोट पहुंचाती है इसलिए न्यायाधीशों पर किसी भी तरह के आरोप लगाने से पहले हर वर्ग के लोगों को ठोक बजाकर तथ्यों को पुख्ता कर लेना चाहिए।
इसी पृष्ठभूमि में देश के कई विद्वान वकील और पूर्व न्यायाधीशों ने कोलेजियम सिस्टम को फेल करार दे दिया है । लिहाजा सरकार को एक बार फिर से न्यायिक सुधार बिल की याद आई और इस दिशा में प्रयत्न शुरू हो गया है । एनडीए सरकार ने जो फॉर्मूला निकाला है उसके हिसाब से अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति छह सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगी । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्टके ही दो वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और दो मशहूर न्यायविद इस कमीशन के सदस्य होंगे । नए बिल के मुताबिक कमीशन में दो न्यायविदों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की तीन सदस्यीय कमेटी करेगी । बिल के मुताबिक अगर छह सदस्यीय कमीशन के दो सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उनका नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा । नियुक्ति के लिए कम से कम पांच सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है । अब पेंच यहीं से शुरू होता है । संविधान कहता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को वरीयता (प्राइमेसी) होगी । कल्पना कीजिए कि किसी भी जज की नियुक्ति के वक्त पांच सदस्य सहमत हैं और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश उससे असहमत हैं तो क्या होगा । क्या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को दर किनार करते हुए पांच सदस्यों की राय पर जज की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को संस्तुति कर दी जाएगी । अगर ऐसा होता है तो राष्ट्रपति के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा । राष्ट्रपति इस मसले को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत फिर से सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं । वहां जाकर एकबार फिर से मामला फंस सकता है । अब इसका दूसरा पहलू देखिए । भले ही जजों की नियुक्ति के लिए सरकार कमीशन बनाने जा रही है लेकिन उसके नियमों के मुताबिक न्यायाधीशों की मर्जी के मुताबिक कुछ हो नहीं सकता । कमीशन में तीन सुप्रीम कोर्ट के जज होंगे और नियम कहता है कि अगर दो सदस्य किसी की उम्मीदवारी पर असहमत हैं तो उसके नाम की संस्तुति नहीं होगी । ऐसे में समिति में कानून मंत्री और दो अन्य न्यायविदों की राय का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा ।

दूसरी सबसे बड़ी खामी जो इस बिल में है वो यह है कि इस कमीशन को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की संस्तुति का अधिकार है, लेकिन अगर राष्ट्रपति किसी नाम को पुनर्विचार के लिए भेजते हैं तो उस नाम को फिर से राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए सभी छह सदस्यों को एकमत होना चाहिए । किसी भी एक सदस्य की राय अगर अलहदा है तो उस नाम को दोबारा राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जा सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि अगर सरकार, जिसका कमीशन में प्रतिनिधित्व कानून मंत्री करेंगे, को किसी के नाम पर आपत्ति है तो उसकी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज के तौर पर नहीं हो सकती । क्योंकि तब सरकार राष्ट्रपति को किसी नाम पर पुनर्विचार की सलाह दे सकती है और फिर कानून मंत्री कमीशन की बैठक में उस व्यक्ति के खिलाफ अपनी राय रख सकते हैं । इसका मतलब साफ है कि सरकार जजों की नियुक्ति का अधिकार प्रकरांतर से अपने पास रखना चाहती है । मतलब कि कानून मंत्री की मर्जी के बगैर कोई भी जज नियुक्त नहीं हो सकता । इस तरह से अगर देखें तो संविधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को प्राइमेसी का जो अधिकार है उसका भी अतिक्रमण होगा । कोलेजियम सिस्टम पर उठ रहे सवालों और न्यायविदों के इसके बदलने की मांग के बीच इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करने की आवश्कता है । इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायपालिका को संविधान में प्रदत्त अधिकारों का हनन ना हो । किसी भी सिस्टम को उससे बेहतर व्यवस्था से ही बदला जाना चाहिए ।