Translate

Monday, February 2, 2015

अवसर के इंतजार में कांग्रेस

हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद इस तरह की खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और मंत्रियों को कांग्रेस की हार के लिए जिम्मेदार ठहराया । उन्होंने वरिष्ठ नेताओं पर कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने का भी आरोप लगाया । लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी की ये खरी खरी पार्टी के बुजुर्ग नेताओं के लिए खतरे की घंटी हो सकती है । इस वक्त कांग्रेस जिस तरह के संक्रमण के दौर से गुजर रही है उसमें पार्टी को इस तरह के कड़वे घूंट की नहीं बल्कि शल्य चिकित्सा की आवश्यकता है । कांग्रेस सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी है और कई बार इस तरह के संक्रमण काल से गुजरी है । उन्नीस सौ इकहत्तर में दुर्गा के रूप में उभरी इंदिरा गांधी को चार साल के अंदर देश में इमरजेंसी लगानी पड़ी थी । सतहत्तर में जो कुछ हुआ वह इतिहास है । दरअसल सत्तर के दशक के बाद कांग्रेस से लोगों का मोहभंग होता रहा है और वो कई बार विपक्ष को जिताते रहे हैं लेकिन विपक्ष की नाकामी से हर बार कांग्रेस को फिर मौका मिलता रहा है । अस्सी के चुनाव में मोरारजी देसाई और जनता पार्टी में सर फुटव्वल की वजह से देश के मतदाताओंने इमरजेंसी की ज्यादातियों को भुलाते हुए इंदिरा गांधी को गद्दी सौंप दी । चौरासी में तो इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से कांग्रेस को इतनी सीटें मिली कि वो इतिहास हैं । फिर अगर देखें तो नवासी के चुनाव में जनता ने कांग्रेस से उबकर वी पी सिंह के हाथ में देश की कमान सौंपी लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रियों की महात्वाकांक्षा उसको ले डूबी । चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने । उन्नीस सौ इक्यानवे में कांग्रेस फिर बाय डिफाल्ट केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हो गई । राजीव गांधी की हत्या की सहानुभूति लहर के बावजूद कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला लेकिन नरसिंहाराव ने पांच साल तक अल्पमत की सरकार चलाई । इसके बाद तो जैसे सरकारों का आना जाना लगा ही रहा । देश ने कई प्रधानमंत्री देखे । फिर उन्नीस सौ निन्यानवे में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पच्चीस से ज्यादा दलों के गठबंधन एनडीए की सरकार बनी । जब दो हजार चार में शाइनिंग इंडिया से देश प्रकाशमान हो रहा था तो जनता कुछ और ही तय कर चुकी थी । दो हजार चार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार बनी तो दस साल तक उसने शासन किया। दस सालों के शासन से उब चुकी जनता को नरेन्द्र मोदी में एक नायक दिखा और उसने इस बार पूर्ण बहुमत के साथ उनको राज पाट सौंप दिया। कांग्रेस को इतनी कम सीटें मिली कि उसे लोकसभा में नेता विपक्ष का दर्जा भी नहीं मिल सका ।
यह बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि पिछले तीन चार दशकों में कांग्रेस को संगठन मजबूत करके या फिर करिश्माई नेतृत्व की अगुवाई के आधार पर जनादेश नहीं मिला । इस पार्टी को बाय डिफाल्ट ही जनादेश मिलता रहा । इस बार की स्थितियां थोड़ी अलग हैं । इस बार विपक्ष के नाम पर कांग्रेस उतनी मजबूत नहीं दिखती है । जनता परिवार के एकजुट होने की संभावनाएं अभी परवान नहीं चढ़ पाई हैं । कांग्रेस के लिए यह गंभीर चुनौती का समय है । लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी की तरफ से संगठन को मजबूत करने का कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है । सवाल यही है कि क्या कांग्रेस इस बार भी सोच रही है कि जनता बाय डिफाल्ट उसको सत्ता सौंप देगी । कांग्रेस को यह मंथन तो करना ही चाहिए कि क्यों जनता ने उसको इस तरह से हाशिए पर धकेल दिया । कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि जब वरिष्ठ नेताओं की तरफ से कांग्रेस को मजबूत करने की पहल शुरू होती है तो अचानक से राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने की बात क्यों शुरू हो जाती है । लोकसभा चुनाव के बाद यह तीन बार हो चुका है । कांग्रेस को अपने उन नेताओं की पहचान करके उनको उनकी सही जगह दिखानी होगी जो कि पार्टी में पीढ़ियों की टकराहट पैदा करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं । यह पार्टी के हित में भी होगा और लोकतंत्र के भी क्योंकि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक है ।

No comments: