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Sunday, April 19, 2015

स्मृति को नमन

हिंदी साहित्य के लिए यह साल काल का साल जैसा होता प्रतीत हो रहा है । पहले विजय मोहन सिंह जी का निधन हो गया, फिर काल के क्रूर हाथों ने हमसे कैलाश वाजपेयी जैसे दिग्गज लेखक को छीन लिया और अब अवध नारायण मुद्गल जी हमसे बिछड़ गए । इस वक्त की जो युवा पीढ़ी है वो अवध जी को जरा कम जानती है । विनोद अनुपम से उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है कि मुद्गल जी जिस चुप्पी और निष्ठा के साथ हिंदी साहित्य में उपस्थित रहे उसी चुप्पी के साथ गुजर गए । चुप्पी की यह इंतहां ही थी कि वो ना तो विकीपीडिया पर हैं और ना ही इंटरनेट पर उनकी तस्वीर देखी जा सकती है । पुरस्कारों सम्मानों की तो बात ही अलग है । हिंदी साहित्य में अगर सारिका का नाम आज भी अक्षुण्ण है तो उसका श्रेय अवध नारायण मुद्गल जी को ही जाता है । उनके संपादन में सारिका वैचारिक रूप से उदार और साहित्य निष्ठ हुई थी । इन तीन चार पंक्तियों में अवध नारायण मुद्गल जी के बारे में लगभग सब कह दिया गया । वो लगभग दस वर्षों तक सारिका पत्रिका के संपादक रहे । इसके अलावा अवध जी अपने समय कीमशहूर और हर घर की जरूरी पत्रिका पराग का भी संपादन किया । वामा और छाया मयूर के भी संपादक रहे । अपने संपादन कौशल से अवध जी ने अस्सी के दशक के कई कहानीकारों को ना केवल मंच दिया बल्कि हौसला बढ़ा कर उनको स्थापित भी किया । संपादन के पहले अवध नारायण मुद्गल हिंदी साहित्य में कथाकार के तौर पर स्थापिक हो चुके थे । मात्र सत्रह साल की उम्र में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हो गई थी । साठ के दशक में उन्होंने कई कहानियां लिखी जो आज भी पढ़ते हुए समकालीन लगती है । अवध जी ने कहानियां ही नहीं लिखी । उनकी कविताओं को भी अभी मूल्यांकन होना शेष है । अपनी कविताओं में मिथकों का प्रयोग करके उसको अलग ऊंचाई देना कवि अवध नारायण मुद्गल की ऐसी प्रतिभा थी जिससे उस वक्त के पाठक चमत्कृत थे ।

अवध नारायण जी से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली के पोलैंड एंबेसी में छाया मयूर त्रैमासिक के विमोचन के अवसर पर हुई थी । उसके बाद दो मुलाकात हुई लेकिन उनसे बात संभव नहीं हो पाई । मैंने छाया मयूर की समीक्षा लिखी थी जो 28 मार्च 1995 के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई थी । उस वक्त भी उनसे संभवत फोन पर बात हुई थी । फिर एक बार चित्रा मुद्गल जी का इंटरव्यू करने के दौरान अवध जी को प्रणाम कर सका तब वो बहुत बीमार थे । आखिरी मुलाकात पिछले दिल्ली विधानसभा  चुनाव के दौरान हुई थी । मैं मयूर विहार के पोलिंग बूथ से निकल रहा था तो चित्रा मुद्गल जी उनको व्हील चेयर पर लेकर वोट डलवाने जा रही थी । उन्होंने रुक कर कहा था कि अवध ये अनंत है, आदि आदि । मैंने उनको प्रणाम किया तो उनका हाथ आशीर्वाद के लिए उठा लेकिन वो कुछ बोले नहीं । उनकी ये आखिरी स्मृति मेरे मानस पर अब भी है । छाया मयूर के संपादकीय में उन्होंने कई सवाल उठाए थे । एव सवाल जो अब भी मौजूं है । अवध जी ने लिखा था- अधिकांश साहित्य संपादक ऐसे हैं जिन्हें संपादन और संकलन में अंतर करने का शऊर भी नहीं । कुछ ऐसे भी हैं जो पत्रिका के बहाने अपनी साहित्यक नेतागीरी की दुकान खोलकर बैठ गए हैं और अपने एकाधिकारवादी तेवर दिखा रहे हैं ।' ये बेबाकी थी अवध नारायण मुद्गल की । ये साहस था एक संपादक का जो अपनी बिरादरी को आईना दिखा सकता था । अवध जी की स्मृति को नमन ।  

1 comment:

Manoj Kumar said...

सार्थक पोस्ट
सत्यवचन