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Thursday, August 27, 2015

फिर निकला आरक्षण का जिन्न

यह महज संयोग था या फिर सोची समझी रणनीति यह कहना मुश्किल है । ओबीसी आरक्षण के लिए बनी मंडल कमेटी के बीपी मंडल के जन्मदिवस पर गुजरात में पटेलों ने आरक्षण की मांग को लेकर अहमदाबाद में एक बड़ी रैली की । पटेल गुजरात का संपन्न और दबंग सुमदाय माना जाता है । उनकी मांग है कि उनको ओबीसी में शामिल कर आरक्षण दिया जाए या फिर आरक्षण को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए । इस आंदोलन ने एक बार फिर से उन्नीस सौ नवासी की याद ताजा कर दी है । ये वो दौर था जब देवीलाल की रैली को डिफ्यूज करने के लिए वीपी सिंह ने आनन फानन में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का एलान कर दिया था । ओबीसी को सरकारी नौकरियों से लेकर प्रमोशन और छात्रों को स्कूल कालेजों में आरक्षण दे दिया गया था । उस वक्त भी उत्तर भारत के कई राज्यों में आरक्षण की आग ने कई सरकारो के चेहरे को तो बदल ही दिया पूरे देश की राजनीति का भूगोल भी बदल दिया । दरअसल हमारे संविधान में पिछडो़ं और दबे कुचलों को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन एक तय समय सीमा तक । बजाए पिछड़ों को आरक्षण देकर मुख्यधारा में लाने के आरक्षण की आड़ में नेता मुख्यधारा में आने लगे । संविधान सभा की बहस में महावीर त्यागी, डॉ पीएस देशमुख आदि ने इसका विरोध किया था, लेकिन तब इस बात पर सहमति बनी कि दस साल के लिए पिछड़ों को आरक्षण की व्यवस्था हो । उस वक्त सरदार पटेल ने भी आरक्षण का विरोध करते हुए कहा था कि सहूलियत देकर अनुसूचित जाति और जनजाति को समाज की मुख्यधरा में लाना मुश्किल है, इसके लिए देश में जागृति लानी होगी । उन्होंने गुलामी का उदाहरण देते हुए अने तर्क रखे थि गुलाम-प्रथा से छुटकारा किसी तरह के आरक्षण से नहीं मिला था बल्कि सामाज में जागृति लाकर उस अमानवीय प्रथा को खत्म किया गया था । सरदार पेल का मानना था कि लोकतंत्र के मजबूत होते जाने से ही जाति का नासूर खत्म हो जाएगा । कई सदस्यों ने विरोध के बावजूद आरक्षण के पक्ष में संविधान सभा में सहमति बनी थी । संविधान बनानेवालों ने उस वक्त ये नहीं सोचा था कि आरक्षण आजाद भारत में दलितों और पिछड़ों को बराबरी का हक दिलाने की बजाए राजनीति का एक ऐसा औजार बन जाएगा जिससे पार पाना मुश्किल होगा । संविधानसभा से उस वक्त ये गलती हो गई कि वो पिछड़ा मानने का आधार जाति को मान लिया, आर्थिक आधार पर विचार नहीं किया गया ।
गुजरात में जिस तरह से बाइस साल के एक लड़के हार्दिक पटेल ने आरक्षण को लेकर इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है उससे यह तो साफ है कि आरक्षण के विरोध में सालों से कुछ पक रहा था । दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में कहा भी है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विस्फोट अचानक होता है, घाव भी फूटने के पहले बहुत समय तक पकता रहता है । पटेलों के आंदोलन से एक और बात निकल कर आ रही है कि गुजरात जैसे विकसित राज्य में भी आरक्षण को लेकर एक समुदाय में क्षोभ है । दिल्ली युनिवर्सिटी में आम छात्रों का नामांकन अगर नब्बे फीसदी अंक पर होता है तो आरक्षण पाने वालों का साठ से सत्तर फीसदी तक में हो जाता है । अमूमन ऐसा होता है कि दोनों छात्रों के सामाजिक और पारिवारिक स्तर में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता है ।गुजरात की जनसंख्या में करीब बाइस फीसदी हिस्सेदारी पटेलों की है और उनका दावा है कि पूरे देश में पाटीदारों की संख्या करीब 27 करोड़ है । दरअसल आरक्षण को लेकर एक बड़े समुदाय के मन में कहीं ना कहीं कसक है । सिर्फ चंद महीनों में हार्दिक पटेल ने गुजरात में इतना बड़ा जनांदोलन खड़ा कर दिया इससे इस बात के संकेत तो मिलते ही हैं कि विरोध की आग लंबे समय से सुलग रही थी । यह सही है कि भीड़ के आधार पर सरकार ना तो कानून बनाती है और ना ही कानून में संशोधन करती है लेकिन अगर इतना बड़ा जमसमर्थन मिलता है तो सरकार को सोचने के लिए एक जमीन तो मुहैया करवाता ही है ।  हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीस सौ चौहत्तर में गुजरात के छात्र आंदोलन ने देश की राजनीति बदल दी थी । जनवरी 1974 में चिमन भाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्रों के आंदोलन और फिर जेपी के उस आंदोलन के समर्थन में गुजरात जाने के बाद चिमन भाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा था । वह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था । गुजरात आंदोलन से ही प्रेरित होकर फिर बिहार में भी छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी । जिसके बाद इंदिरा गांधी ने देशपर इमरजेंसी थोप दी थी । उस आंदोलन की तुलना हार्दिक पटेल के आंदोलन से करना इस वक्त बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस तरह से हार्दिक ने नीतीश कुमार का नाम लिया है उससे इस बात के संकेत तो मिलते हैं कि ये आंदोलन आगे बढ़ेगा । हार्दिक पटेल ने साफ कर दिया है कि वो राजनीति नहीं करेंगे लेकिन आरक्षण नहीं मिलने की सूरत में 2017 में सूबे में कमल को खिलने से रोकने का एलान हुआ । हमारे देश के राजनीतिक विश्लेषक जल्दबाजी में तुलना करने लग जाते हैं । कई विद्वान हार्दिक को गुजरात का अरविंद केजरीवाल बता रहे हैं । दोनों में बुनियादी फर्क है अरविंद सार्वजनिक तौर पर बहुत विनम्र नजर आते हैं जबकि हार्दिक के अहमदाबाद के भाषण में दंभ नजर आता था । राजनीतिक विश्लेषकों को थोड़ा धैर्य रखना चाहिए । ये वही लोग हैं जो अन्ना को छोटे गांधी कहा करते थे । तुलना में जल्दबाजी और तात्कालिकता बहुधा अतार्किक होकर हास्यास्पद हो जाती है ।  
 

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नफरत, मौकापरस्ती, आरक्षण और राजनीति , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !