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Sunday, November 1, 2015

चुटकुले पर फैसले का इंतजार

लेखकीय आजादी और समाज में बढ़ती असहिष्णुता पर देशभर में कुछ चुनिंदा लेखकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों की पुरस्कार वापसी कार्यक्रम के बीच सुप्रीम कोर्ट में एक बेहद दिलचस्प याचिका दायर हुई है । एक सिख वकील ने जनहित याचिका दायर कर मांग की है कि संता-बंता जैसे जोक्स पर रोक लगनी चाहिए । अपनी याचिका में उन्होंने सरदारों पर जोक्स प्रकाशित करनेवाली करीब पांच हजार बेवसाइट पर रोक लगाने की मांग भी की है । उनका तर्क है कि इस तरह के चुटकुलों से सरदारों का अपमान होता है लिहाजा इस पर रोक लगाई जानी चाहिए । देश की सबसे बड़ी अदालत में याचिकाकर्ता वकील हरविंदर चौधरी ने कहा कि देश में किसी भी समुदाय पर कोई टिप्पणी होती है तो बवाल मच जाता है लेकिन सिखों पर अपमानजनक तरह से बनाए जानेवाले चुटकुलों पर कोई गंभीरता से नहीं सोचता है ।  कोर्ट में जिरह के दौरान वकील साहिबा ने दलील दी कि इन चुटकुलों में सरदारों को कम बुद्धि का और बेककूफों के तौर पर पेश किया जाता है । अहम बात यह है कि कोर्ट इस याचिका पर अगले साल चार जनवरी को सुनवाई करेगी । अगर हम इस पर विचार करें तो पाते हैं कि सतही तौर पर यह अगंभीर याचिका नजर आती है जिसमें चुटकुलों पर बैन की मांग की गई है लेकिन इस याचिका पर फैसला ऐतिहासिक हो सकता है । यह पूरा मामला अभिव्यक्ति की आजादी तक जा सकता है । संविधान में भारत के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है लेकिन साथ ही यह बात भी तय की गई है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या है । अगर यह बात साबित हो जाए कि सरदारों पर बननेवाले जोक्स से एक समुदाय विशेष के लोगों का अपमान होता है तो इसपर रोक लग सकती है ।
अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों का रुख इस याचिका पर जानना अहम होगा । भारतीय इतिहास के मिथकों के बारे में शोध के नाम पर जिस तरह से खिलवाड़ किया जाता रहा है वो सबके सामने है । दरअसल उस तरह के शोध में जब मिथकीय चरित्र को उठाया जाता है तो मंशा शोध की नहीं बल्कि समाज में चली आ रही मान्यताओं को निगेट करने की होती है । सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि अगर चरित्र मिथकीय और काल्पनिक है तो फिर उसपर शोध की क्या आवश्यकता है । मिथकीय चरित्रों की काल्पनिक व्याख्या को शोध के नाम पर पेश करके यश कमाना उद्देश्य होता है । उसपर से तुर्रा यह कि उसको कल्पना या फिक्शन मानने से भी इंकार कर दिया जाता है । भारतीय लेखन परिदृश्य में सत्तर अस्सी के दशक में तो इस तरह के सैकड़ों काल्पनिक शोध आदि हुए जिसको पुरस्कृत, सम्मानित और चर्चित किया करवाया गया । कालांतर में कई विदेशी लेखकों ने भी अपनी तरह से मिथकीय चरित्रों की पुनर्वव्याख्या की, पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित चरित्रों को फिर से गढा और उसकी अपनी तरह से व्याख्या की । कई बार इस तरह की व्याख्या को लेकर कुछ संगठनों ने आपत्ति जताई, मामला कोर्ट में भी गया, धरना प्रदर्शन आदि भी हुए, भावनाएं आहत होने कि बात भी सामने आई । आहत भावनाओं को लेकर देश भर में बहस भी हुई और यह कहकर मजाक भी उड़ाया गया कि भारत आहत भावनाओं का गणतंत्र बनता जा रहा है । अब वक्त आ गया है कि इस बात पर व्यापक विमर्श हो कि अभिव्यक्ति की आजादी के मायने क्या हों । हो सकता है कि जोक्स को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर फैसले के बाद इस बहस को एक आधार मिले और फिर कोई पक्की तस्वीर बन सके । हलांकि समय समाज और परिस्थिति के अनुसार बदलाव की हर वक्त गुंजाइश रहती है लिहाजा इस आजादी को इस वक्त के हिसाब से तय करने की आवश्यकता है ।  

1 comment:

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर प्रस्तुति , बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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