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Sunday, December 6, 2015

उपस्थिति से बढ़ेगी साझेदारी

जब से कॉफी हाउस की संस्कृति बंद हुई है तब से साहित्यक समाचार ज्यादातर सोशल मीडिया पर ही नजर आते हैं । साहित्यक गॉसिप से लेकर विवाद तक, गंभीर टिप्पणियों से लेकर फूहड़ कमेंट तक, साहित्यक समाचार से लेकर साहित्येतर कानाफूसी तक सब-कुछ सोशल मीडिया से सामने आने लगा है । कॉफी हाउस में तो बोलकर निकल जाने की सहूलियत थी और उसका उतना विस्तार भी नहीं था लेकिन जितना कि सोशल मीडिया है । यहां आप पोस्ट कर निकल नहीं सकते हैं । सोशल मीडिया पर एक और सहूलियत है कि जैसे ही आपकी पोस्ट को कोई लाइक करता है या उसपर अपनी टिप्पणी देता है तो वो टाइम लाइन पर सबसे उपर आ जाता है । इसका नतीजा यह होता है कि किसी भी तरह की खबर लंबे समय तक सोशल मीडिया पर बनी रहती है । बहुधा तो ऐसा होता है कि साल दो साल पहले की पोस्ट भी अगर किसी ने लाइक कर दी तो वो फौरन टाइम लाइन पर आ जाता है । इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं । पायदा ये कि सकारात्मक खबरें वहां आती जाती रहती हैं और नुकसान येकि आरोपों की शक्ल में लिखे गए पोस्ट की भी उपस्थिति बनी रहती है । हाल ही में सोशल मीडिया पर एक खबर देखकर मैं चौंका । ये खबर थी पटना के लेखक रत्नेश्वर से जुड़ी । रत्नेश्वर ने अपनी वॉल पर अपनी किताब के पटना में होनेवाले लोकार्पण समारोह का कार्ड लगाया था । यह कोई अहम बात नहीं थी, हर किताब के लोकार्पण का कार्ड लोग फेसबुक आदि पर शेयर करते ही ही हैं । अब तो ये रिवाज भी हो चला है ।  लेकिन उस कार्ड पर प्रकाशित एक सूचना ने मुझे चौंकाया । मैजिक इन यू नाम की इस किताब की बीस हजार प्रतियों की प्री बुकिंग होने का दावा करते हुए प्रचारित किया जा रहा है । चौंका इस वजह से कि अंग्रेजी में लिखी इस किताब को छापा है कि हिंदी के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन ने । इस लिहाज से यह एक बड़ी घटना है कि किसी किताब के लोकार्पित होने के पहले ही बीस हजार प्रतियों की बुंकिंग हो जाना । भारतीय प्रकाशन जगत के लिहाज से यह एक अहम घटना है । इसके पहले चेतन भगत की किताब हॉफ गर्ल फ्रेंड की साल लाख प्रतियों की एडवांस बुकिंग हुई थी परंतु वो बुकिंग एक ऑनलाइन कारोबार करनेवाली बेवसाइट ने की थी जिसके पास उक्त किताब को एक तय समय सीमा तक बेचने का एक्सक्लूसिव अधिकार था । अंग्रेजी के कई प्रकाशकों और लेखकों से मैंने इस बारे में बात कर यह समझने की कोशिश कि प्रकाशन जगत के लिहाज से यह कितनी बड़ी घटना है । प्रकाशकों और लेखकों, दोनों ने बताया कि यह घटना महत्वपूर्ण है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए । दूसरी जिस बात ने मुझे चौंकाया वह ये कि रत्नेश्वर की यह किताब मैजिक इन यू साहित्यक कृति नहीं हैं बल्कि ये किताब आपके अंदर की ताकत को पहचानने और उसको उजागर करने की बात करता है यानि कि यह व्यक्तित्व विकास की  किताब है । इस बात को समझने की आवश्यकता है कि किताब छपने और बाजर में आने के पहले ही उसकी बीस हजार प्रतियों की बुकिंग कैसे हो गई । भारत में जहां किताबों की बिक्री को लेकर रोना गाना मचा रहता है वैसे परिदृश्य में सुदूर बिहार के एक लेखक की लिखी किताब छपने के पहले इतनी लोकप्रिय हो जाए तो आश्चर्य भी होता है और इस बात का संतोष भी होता है कि भारत में किताबों की बिक्री का बड़ा बाजार है । रत्नेशवर पहले हिंदी में लिखते रहे हैं । उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । पिछले साल नेशनल बुक ट्रस्ट से आई उनकी किताब मीडिया लाइव के भी कई संस्करण हो चुके हैं । एक जमाने में कहानियां लिखनेवाले रत्नेश्वर कालांतर में नॉन फिक्शन की ओर मुड़े । कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रत्नेश्वर ने कहा  था कि सैद्धांतिक साहित्य को पाठक पूरी तरह नकार रहे हैं क्योंकि उनमें कहानी से ज्यादा विचार प्रबल होते हैं। उन्होंने माना था कि आजकल मोटे-मोटे उपन्यासों का लेखन भी खूब हो रहा है, पर अधिकांश उपन्यास विवरणात्मक शैली में लिखे जा रहे है वो कहते हैं कि उपन्यास या कहानी किस्सागोई की चासनी में ऐसे लिपटे हों कि पाठक अंत तक बहता चला जाय, आज के अधिकांश उपन्यासों और कहानियों के विवरण शैली को पाठक झेल ही नहीं पाते और उनमें ऊब पैदा होती है। मतलब साफ़ है - शायद आज के साहित्यकार का टारगेट आलोचक और पुरस्कार होते हैं ! जो साहित्य उनके लिए लिखा नहीं गया, ऐसे में भला पाठक आपको क्यों तरजीह देने लगे । वो इस बात पर भी चिंता प्रकट करते हैं कि हिन्दी पढ़ने-जानने वालों की संख्या करीब साठ सत्तर करोड़ है तो हमारे संस्करण तीन चार सौ के क्यों होते हैं । वो सवाल उठाते हैं कि क्या हमारा लक्ष्य उनमें से कम-से-कम सात लाख हिंदी प्रेमियों को पाठक बनाने का नहीं होना चाहिए?  उनका मानना है कि लेखक का दायित्व अच्छा साहित्य लिखना तो है ही उसे पाठकों तक पहुंचाना भी है। अभी हाल ही में रत्नेश्वर ने अपना पहला उपन्यास रेखना मेरी जान लिखकर खत्म किया है और उनका यह उपन्यास भी जल्द ही हिंदी और अंग्रेजी में छपकर बाजार में आने वाला है । देखना यह होगा कि उनके इस उपन्यास को पाठक कैसे लेते हैं । ग्लोबल वार्मिंग को केंद्र में रखकर लिखी गई इस किताब को लेकर प्रकाशक उत्साहित हैं । यह बात समझ से परे है कि किताबों के पाठकों की कमी का रोना क्यों रोया जाता है । क्यों इस बात को प्रचारित किया जाता है कि हिंदी का प्रकाशन व्यवस्या तो सरकारी खरीद की वैशाखी थामे चल रहा है वर्ना तो ये कब का दम तोड़ चुका होता । यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी में किताबों की प्री बुकिंग हुई है लेकिन हिंदी की हालत भी बेहतर है वहां भी यह हो सकता है । दरअसल इस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है कि हिंदी में पाठकों की कमी है । इसको निगेट करने की जरूरत है ।
अभी हाल ही में मार्केट सर्वे करनेवाली एक कंपनी नीलसन इंडिया की बुक मार्कट रिपोर्ट 2015 जारी की गई है । नीलसन इंडिया की इस रिपोर्ट में कई ऐसे खुलासे हुए हैं जो प्रकाशन जगत के लिए आंखें खोलनेवाले हैं । सबसे पहले तो इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा किताबों का बाजार है । उस रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त भारत में किताबों का बाजार इक्कसी हजार छह सौ करोड़ रुपए का है । नीलसन के अनुमान के मुताबिक किताबों का ये बाजार सालाना करीब साढे उन्नीस फीसदी की दर से बढ़ेगा और 2020 तक इस बाजार का आकार तेहत्तर हजार नौ सौ करोड़ तक पहुंच जाएगा । नीलसन के इस अनुमान का आधार भारत की साक्षरता दर है । उसके मुताबिक भारत की साक्षरता दर 2020 तक नब्बे फीसदी हो जाएगी जो इस वक्त चौहत्तर फीसदी है । इस रिपोर्ट में और भी दिलचस्प आंकड़ें हैं । इसके मुताबिक भारत में अंग्रजी किताबों का बाजार पचपन फीसदी है और अंग्रेजी किताबों का विश्व में ये दूसरा सबसे बड़ा बाजार है । किताबों के बाजार में हिंदी किताबों का शेयर पैंतीस फीसदी है और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है । नीलसन के इन आंकड़ों में अकादमिक, प्रोफेशनल, स्कूल टेक्सट बुक, के अलावा रचनात्मक साहित्य की किताबें भी शामिल हैं । इतना बड़ा बाजार होने के बावजूद किताबों की बिक्री नहीं होने पर छाती कूटना उचित नहीं है । जरूरत इस बात की है कि किस तरह से किताबों के बढ़ते बाजार में अपनी उपस्थिति और हिस्सेदारी को मजबूत किया जाए । नीलसन की रिपोर्ट के मुताबिक किताबों के बाजार के फैलाव में कई सारी दिक्कतें हैं । इन दिक्कतों में सबसे बड़ी बाधा तो किताबों के डिस्ट्रीव्यूशन श्रृंखला को लेकर है । किताबों के वितरण की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होने और पुस्तक विक्रेताओं को लंबे समय तक क्रेडिट देने से इस कारोबार में कैशफ्लो कम होता है इस वजह से पूंजीगत समस्या खड़ी हो जाती है । इस अलावा किताबों के कारोबार में जो सबसे बड़ी समस्या है वह ये कि यहां पाइरेसी बहुत ज्यादा होती है । भारत उतना विशाल देश है कि पाइरेसी को रोक पाना लगभग असंभव है । इसका बेहतरीन उदाहरण तसलीमा नसरीन की किताब लज्जा है । इसके प्रकाशन का अधिकार दिल्ली के वाणी प्रकाशन के पास है लेकिन जाने कहां कहां और किन किन भाषाओं में यह किताब प्रकाशित हुई है वो ना तो लेखिका को मालूम है और ना ही प्रकाशक को । पाइरेसी रोकने के लिए जो कानून हैं वह उतने सख्त नहीं हैं लि्हाजा इसको मजबूत करने की जरूरत है । अंत में मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां कहना चाहूंगा- कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो । किताबें बिकेंगी कोशिश तो हों ।


1 comment:

Unknown said...

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