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Wednesday, January 28, 2015

मुरुगन के साथ कौन ?

चंद दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस संजय किशन कौल ने एक बेहद अहम टिप्पणी की । एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस कौल ने कहा कि संवैधानिक संस्थाओं यानि अदालतों के अलावा किसी और संस्था के पास यह अधिकार नहीं है कि वो ये फैसला दे कि क्या सही है और क्या गलत है । दरअसल जस्टिस कौल लेखक मुरुगन के उपन्यास पर इलाके की पीस कमेटी के फैसले पर दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहे थे । इस याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्होंने एक और तल्ख टिप्पणी की कि प्रशासन को भी यह अधिकार नहीं है कि वो किसी लेखक को यह बताए कि वो क्या लिखे या उसका लिखा हुआ सही है या गलत ।  तमिलनाडू के लेखक पेरुमल मुरुगन के उपन्यास मथुर बागान जिलसका अंग्रेजी अनुवाद वन पार्ट वूमेन के नाम से छपा था । उस उपन्यास को लेकर कई दक्षिणपंथी संगठनों ने खासा बवाल मचाया । विरोध प्रदर्शन हुए । तमिलनाडू के नामक्कल जिले में जब विरोध काफी बढ़ गया और हिंसा की आशंका बढ़ने लगी तो जिला प्रशासन ने एक शांति समिति बनाई और उसकी बैठक में यह फैसला लिया गया कि मुरुगन बाजार से इस उपन्यास की सभी प्रतियां वापस ले लेंगे । उनसे एक लिखित अंडरटेकिंग लिया गया जिसमें बिना शर्त माफी की भी बात थी । इस अंडरटेकिंग में यह बात भी लिखवाई गई कि मरुगन अपने उपन्यास से सभी विवादित अंश हटाएंगे और भविष्य में कोई भी विवादास्पद चीज नहीं लिखेंगे । यह एक बेहद आपत्तिजनक कदम था जो कि नामक्कल जिला प्रशासन ने उठाया । विरोध प्रदर्शन रोकने की अपनी नाकामी को छुपाने के लिए जिला प्रशासन ने लेखक को पहले तो दबाव में लिया और फिर उनसे भविष्य में इस तरह के लेखन नहीं करने का लिखित में आश्वासन लिया । यह जिला प्रशासन का एक ऐसा कदम था जो कि लेखकीय अभिव्यक्ति पर हमला ही नहीं है बल्कि एक तरह की सेंसरशिप है । जिला प्रशासन की अगुवाई में हुई इस शांति् समिति के फैसले के खिलाफ कुछ संगठन अदालत पहुंचे हैं । अदालत ने कहा है कि यह मामला एक व्यक्ति विशेष का नहीं है बल्कि यह संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मामला है । अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि जिस किसी को भी किसी किताब पर या उसके अंश पर आपत्ति हो वह अदालत की शरण में जाए क्योंकि अदालत के अलावा कोई भी व्यक्ति या संस्था यह फैसला नहीं कर सकती है कि क्या सही है और क्या गलत है
दरअसल इस पूरे मामले को जिस तरह से जिला प्रशासन ने निबटाया है वह घोर आपत्तिजनक है । लेखक मुरुगन को जिलाधिकारी के कार्यालय में भारी सुरक्षाबल के बीच ले जाकर बार बार बयान बदलने को मजबूर किया गया वह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला है । जिला प्रशासन ने संविधान को दरकिनार कर लेखक पर दबाव बनाया और उनके वकील को यहां तक कह डाला कि यह कानून व्यवस्था का मामला है और इसको उसी तरह से देखा जाएगा । दरअसल जिला प्रशासन के इस रवैये पर पूरे देश के लेखक समुदाय को खड़ा होना चाहिए और इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए । जिस तरह से एक लेखक को दबाव डालकर उसको लिखने से रोका जा रहा है उसपर कलम के तमाम सिपाहियों को विरोध जताना चाहिए । लेखक समुदाय से यह अपेक्षा की जाती है कि वो साथी लेखकों के पक्ष में खड़ा हो और वृहत्तर सवालों पर अपनी आस्था और राजनीतिक झुकाव को दरकिनार कर विरोध में खड़ा हो जाए । लेखक चाहे किसी वाद या विचारधारा का हो अगर उसके पास लेखकीय स्वतंत्रता ही नहीं बचेगी तो फिर वाद और विचारधारा की माला गले में लटकाए घूमते रहने से कोई फायदा नहीं है ।

Monday, January 19, 2015

सजने लगा साहित्य का ‘मीनाबाजार’

जयपुर के दिग्गी पैसेल होटल परिसर में इक्कीस से पच्चीस जनवरी तक चलनेवाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है । आठ सालों से आयोजित इस सालाना लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार साहित्य के अलावा भी कई अन्य विषयों पर मंथन के लिए अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज जुटेंगे । साहित्य के सवालों से टकराने के लिए बना विमर्श का यह मंच अब उससे बहुत आगे निकल चुका है । अब इस लिटरेटर फेस्टिवल के दैरान दिग्गी पैलेस परिसर में एक पूरा मीना बाजार सजता है । राजस्थानी कपड़ों से लेकर हस्तशिल्प तक और सोने के गहनों से लेकर जूतियों तक की दुकानें वहां लगाई जाती हैं । आयोजकों ने इस साहित्यक महफिल को पूरी तरह से मीना बाजार के माहौल के हिसाब से बना दिया है । इस बार तो यह मीना बाजार और भी ग्लैमरस होने जा रहा है । इस बार इस साहित्यक महोत्सव के केंद्र में फिल्म और फिल्म लेखन है । जावेद अख्तर और शाबाना आजमी के अलावा गीतकार प्रसून जोशी और फिल्म पर गंभीर लेखन करनेवाले यतीन्द्र मिश्र फिल्मों पर बात करेंगे । फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा की किताब- द फ्रंट रो, कनवरसेशंस ऑन सिनेमा को मशहूर फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर जारी करेंगी । इसके अलावा जावेद अख्तर के नए कविता संग्रह का भी विमोचन किया जाएगा ।   आयोजक इस बात के लिए खुश होते हैं और सही दावा भी करते हैं कि ये विश्व का सबसे बड़ा लिटरेचर फेस्टिवल है जहां लोगों का प्रवेश मुफ्त है ।  जयपुर के इस साहित्योत्सव में अब विमर्श कम भीड़ ज्यादा होती है । सात साल पहले जब उस महोत्सव की शुरुआत हुई थी तो दिग्गी पैलेस के फ्रंट लॉन में सिर्फ साहित्य के गंभीर श्रोता और साहित्यप्रेमी ही मौजूद होते थे । अब तो हालात यह है कि स्कूली बच्चों को बसों में भर भर कर मेला घुमाने के लिए लाया जाता है । आयोजकों ने भी इस साहित्यक मेले को लोकप्रिय बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ीहै । हर बार मशहूर लेखकों के अलावा तीन चार फिल्म कलाकार यहां आते ही हैं । इस बार सोनम कपूर, वहीदा रहमान, जावेद अख्तर , शबाना आजमी समेत कई सितारे यहां चमकने के लिए तैयार हैं । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को मशहूर करने में विवादों की भी बड़ी भूमिका है । चाहे वो समाजशास्त्री आशीष नंदी के पिछड़ों पर दिए गए बयान और आशुतोष के प्रतिवाद का विवाद हो  या फिर सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर मचा घमासान हो । सलमान रश्दी के आने का वक्त उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पहले का वक्त था लिहाजा सियासी दलों ने भी उसको भुनाने की कोशिश की थी । मामला इतना तूल पकड़ गया था कि सलमान रश्दी का भारत दौरा रद्द करना पड़ा था । उस विवाद की छाया लंबे समय तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को प्रसिद्धि दिलाती रही । पिछले साल अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन ने यह कहकर आयोजकों को झटका दिया था कि - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसी जगहें सच्चे लेखकों के लिए खतरनाक है, वे ऐसी जगहों से बीमार और लाचार होकर घर लौटते हैं । साहित्य  के साथ साथ वहां बहुधा राजनीतिक टिप्पणियां भी हो जाती हैं । पिछले साल नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने आम आदमी पार्टी के उभार को भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती के तौर पर पेश किया । वहीं अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नेत्रहीन लेखक वेद मेहता ने मोदी पर निशाना साधते हुए कहा था कि उनका पीएम बनना देश के लिए घातक हो सकता है । साहित्य से व्यावसायिकता की राह पर चल पड़े जयपुर साहित्य महोत्सव को तमाम लटके झटकों के बावजूद इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि इसने पूरे देश में साहित्यक उत्सवों की एक संस्कृति विकसित की है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की देखादेखी आज देशभर में कई लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होने लगे हैं । इससे देश में एक साहित्यक माहौल बनने में मदद तो मिल ही रही है 


Sunday, January 18, 2015

ड्रामेटिक जीवन, ड्रामेटिक विरोध

स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया गांधी की फिक्शनलाइज्ड जीवनी कई सालों के अघोषित प्रतिबंध के बाद अब प्रकाशित हुई है । द रेड साड़ी के नाम की इस किताब के प्रकाशन को लेकर कांग्रेस ने खूब हो हल्ला मचाया था । लेखक जेवियर मोरो को कानूनी धमकियां दी गई थी । कांग्रेस उस वक्त सत्ता में थी लिहाजा सोनिया गांधी की इस किताब को हमारे यहां प्रकाशित नहीं होने दिया गया । लगभग चार साल बाद अब स्थितियां बदल गई हैं । कांग्रेस सत्ता से बाहर है और जेवियर मोरो की किताब रेड साड़ी को लेकर बवाल मचानेवाले कांग्रेस के नेता भी कमजोर हुए हैं । सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस के नेता क्यों विरोध कर रहे थे । सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हो हल्ला मचानेवाली ब्रिगेड उस वक्त कहां थी । तमिल लेखक मुरुगन की किताब पर विरोध करनेवाले, वेंडी डोनिगर की किताब के प्रकाशक का उसको वापस लेने का फैसला करने पर छाती कूटनेवाले लोग उस वक्त कहां थे जब जेवियर मोरी की किताब को डरा धमका कर प्रकाशित होने से रोका गया था । सत्ता की हनक में तब भी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगी थी । लेकिन विरोध का स्वर उतना तीव्र नहीं था जितने की अपेक्षा की जाती है । अभिव्यक्ति की आजादी की पक्षपातपूर्ण विरोध की यह घटना मिसाल है । अभी हाल में लेखक जेवियर मोरे ने माना है कि कांग्रेस पार्टी ने उसके किताब के खिलाफ एक अभियान चलाकर उसका प्रकाशन रोका गया था । उनके मुताबिक उस वक्त तो वो छह महीने तक अपने ईमेल अकाऊंट को खोलने से भी घबराते थे कि कहीं कोई कानूनी नोटिस तो नहीं आ रहा है । दो हजार दस में जेवियर मोरो इसको अंग्रेजी में प्रकाशित कर भारतीय बाजार के अलावा अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के बाजार में सोनिया गांधी के नाम को भुनाना चाहते थे । जेवियर मोरो की यह किताब अक्तूबर दो हजार आठ में स्पेनिश में छपी और बाद में इसका अनुवाद इटैलियन, फ्रैंच और डच में किया गया । भारत में उठे विवाद के पहले के अनुमान के मुताबिक इसकी तीन लाख प्रतिया बिक चुकी थी । 
 दरअसल स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की ये किताब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है लेखक मोरो का दावा है कि यह पूरी किताब सोनिया के बचपन से लेकर उनकी राजीव गांधी से मुलाकात और शादी से लेकर सास इंदिरा गांधी के साथ बिताए दिनों के अलावा राजीव गांधी की हत्या का बाद सोनिया की मानसिकता का चित्रण करती है दरअसल मोरो की इस किताब से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सोनिया गांधी अपने पति की हत्या के बाद भारत छोड़कर इटली जाना चाहती थी मोरो की किताब में इस तरह के संकेत हैं कि सोनिया गांधी के दिमाग में यह बात आई थी कि उस देश में क्यों रहना जो अपने ही बच्चों को खा जाता है इस किताब में इस बात की ओर भी पर्याप्त इशारा किया गया है कि गांधी परिवार में राजीव की मौत के बाद इटली वापस लौट जाने पर चर्चा होती थी हलांकि कई प्रसंगों में साफ है कि लेखक ने सोनिया गांधी की जिंदगी के यथार्थवादी पहलुओं में अपनी कल्पना का तड़का लगाया है जैसे एक जगह इस बात का जिक्र है कि रात के तीन बजे सोनिया ने राजीव को कहा कि देश में इमरजेंसी लगाने के ड्राफ्ट में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी  मोरो लिखते हैं- सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनियो अलबिना मैनो लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया नाम दिया रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई थी सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से पराजित हो गई थी सोनिया जियोवेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन उतनी ही पढाई की  जितनी की जरूरत थी यानि वो अच्छी विद्यार्थी नहीं थी लेकिन पढ़ाई में कमजोर होने के बावजूद वो हंसमुख और दूसरों की मदद को तत्पर रहती थी कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थी आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान सोनिया के मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जगा था ले किन वो सपना जल्द ही बदल गया उसके बाद सोनिया विदेशी भाषा की शिक्षक या फिर संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक बनने की ख्वाहिश पालने लगी
लेखक मोरो का दावा है कि उसकी किताब लंबे समय तक किए गए शोध पर आधारित है । जेवियर मोरो का दावा है कि तथ्यों और घटनाओं की सत्यता को परखने के लिए उन्होंने सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया उसका तो यह भी दावा है कि उसवे किताब छपने के पहले उसकी पांडुलिपि सोनिया गांधी की बहन नाडिया को भी दिखाई थी क्योंकि वो स्पैनिश जानती थी कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों और लेखक को कानूनी नोटिस के हो हल्ले के बीच जेवियर मोरो की किताब सोनिया और उसके इर्द गिर्द के विवादों और घटनाओं में सिमटकर रह गई। जबकि इस किताब में इस वक्त केंद्र सरकार में मंत्री और सोनिया की देवरानी मेनका गांधी के बारे में ज्यादा विस्फोटक प्रसंग छपे हैं, जो घटनाओं के चश्मदीदों के बयानों पर आधारित होने की वजह से ज्यादा प्रामाणिक प्रतीत होते हैं बेटे संजय गांधी की जिद की वजह से तेइस सितंबर उन्नीस सौ चौहत्तर को गांधी के पारिवारिक मित्र मोहम्मद युनुस के घर पर संजय और मेनका परिणय सूत्र में बंध गए यहां पर जेवियर मोरो ने इस बात के संकेत दिए हैं कि मेनका को गांधी परिवनार में एडजस्ट करने में सोनिया से ज्यादा दिक्कत हुई
एक और बेहद ही दिलचस्प वाकया इस किताब में है एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह जब गांधी परिवार से मिलने उनके घर गए तो वहां कुत्तों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा था किताब के मुताबिक मेनका के आइरिश वुल्फहाउंड और सोनिया के शांत से अफगानी कुत्ते के बीच लड़ाई चल रही थी सोनिया दोनों को अलग करना चाह रही थी लेकिन मेनका इस झगड़े से मजा ले रही थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसका कुत्ता सोनिया के कुत्ते से मजबूत था लेखक ने इंदिरा गांधी की सचिव उषा के हवाले से लिखा है कि मेनका बेहद ही बुद्धिमती लेकिन महात्वाकांक्षी थी उसे हर वक्त यह लगता था कि जल्द ही संजय गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे, और वो गाहे बगाहे इस बात तो सार्वजनिक रूप से कहती भी थी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था सतहत्तर में कांग्रेस की कारी हार के बाद जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो इंदिरा गांधी मेनका को लेकर बेहद चिंतित रहने लगी उन्होंने अपनी दोस्त पुपुल जयकर से अपनी चिंता जताते हुए कहा भी था कि मेनका की मां की महात्वाकांक्षा उसको संजय की जगह लेने के लिए प्रेरित करेगी इस सोच को बल मिला खुशवंत सिंह के एक लेख से जिसमें उन्होंने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि संजय की मौत के उनकी राजनीतिक वारिस मेनका हैं खुशवंत सिंह ने यह भी लिखा कि मेनका संजय गांधी की तरह बहादुर हैं और दुर्गा की अवतार हैं जाहिर है खुशवंत सिंह के इस लेख से इंदिरा गांधी आहत हुई क्योंकि बांग्लादेश युद्द में विजय के बाद इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से होने लगी थी खुशवंत की इस तुलना से इंदिरा गांधी के मन में इस बात का संदेह पैदा हो गया कि मेनका की रजामंदी के बाद ही खुशवंत ने वो लेख लिखा मेनका गांधी को घर वापस निकालने  के इंदिका गांधी के फैसले पर भी यह किताब प्रकाश डालती हैं । घर से बाहर निकालने के वक्त हुए हाई वोल्टेज ड्रामा पर भी मोरो ने विस्तार से लिखा है
ये सारी बातें लिखते हुए मोरो ने किताब में एक डिस्क्लेमर भी लगाया है - बातचीत, संवाद और स्थितियां लेखक के व्याख्या पर आधारित है और यह जरूरी नहीं है कि वो प्रामाणिक भी हो इस पूरे विवाद पर जैसे अभिव्यक्ति की आजादी के झंडाबरदारों पर सवाल खड़े होते हैं उसी तरह लेखक की मंशा पर भी सवालिया निशान लगता है । सवाल वही कि क्या लेखकीय आजादी के नाम पर कुछ भी काल्पनिक लिखने की इजाजत किसी लेखक को दी जा सकती है इन्हीं सवालों के बीच अब सोनिया की यह जीवनी भारतीय पाठकों के लिए उपलब्ध है । राजनीति और राजनेताओं की किताबों की खासी बिक्री के बीच इस बात पर सबकी नजर रहेगी कि सोनिया गांधी की इस काल्पनिक जीवनी को हमारे देश का पाठक कैसे लेता है ।