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Sunday, August 28, 2016

खुद को स्थापित करने की होड़

करीब तीन चार साल पहले की बात है अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन से हुई एक मुलाकात में उनके उस वक्त प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में चर्चित हो चुके उपन्यास फ्रीडम पर काफी लंबी बातचीत हुई थी । बातचीत उनके लेखन पर शुरू हुई लेकिन हमारे यहां तो प्रशंसा की परंपरा रही है लिहाजा मैंने उनको याद दिलाना शुरू किया कि कैसे कई हफ्तों तक उनका उपन्यास फ्रीडम बेस्ट सेलर की सूची में बना रहा था । उपन्यास की शैली को लेकर अमेरिका और यूरोप के आलोचक इतने अभिभूत थे कि कई आलोचकों ने तो जोनाथन फ्रेंजन की तुलना टॉलस्टॉय और टॉमस मान से कर दी थी । मैं जब ये सारी बातें उनसे कह रहा था तो वो थोड़े असहज दिखने लगे थे और इन बातों को टालने के मूड में भी नजर आए थे । लेकिन अपन तो हिंदी साहित्य की प्रशंसा परंपरा का ख्याल रखते हुए उनको यहां तक बताने लगा था कि टाइम पत्रिका के कवर पर भी उनको जगह मिली थी और कृतियों की समीक्षा में अनुदार न्यूयॉर्क टाइम्स ने उक्त कृति को अमेरिकन फिक्शन का मास्टरपीस करार दिया था । बातचीत आगे बढ़ रही थी और प्रशंसात्मक हो रही थी जिसकी वजह से जोनाथन फ्रेंजन लगातार असहज होते जा रहे थे । टाइम मैगजीन के कवर तक आते आते जोनाथन फ्रेंजन के चेहरे पर अजीब सा भाव आने लगा था और अंतत उन्होंने कह ही दिया कि बेहतर हो कि हमारी बातचीत भारतीय लेखन की ओर मुड़े । उनके अनुरोध के बाद हमारी बातचीत भारतीय भाषाओं के साहित्य की ओर मुड़ गई थी । लेकिन एक सवाल मुझे मथ रहा था कि जोनाथन अपनी प्रशंसा क्यों नहीं सुनना चाह रहे थे । बातचीत खत्म हो गई ।
जब हम वहां से चले तो इस पूरे प्रसंग के बाद अचानक मुझे नीरद सी चौधरी की किसी किताब में लिखे शब्द याद आने लगे कि ब्रिटिश लेखक मुंह पर अपनी तारीफ सुनते ही असहज होने लगते हैं और खुद से तो कभी भी अपनी तारीफ नहीं ही करते हैं । संभव है कि अमेरिकन लेखकों में भी कुछ इसी तरह की मानसिकता रही हो, कम से कम जोनाथन फ्रेंजन में तो इसी तरह की मानसिकता दिखी थी । इधर अपने हिंदी साहित्य पर नजर डालिए तो स्थिति कितनी भिन्न नजर आती है । यहां लेखक खुद की प्रशंसा का एक भी मौका नहीं गंवाना चाहते हैं । सामने वाला प्रशंसा करने लगे तो फिर क्या कहने । लेख से लेकर कविता तक, उपन्यास से लेकर कहानी तक हर जगह और हर विधा में प्रशंसाकामी लेखक आपको घूमते टहलते मिल जाएंगें । अगर आपने तारीफ कर दी तो वो उस तारीफ को जोर-शोर से विज्ञापित भी करेंगे और तारीफ के वाक्य को सोशल मीडिया से लेकर हर मंच पर उसकी चर्चा की जुगत में रहेंगे ।
प्रशंसा सिंन्ड्रोम से वैसे लेखक ज्यादा ग्रसित हैं जिन्होंने कम लिखा है । इधर इधर से सामग्री इकट्ठा कर उपन्यास बना देना, रिपोर्ताज को कहानी की शक्ल में पेश कर देने वाले लेखक और कविता के नामपर भाषणबाजी करनेवाले कवि इसके सबसे ज्यादा शिकार हैं उनकी अपेक्षा रहती है कि उनकी कृति को महान कह दिया जाए । दरअसल ये उसी मनोविज्ञान का हिस्सा है जहां अगर गली मोहल्ले का कोई नेता गली में खडंजा या सड़क बनवा देता है तो पूरे इलाके में खुद को विकास पुरुष करार देते हुए पोस्टर लगा देता है । विकास पुरुष का मतलब क्या होता है ये जाने समझे बगैर । हिंदी साहित्य में भी आपको हर नुक्कड़ पर विकास पुरुष नजर आएंगे जो लगातार अपनी एक दो रचना को जोरदार तरीके से विज्ञापित करते घूमते हैं । गली मोहल्ले के नेता खुद को राजनीतिक महात्वाकांक्षा के चलते विकास पुरुष घोषित करते हैं उधर साहित्य के इन विकास पुरुषों की नजर छोटे मोटे पुरस्कारों पर टिकी रहती है । यही हाल कमोबेश हिंदी में लिखे जा रहे ज्यादातर संस्मरणों की भी है । यहां भी लेखक खुद को स्थापित करने में जुटा नजर आता है ।  
नामवर सिंह के नब्बे साल के उपल्क्ष्य में दिल्ली में जो जश्न हुआ था उस मौके पर महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन का उनपर केंद्रित एक अंक प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह के संपादन में निकला था । उस अंक में करीब करीब जितने आलोचकों ने नामवर सिंह पर लिखा है सबके लेख में ये साबित करने की एक होड़ दिखाई देती है कि वो नामवर जी के कितने करीब थे या नामवर जी ने उनकी किन किन मौके पर कितनी तारीफ की । नामवर जी उनके किन किन पारिवारिक समारोहों में शामिल हुए। कुछ में तो यहां तक है कि नामवर सिंह ने उनको बुलाकर नौकरी दी ।  बहुवचन के इस अंक में साहित्य से जुड़े लोगों के लेख में नामवर निकटता का एक साझा सूत्र दिखाई देता है । यह प्रवृत्ति खासतौर पर उनमें ज्यादा दिखाई देती है जो विश्वविद्लायों में शिक्षक रहे हैं । वहीं जब साहित्येतर लोगों के उनपर लिखे संस्मरणों को देखें तो उसमें नामवर सिंह को लेकर एक अलग तरह की संवेदना दिखाई देती है- चाहे वो राम बहादुर राय का लेख हो या फिर संतोष भारतीय का ।
संस्मरण एक तरफ तो खुद को विकास पुरुष बताने की पूर्व पीठिका तैयार करने का माध्यम बनता है तो दूसरी तरफ अपनी खुंदक निकालने का भी । बहुवचन के इसी अंक में नामवर सिंह का अशोक वाजपेयी ने मूल्यांकन किया है । अपने विद्वतापूर्ण आलेख में अशोक जी ने नामवर जी के मूल्यांकन के चार आधार बताते हुए उसको अपने हिसाब से व्याख्यायित किया है । अशोक जी के मुताबिक विचारधारा के अतिरेक के अलावा नामवर सिंह के यहां तीन और अतिचार सक्रिय हैं- वाचिकता, अवसरवादिता और सत्ता का आकर्षण । नामवर सिंह की वाचिकता पर हिंदी साहित्य में लंबी बहस हो चुकी है लिहाजा अशोक वाजपेयी ने कोई नया सत्य उद्घाटित नहीं किया है ना ही ही कोई नई मान्यता स्थापित की है । इस बारे में काफी लिखा जा चुका है और नामवर सिंह ने भी कई बार अपने तर्क रखे हैं । रही बात अवसरवादिता और सत्ता के आकर्षण की  । अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह के साहित्यक आचरण में अवसरवादिता को अंतर्प्रवाह बताया है । इस पर बहस हो सकती है । नामवर सिंह पर उन्होंने सत्ता के आकर्षण का आरोप लगाते हुए कहा कि वो सत्ताधारियों के मंच पर होने पर बहुत विनम्र हो जाते हैं । संभव है कि अशोक जी ने देखा होगा और आंखो देखी पर संदेह करना उचित नहीं जान पड़ता है । वैसे भी सत्ता के आकर्षण के अशोक वाजपेयी के आंकलन पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता है क्योंकि सत्ता से नजदीकी का अशोक जी को अप्रतिम अनुभव है । मुझे तो वो प्रसंग भी याद है जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे तब वो अपने एक कविता संग्रह की भूमिका नामवर सिंह से लिखवाना चाहते थे ।उस वक्त नामवर सिंह ने वी पी सिंह को कहा था कि लोग कहेंगे कि आप प्रधानमंत्री होकर कविता छपवा रहे हैं, इसलिए मैं भूमिका नहीं लिखूंगा । जबकि विश्वनाथ प्रताप सिंह उदय प्रताप कॉलेज में नामवर सिंह के साथ पढ़ते थे और उनके पारिवारिक संबंध थे। यह अवश्य है कि नामवर सिंह के वी पी सिंह और चंद्रशेखर के साथ रिश्ते थे लेकिन इन रिश्तों का कभी कोई लाभ नहीं लिया । नामवर सिंह को जो भी पद मिले को उनके कद के हिसाब से ही थे । अशोक जी ने अपने संस्मरण में एक बहुत ही खतरनाक संकेत किया है कि जातिवाद का भी जब वो अमृत महोत्सव का हवाला देते हैं – सभी राजनेता थे, राजनीति और वर्तमान या भूतपूर्व सत्ताधारी होने की समानता थी- वे संयोगवश एक हीवर्ण के ही थे । नामवर सिंह पर ठाकुरवाद का बहुधा आरोप लगता रहा है लेकिन उनके नब्बे साल के करियर पर ठीक से विचार करें तो यह आरोप समय समय पर गलत भी साबित होते रहे हैं ।

उक्त प्रसंगों के उल्लेख का उद्देश्य साहित्यकारों में बहुधा देखेजानेवाले प्रशंसाकामना पर टिप्पणी करना था साथ ही किसी अन्य पर लिखे संस्मरणों के बहाने अपने को साबित करने की लालसा को रेखांकित करना भी। इस मायने में हिंदी के साहित्यकार विदेशी साहित्यकारों से कितने अलग हैं । राजेन्द्र यादव अगर जीवित होते तो मेरे इस लेख को पढ़कर कहते कि हिंदीवालों को लेकर छाती कूटना बंद करो । जब देखा तब हाय ये नहीं है हाय वो नहीं करने लग जाते हो । आज उनका जन्मदिन है इस वजह से उनका स्मरण हो आया । उनके जन्मदिन के मौके पर आदरपूर्वक उनके सामरे फिर से हमारा वही तर्क होता कि जब तक हम अपनी कमियों खामियों पर उंगली नहीं रखेंगे या पके हुए घाव को फोड़कर मवाद बाहर नहीं निकालेंगे तो घाव अंदर ही अंदर फैलता रहेगा जो कि बेहद खतरनाक होगा । 

1 comment:

अजय कुमार झा said...

इस विषय पर आपसे बेहतर और इससे बेहतर कुछ नहीं लिखा कहा जा सकता ।