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Saturday, September 10, 2016

पुरस्कारों का खुला खेल

फिल्म नास्तिक में कवि प्रदीप का लिखा एक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था । उस गीत का मुखड़ा है– देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान/ कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान/सूरज ना बदला / चांद ना बदला /ना बदला रे आसमान/कितना बदल गया इंसान/कितना बदल गया इंसान/ आया समय बड़ा बेढ़ंगा /आज आदमी बना लफंगा । गाना तो ये फिल्म की थीम के हिसाब से फिट बैठता था लेकिन अगर इस गाने को आज के साहित्यक परिदृश्य, खासकर साहित्यक पुरस्कारों के संदर्भ में देखें तो वहां भी सटीक प्रतीत होता है । गीत के बोल में चंद शब्दों के हेर फेर से पूरा का पूरा हिंदी का साहित्यक परिदृश्य जीवंत हो सकता है । संसार की जगह साहित्य संसार कर दें और इंसान की जगह लेखक कर दें तो स्थिति बिल्कुल साफ हो जाएगी । हिंदी में पुरस्कारों को लेकर जो हालात बन रहे हैं वो बेहद चिंताजनक हैं । अब से कुछ समय पहले तक साहित्यक पुरस्कारों को लेकर सेटिंग गेटिंग का खेल पर्दे के पीछे चलता था जिसके बारे में चंद लोगों को ही पता चल पाता था या फिर साहित्यक बैठकों में उसपर चर्चा होकर खत्म हो जाती थी । पिछले दिनों इस बात को लेकर खूब चर्चा रही थी कि किस तरह से एक उपन्यासकार ने खुद के लिए पुरस्कार को लेकर व्यूहरचना की थी  और उसमें वो सफल भी रहे थे । दबी जुबान में इसकी चर्चा रही थी लेकिन खुलकर बात सामने नहीं आ पाई थी । वो बात भी इस वजह से खुल गई थी कि पुरस्कार के आयोजकों ने पहले किसी दूसरे उपन्यासकार को पुरस्कार देने की बात कह डाली थी लेकिन बाद में बदली हुई परिस्थिति में किसी अन्य को वो पुरस्कार मिला । आहत उपन्यासकार ने बात खोल दी थी । इसी तरह से साहित्य अकादमी के पुरस्कार को लेकर भी तमाम तरह के दंद-फंद होते रहते हैं लेकिन वो कभी इतने ओवियस नहीं होते कि पाठकों तक को ये पता लग जाए कि ये होनेवाला है या फिर इस वजह से ये हुआ । अब तो खुला खेल फरूखाबादी हो गया है और साफ-साफ दिखने लगा है कि किस वजह से अमुक लेखक को पुरस्कार मिला है । इस खेल के खुलने में फेसबुक का बड़ा योगदान है । फेसबुक पर प्रसिद्धि की चाहत लेखकों को आयोजनों आदि की तस्वीर डालने के लिए दबाव बनाती है । आयोजनों की तस्वीरों और बाद में पुरस्कारों की सूची पर नजर डालेंगे तो एक सूत्र दिखाई देता है । उस सूत्र को पकड़ते ही सारा खेल खुल जाता है । और हां ये सूत्र कोई गणित के कठिन सूत्र की तरह नहीं होता है यहां बहुत आसानी से इसको हल किया जा सकता है । किसी पुरस्कार या लेखक का नाम लेकर मैं उनकी साख पर सवाल खड़ा करना नहीं चाहता हूं लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत करना चाहता हूं कि साहित्य में इस तरह की बढ़ती प्रवृत्ति से उसके सामने साख का संकट बड़ा हो सकता है ।

अब अगर पुरस्कारों की सूची देखी जाए तो ये बात भी साफ तौर पर नजर आती है कि कुछ पुरस्कार तो उसको देनेवाले अपनी साख मजबूत करने के लिए देते हैं । कुछ महीनों पहले हिंदी के वरिष्ठ और बेहद संजीदा कथाकार ह्रषिकेश सुलभ ने एक बातीचत में कहा था एक वक्त जिन साहित्यकारों की साहित्य में दुंदुभि बजती थी उनका आज कोई नामलेवा नहीं है । उनका मानना था कि समय सबसे बड़ा निकष है और पाठक अच्छे बुरे को छांट लेता है । यहां विनम्रतापूर्वक सुलभ जी को याद दिलाना चाहता हूं कि इन दिनों लेखकों को समय रूपी निकष की परवाह नहीं है बल्कि वो पुरस्कारों को इसकी कसौटी मानकर चल रहे हैं । पुरस्कारों को लेकर ह्रषीकेश सुलभ का मानना है कि अगर मंशा लेखन को सम्मानित करने का है तो बहुत अच्छा है लेकिन अगर मंशा पुरस्कार के बहाने खुद यानि आयोजकों का स्वीकृत होना है तो ये सम्मान के साथ छल है । ये छल इन दिनों साफ तौर पर कई पुरस्कारों में दिखाई देता है । छोटे-छोटे पुरस्कार बड़े-बड़े लेखकों को उनके उन योगदान पर दिया जा रहा है जो अपेक्षाकृत लेखकीय अवदान से कमजोर हैं । हाल के दिनों में पुरस्कृत लेखकों और उनको पुरस्कृत किए जाने की विधा या वजह पर नजर डालें तो तो इसको साफ तौर पर लक्षित किया जा सकता है । साहित्यक पत्रकारिता के लिए उनको पुरस्कृत किया जा रहा होता है जो पिछले कई दशकों से किसी साहित्यक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं लेकिन उसी श्रेणी में कई बार ऐसे लेखकों को पुरस्कृत कर दिया जाता है जो जुम्मा जुम्मा चार दिनों से साहित्यक पत्रकारिता में डग भरना सीख रहे हैं । साफ है कि पुरस्कार आयोजकों की मनमर्जी से या फिर किसी अन्य वजह से तय किए जाते हैं । जाहिर है कि ये वजह साहित्येतर ही होते हैं ।
हिंदी में एक दौर में जिस तरह से लघु पत्रिकाएं निकलने लगी थीं और एक दो अंक निकालकर संपादक बनने का उपक्रम चला था उसी तरह से अब पुरस्कारों के कारोबारी सक्रिय हो गए हैं । उनकी सक्रियता की कई वजहें हैं और उन वजहों की पड़ताल की जानी आवश्यक है । इन वजहों को लेकर साहित्य में गंभीर और देशव्यापी बहस भी होनी चाहिए । पुरस्कार देकर अपने को प्रासंगिक बनाने के इस उपक्रम में लेखकों का लाभ नहीं हो रहा है बल्कि कई बार तो नए लेखकों का दिमाग इतना खराब हो जाता है कि वो खुद को टॉलस्टाय समझने लगता है । नतीजा यह होता है कि उसका रचनात्मकता खत्म होने लगती है और एक संभावना की असमय मौत हो जाती है । यह स्थिति हिंदी साहित्य के लिए बेहद खराब है । हिंदी और साहित्य से प्यार करनेवालों को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए फौरम कदम उठाने की आवश्यकता है । पुरस्कारों के इस लेन-देन के कारोबार पर अगर हिंदी साहित्य में जल्द रोक नहीं लगाई गई तो फिर वो दिन दूर नहीं जब बड़े से बड़े पुरस्कार को लेकर साहित्य जगत में कोई स्पंदन नहीं होगा ।  

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