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Thursday, October 6, 2016

डेमोक्रेसी और कुनबापरस्ती

अमेरिका के ब्राउन युनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टडीज और सोशल साइंसेज के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने अपनी किताब बैटल्स ऑफ वन, इंडियाज इंप्रोबेबल डेमोक्रेसी में लिखा है कि भारत में अपनी पहचान को लेकर सजग रहनेवालों की बीच की खाई क्षेत्रीय रही है जिससे देश की केंद्रीय सत्ता के खिलाफ एकजुटता संभव नहीं हो पाई । इसी तरह से वो जाति को राज्य की राजनीति के बीच विभाजक की भूमिका में देखते हैं जो किसी राज्य विशेष को गणतंत्र को मजबूत चुनौती देने से रोकता है । इसके आदार पर कहा जा सकता है कि जातियों के नेता एक राष्ट्र के तौर पर प्रकारांतर से भारतीय गणतंत्र को मजबूती प्रदान करते हैं । यह लोकतंत्र का एक श्वेत पक्ष हो सकता है लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है । जातियों पर आधारित क्षेत्रीय दलों के नेताओं का परिवारवाद को बढ़ावा देना लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को निगेट करना है । हमारे देश में इसका नमूना कई प्रदेशों में देखने को मिलता है । उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार, बिहार में लालू यादव और उनका कुनबा, तमिलनाडू में करुणानिधि और उनका परिवार, आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव और उनका परिवार, जम्मू कश्मीर में शेख अबदुल्ला और उनका परिवार । इन बड़े उदाहरणों के अलावा कई छोटे छोटे उदाहरण भी इस वक्त भारतीय राजनीति में मौजूद हैं । जैसे उत्तर प्रदेश में ही अगर देखें तो अपना दल के नेता सोनेलाल पटेल और उनका परिवार । लोकतंत्र में परिवारवाद को बढ़ावा देने के झंझटों से भले ही अलग अलग जातियों के एकजुट होने का खतरा पैदा नहीं होता हो लेकिन इससे लोकतंत्र अलग तरीके से कमजोर होता है ।
राजनीतिक विश्लेषक और शोधकर्ता इसको इस तरह से भी देखते हैं कि यादवों के अलग अलग सूबों में अलग अलग नेता हैं लिहाजा उनका एक साथ खड़े होकर किसी स्थापित मान्यता को चुनौती देना संभव नहीं दिखता है । संभव है कि राजनीति शास्त्र के सिद्धातों की कसौटी पर ये सैद्धांतिकी मजबूत नजर आए लेकिन जिस तरह से इन नेताओं की विरासत को लेकर जंग होती है वो कबीलाई सरदारों की जंग की तरह नजर आती है । फर्क सिर्फ इतना है कि कबीलाओं में सत्ता को लेकर हिंसक झगड़े हुआ करते थे लेकिन इस जंग में खून नहीं बहता है । सत्ता को लेकर सियासी दांव पेंच तो उसी तरह के चलते हैं और अंत में कबीले के सरदार के फैसलों को मानने के लिए सभी बाध्य होते हैं । हाल ही में इसका नमूना उत्तर प्रदेश में देखने को मिला जहां यादवों के नेता मुलायम सिंह यादव की विरासत को लेकर उनके बेटे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई और सूबे में मंत्री शिवपाल यादव के बीच तलवारें खिचीं थी । उपर से देखने पर ये भले ही अमर सिंह या फिर अन्य मसलों को लेकर अधिकारों की लड़ाई लगे लेकिन दरअसल ये पूरा झगड़ा मुलायम की विरासत पर कब्जे की जंग को लेकर है । अखिलेश को लगता है कि मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने की वजह से उनकी सियासी विरासत पर उनका हक है, उधर शिवपाल सिंह यादव लगातार इस बात का संकेत देते रहते हैं कि नेताजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उन्होंने समाजवादी पार्टी को खड़ा किया है । जहां जहां कुनबा बड़ा है वहां सत्ता का ये संघर्ष भी बड़ा है और हर कोई अपने हिस्से को लेकर सजग और आक्रामक दिखाई देता है ।
सुदूर दक्षिण में भी अगर देखें तो अलग अलग मौके पर पांच बार तमिलनाडू में सत्ता संभालने वाले करुणानिधि के कुनबे में भी जो कलह हुआ था उसके पीछे भी वजह तमिल राजनीति के इस पुरोधा की राजीतिक विरासतत ही थी । करुणानिधि के बेटों अड़ागिरी और स्टालिन के बीच जमकर झगड़ा हुआ । एम के स्टालिन ने बहुत करीने से डीएमके कार्यकर्ताओं के बीच अपने को करुणानिधि के वारिस के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया था उधर अड़ागिरी मदुरै और उसके आसपास के इलाकों में अपनी ताकत बढ़ाने में जुटे थे । दोनों के बीच के संघर्ष में करुणानिधि ने स्टालिन को चुना और अड़ागिरी पार्टी से बाहर हो गए । पारिवारिक सत्ता संग्राम में भाई भतीजों के बीच भी मलाई बंटती है और कालांतर में वो भी इस संघर्ष में इस या उस पक्ष के साथ हो जाते हैं । ये मुलायम परिवार में भी देखने को मिला और यही करुणानिधि के परिवार में भी रेखांकित किया जा सकता है । आंध्र प्रदेश की राजनीति में भी एन टी रामाराव की विरासत को लेकर उनके परिवार में संघर्ष हुआ था । एन टी रामाराव को तो उनके दामाद ने चंद्रबाबू नायडू ने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ कर दिया क्योंकि उनको शक था कि एनटीआर अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को सत्ता सौंपना चाहते थे । उस वक्त एनटी रामाराव के बेटों ने चंद्रबाबू का साथ दिया था लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही को नायडू ने सबको किनारे लगा दिया । अब्दुल्ला परिवार के बेटों और दामाद के बीच सत्ता को लेकर विवाद हुआ था । अभी हाल में बिहार में जब लालू यादव की पार्टी सत्ता में लौटी थी तो उनके बेटों और बेटी के बीच उपमुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद की खबरें आई थी ।

इन पार्टियों में इस तरह का झगड़े इस, वजह से भी होते हैं कि ये किसीएक शख्स के इर्दगिर्द चलनेवाले दल हैं और किसी विचारधारा से इनका बहुत लेना देना होता नहीं है । विचारधाराओं के आधार पर चलनेवाली पार्टियों में सत्ता संघर्ष का इतना वीभत्स रूप दिखाई नहीं देता है । चुनाव की बुनियाद पर टिकी हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और नेशनहुड की बहस के बीच इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से विचार की जरूरत है । 

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की विजयदशमी विशेषांक बुलेटिन, "ब्लॉग बुलेटिन परिवार की ओर से विजयादशमी की मंगलकामनाएँ “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !