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Friday, February 10, 2017

इंसाफ में देरी पर सवाल

अच्छा होता अगर उपहार हादसे के बाद मैंने कानून को अपने हाथ में लेकर अपराधियों को मार दिया होता । कानूनी प्रक्रिया में मुझे चौदह साल की जेल होती और चौदह साल की जेल की सजा काटकर में अब सुकून से जिंदगी जी रही होती – यह बयान है पिछले बीस साल से अदालतों का चक्कर लगा रही और उपहार अग्नि-कांड में अपने दो बच्चों को गंवाने वाली नीलम कृष्णमूर्ति का । नीलम कृष्णमूर्ति का यह बयान देश की न्यायिक व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल है । बीस साल से कोर्ट कचहरी का थका देनेवाला चक्कर, आरोपियों की तरफ से धमकी, और सबसे अधिक अपने बच्चों को खोने का गम जिन्हें नहीं तोड़ सका उनको सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तोड़कर रख दिया । सुप्रीम कोर्ट ने उपहार अग्निकांड में जानेमाने बिल्डर गोपाल अंसल को एक साल की सजा सुनाई लेकिन उसके बड़े भाई सुशील अंसल को उनकी इम्र का हवाला देते हुए सजा नहीं देने का फैसला सुनाया । सुशील अंसल की उम्र लगभग सतहत्तर साल बताई जा रही है । अब अगर सत्तावन साल की उम में किसी ने कोई अपराध किया और अदालतों में मामला बीस साल तक चल गया तो क्या उसको इस बिनाह पर बरी किया जा सकता है या जेल नहीं भेजा जा सकता है कि वो बहुत लंबी उम्र का है । क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सभी जेलों में बंद अस्सी साल के उम्र के कैदियों को रिहा कर दिया जाना चाहिए । ये कुछ असुविधाजनक सवाल हैं जो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद खड़े हो रहे हैं । जून उन्नीस सौ सत्तानवे में दिल्ली के उपहार सिनेमा हाल में आग लग गई थी जिसमें उनसठ लोग जलकर मर गए थे । लंबी अदालती लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सिनेमा हॉल के मालिक अंसल बंधुओं को गोर लापरवाही का दोषी माना था । सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सिनेमा हॉल का मालिक होने की वजह से वहां जाने वाले दर्शकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी है । कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अंसल बंधुओं की रुचि लोगों की सुरक्षा से ज्यादा पैसे बनाने में थी । सिनेमाघर में सीटें बढ़ाए जाने से बाहर निकलने का रास्ते बंद हो गए थे जिसकी वजह से जब आग लगी तो वहां बैठे दर्शक हॉल से बाहर नहीं निकल सके थे और धुंए की वजह से उनकी दम घुटने से मौत हो गई। कोर्ट ने बचाव पक्ष की इस दलील को भी खारिज कर दिया था कि अंसल बंधु सिनेमा हॉल के रोज के कामकाज में दखल नहीं देते हैं । कोर्ट ने कहा था कि दस्तावेजों और सबूतों से यह साफ है कि सिनेमा हॉल के आर्थिक मामलों को वो दोनों लगातार देखते थे । अब सवाल यही है कि इतना सबका दोषी ठहराए जाने के बावजूद सुशील अंसल को बरी कर देना कहां तक उचित है । क्या कानून अलग अलग वर्ग और आय वर्ग के लोगों के लिए अलहदा होता है । क्या सचमुच न्याय की देवी की आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है । कानून की यह कैसी व्याख्या है जो दोषियों को बख्श देने के लिए उम्र और बीमारी का आधार लेती है । इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर सवाल खड़ा नहीं किया जा रहा है लेकिन फैसले पर सवाल उठाने का हक तो संविधान ने हर भारतीय नागरिक को दिया है ।

बीस साल पहले जब उपहार हादसा हुआ था तब सीबीआई ने मुंबई से अंसल बंधुओं को गिरफ्तार किया था । उसी साल सीबीआई ने अंसल बंधुओं समेत सोलह लोगों पर चार्जशीट दाखिल कर दी थी । करीब डेढ साल बाद ट्रायल शुरू हुआ औ तीन साल बाद आरोप तय किए गए । गवाहों के बयान औरर सबूतों पर जिरह और हाईकोर्ट के दखल के बाद नवंबर दो हजार सात में निचली अदालत ने इस केस में फैसला सुनाया था । यानि हादसे के दस साल बाद । इस फैसले में अंसल बंधुओं को दो साल की सजा सुनाई गई थी । इसके बाद न्याय के लिए लड़ाई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी लगभग दस साल चली । हाईकोर्ट ने अंसल बंधुओं की सजा को घटाकर एक साल कर दिया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखा । फिर ट्रामा सेंटर बनाने के लिए दोनों पर तीस तीस करोड़ का जुर्माना लगाया गया जिसे उन्होंने जमा करवा दिया। फिर अब पुनर्विचार याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने गोपाल अंसल को बाकी बची सजा काटने के लिए चार हफ्ते में सरेंडर करने का हुक्म दिया और सुशील को सजा से राहत दे दी । इस पूरे मामले में तो दोषी न्यायिक प्रक्रिया हुआ । अगर वक्त रहते इस मामले में सजा सुना दी जाती तो सुशील अंसल को राहत नहींमिल पाती क्योंकि तब वो साठ या बासठ साल के होते । न्यायालयों में लगनेवाले समय पर सुप्रीम कोर्ट को भी विचार करना होगा । निर्भया हत्याकांड में भी चार साल बीच चुके हैं सेकिन सजा पर अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है । सुप्रीम कोर्ट को कोई ऐसा रास्ता तलाशना चाहिए जिसमें समाज को प्रभावित करनेवाले अपराध पर जल्द से जल्द फैसला देकर एक संदेश देने की कोशिश करनी चाहिए । अगर इस तरह के सामाजिक अपराधों में भी न्याय मिलने में देरी होगी तो फिर् न्यायिक व्यवस्था में लोगों का भरोसा छीजने लगेगा । लोकतंत्र के लिए यह बहुत दुखद होगा कि जनता का न्यायपालिका में भरोसा कम हो ।  

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