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Tuesday, March 28, 2017

क्षेत्रीय क्षत्रपों की अहमियत

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों के दिन एक न्यूज चैनल पर चर्चा के दौरान बीजेपी के एक उत्साही नेता ने लगभग नारेबाजी की शक्ल में कहा कि ये बीजेपी से ज्यादा नरेद्र मोदी की जीत है । बहुत विनम्रता से उनको नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने के पहले बीस मई दो हजार चौदह को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में दिया भाषण याद दिलाया । उस भाषण में उन्होंने भावुक होकर कहा था कि पार्टी उसके कार्यकर्ता के लिए मां समान होती है और मां पर कोई कृपा नहीं करता है बल्कि सेवा करता है । कहना ना होगा कि नरेन्द्र मोदी अपने इस वाक्य से पार्टी और संगठन की अहमियत बता रहे थे । प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ने पार्टी और संगठन की अहमियत को दरकिनार नहीं किया। उन्होंने लगभग तीन वर्षों के अपने कार्यकाल में बीजेपी को सांगठनिक रूप से मजबूत करने काम किया । जिन राज्यों में बीजेपी को विधानसभा चुनावों में जीत मिली वहां उन्होंने स्थानीय नेतृत्व को उभारने और मजबूत करने की योजना पर गंभीरता से काम हुआ । उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को सूबे की कमान सौंपकर एक बार नरेन्द्र मोदी ने फिर से अपनी इस कार्ययोजना को परवान चढाया । मोदी ने योगी को मुख्यमंत्री बनाकर आडवाणी-वाजयेपी युग से आगे जाकर पार्टी को युवा नेतृत्व देने का साहस भी दिखाया । ना सिर्फ योगी को बल्कि अपने विश्वासी रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर को भी गोवा भेजकर वहां पार्टी की स्थिति मजबूत करने का दांव चल दिया । पार्रिकर के दिल्ली आने के बाद से पार्टी गोवा में बिखर गई थी । इसके पहले भी उन्होंने महाराष्ट्र में ब्राह्णम देवेन्द्र फड़णवीस को, झारखंड में गैर आदिवासी रघुवर दास को, हरियाणा में गैर जाट मनोहर लाल खट्टर को, असम में सर्वानंद सोनोवाल को सूबे की कमान सौंपी थी । गुजरात में तमाम अटकलों के बावजूद विजय रूपानी को कमान मिली थी । विधानसभा चुनावों में जीत के बाद तो अटकलें ये भी लग रही हैं कि शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा को दिल्ली लाकर वहां नए नेतृत्व के हाथ में सत्ता दी जाएगी । अगर ऐसा होता है एंटी इनकंबेंसी को कम करने की कोशिश के तौर पर देखा जाएगा । दरअसल अगर देखा जाए तो मोदी उन लोगों को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं जिनकी छवि बेदाग है और जो दबाव में नहीं आते हैं । देवेन्द्र फड़णवीस को ही लें तो वो शिवसेना के जरा भी दबाव में नहीं आते हैं और पार्टी को लगातार मजबूत भी करते चल रहे हैं । ऐसी ही छवि योगी आदित्यनाथ की भी है । इसके साथ ही मोदी जिनको चुनते हैं उनके आसपास एक कवच भी तैयार कर देते हैं जैसे योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद फौरन सूबे के सभी सांसदों को बुलाकर संदेश दे दिया कि वो ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए मुख्यमंत्री के पास सिफारिश ना करें । इस तरह से वो स्थानीय या क्षेत्रीय नेतृत्व को मजबूत करते हैं । राजनीतिक तौर पर इसके कई फायदे हैं । एक तो संगठन मजबूत हो रहा है दूसरे अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाकर नरेन्द्र मोदी अपनी स्थिति को भी मजबूत कर रहे हैं । हलांकि इस वक्त पार्टी में उनको कोई चुनौती नहीं है लेकिन वो भविष्य के मद्देनजर अपनी रणनीति तय करते चल रहे हैं ।

अब बीजेपी की तुलना में अन्य दलों में देखें तो इसका साफ अभाव दिखता है । कांग्रेस ने सायास वर्षों तक स्थानीय नेतृत्व को कमजोर करने का ही काम किया। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक ने किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को मजबूत नहीं होने दिया । कांग्रेस के इन दो नेताओं के दौर में शायद ही कोई ऐसा मुख्यमंत्री होगा जिसने पद पर अपना कार्यकाल पूरा किया हो । कांग्रेस में इंदिरा गांधी के दौर में किचन कैबिनेट और राजीव गांधी के दौर में कोटरी हुआ करती थी, इनमें तमाम वो नेता होते थे जो गणेश परिक्रमा में यकीन रखते थे । लंबे समय तक चली इस कोटरी की पॉलिटिक्स ने कांग्रेस को पंगु कर दिया । सांगठनिक क्षमताओं की बजाए उन नेताओं को तरजीह दी जाने लगी जो नेता व्यक्ति पूजा में प्रवीण थे । यही वह दौर था जब भारत को राजवंशीय लोकतंत्र कहा जाने लगा था क्योंकि एक परिवार के इर्दगिर्द पार्टी सिमट गई थी । इंदिरा गांधी ने जिस दरबारी संस्कृति को बढावा दिया था उसको संजय-राजीव-सोनिया ने आगे बढ़ाया । राहुल गांधी ने जरूर शुरुआत में संगठन के चुनाव आदि की पहल की थी लेकिन उसको वो आगे नहीं बढ़ा पाए और दरबारियों ने उनको अपने चंगुल में ले लिया । कांग्रेस की इस राजवंशीय संस्कृति का असर अन्य पार्टियों पर भी पड़ा चाहे वो डीएमके हो, एआईएडीएमके हो,नेशनल कांफ्रेंस हो, जेडीएस हो, समाजवादी पार्टी हो । समाजवादी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और डीएमके जैसी कुछ पार्टियों के नेताओं ने अपने बेटों को पार्टी सौंप दी लेकिन मायावती, ममता और जयललिता ने दूसरी पंक्ति के नेता तैयार नहीं किए । नीतीश कुमार तक ने इस मसले पर कुछ खास नहीं किया । बहुधा यह इस वजह से भी होता है कि इनको लगता है कि अगर मजबूत नेता उभर गया तो उनकी कुर्सी को खतरा हो सकता है । इस मनोविज्ञान के तहत ही कमजोर नेताओं को आगे बढाया जाता है। कांग्रेस को अगर दो हजार चौबीस के लोकसभा चुनाव में मुकाबले में रहना है तो उसको अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों को अहमियत देनी होगी, क्योंकि पार्टी की जो हालत है उसमें दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव तक उसको सांगठनिक रूप से मजबूत कर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को चुनौती देना संभव नहीं लग रहा है । कांग्रेस के नेता भले ही पार्टी में बदलाव की बात करें लेकिन ये बदलाव जमीनी होंगे तभी लाभ हो पाएगा । 

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