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Saturday, May 13, 2017

नंबर टू के झगड़े में AAP का बंटाधार! ·

आम आदमी पार्टी का झगड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। जो चीजें सामने नहींआ रही थीं वो भी अब सामने आने लगी हैं। अरविंद केजरीवाल पर अपने रिश्तेदारों को आर्थिक फायदा पहुंचाने का आरोप लगा है। एक समय में उनके लेफ्टिनेंट रहे दिल्ली के मंत्री कपिल मिश्रा ने ही केजरीवाल पर पैसों के लेनदेन का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ छवि केजरीवाल की सबसे बड़ी पूंजी थी। उनकी ईमानदारी को चौबीस कैरेट का माना जाता था, लेकिन जिस तरह से आरोप लग रहे हैं उससे उनकी बेदाग छवि पर बट्टा लग रहा है। दरअसल कपिल मिश्रा भी उस रणनीति को अपना रहे हैं जोकेजरीवाल अपनाते थे। आरोप लगाकर नेताओं को संदिग्ध बना देना। केजरीवाल ने तो अपनी उस रणनीति को मीडिया के कंधे पर बैठकर सत्ता तक पहुंचा दिया था लेकिन कपिल मिश्रा कहां तक पहुंचा पाएंगे यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। लेकिन इतनी कम अवधि में दिल्ली में प्रचंड बहुत हासिल करनेवाली पार्टी का ये हश्र होगा इसकीकल्पना तक किसी ने नहीं की थी। एक बार मैंने इनकी पार्टी की गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए ट्वीट किया था कि अनुभवहीनता का कोई विकल्प नहीं होता तो दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को ये टिप्पणी बुरी लगी थी और उन्होंने ट्वीट पर ही उसका प्रतिवाद भी किया था । अब एक बार मनीष जी से आग्रह है कि वो फिर से मेरी टिप्पणी पर दौर करेंगे तो उनको अपनी टिप्पणी तात्कालिकता में की गई प्रतीत होगी। खैर ये अलहदा मुद्दा है।
अब हम इस बात पर विचार करते हैं कि आम आदमी पार्टी में इस तरह की कलह क्यों हो रही है। कई लोगों का मानना है कि कुमार विश्वास पार्टी के संयोजक बनना चाहते हैं और वो कपिल मिश्रा के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं। संभव है कि इस तरह के आंकलन करनेवालों के पास अपने तर्क हों लेकिन मेरा मानना है कि ये लड़ाई पार्टी में नंबर टू की है। कुमार विश्वास को लगता है कि अरविंद केजरीवाल के बाद वो आम आदमी पार्टी के सबसे विश्वसनीय ना भी हों तो सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं। कुमार को सुनने के लिए कवि सम्मेलनों में भीड़ लगती रही है लेकिन राजनीति में उनके कितने समर्थक हैं यह सामने आना बाकी है। कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया दोनों गाजियाबाद के पास के पिलखुआ कस्बे से आते हैं और उनको नजदीक से जाननेवालों का मानना है कि कुमार और मनीष सहपाठी भी रहे हैं। आंदोलन के दौर और उसके पहले दोनों दोस्त भी थे। लेकिन एक पुरानी कहावत है कि सत्ता ना तो दोस्त देखती है और ना ही दुश्मन, उसका अपना ही व्याकरण चलता है। अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मनीष सिसोदिया को उपमुख्यमंत्री बनाकर प्रशासनिक कमान सौंप दी। उस वक्त अरविंद केजरीवाल को लग रहा होगा कि पूरे देश को उनकी आवश्यकता है, लिहाजा वो दौरे आदि करेंगे । अरविंद अपनी इसी महात्वाकांक्षा के चलते पंजाब भी गए और गोवा का चुनाव भी लड़ा। पंजाब में प्रमु विपक्षी दल बन पाए तो गोवा विधानसभा चुनाव में पार्टी अपना खाता नहीं खोल पाई। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान केजरीवाल ने दिल्ली को कम वक्त दिया और पार्टी में नेताओं से भी दूर होते चले गए। दिल्ली पूरी तरह से मनीष के हवाले कर दिया लेकिन आंदोलन के दौर के साथी कुमार विश्वास को कुछ भी नहीं मिला। कुमार को अपेक्षा थी कि पार्टी उनका उपयोग करेगी लेकिन उनकी तो दिल्ली की हिंदी अकादमी में भी ज्यादा नहीं चल पा रही थी। अब कवि मन को जख्मी करने के लिएइतना काफी था। दूसरे जब कुमार विश्वास ने दिल्ली में अपने जन्मदिन की पार्टी रखी तो उसमें बीजेपी के नेताओं समेत दिल्ली के उस वक्त के पुलिस कमिश्नर बस्सी को आमंत्रित कर लिया था। उस जश्न में केजरीवाल साहब को भी आना था लेकिन जब केजरीवाल को वहां उपस्थित मेहमानों का पता चला तो उन्होंने काफिले को इंडिया गेट से ही वापस घर की तरफ मोड़ लिया था । ऐसी चर्चा उस वक्त राजनीतित हलकों में थी। माना जाता है कि कुमार के प्रति अविश्वास वहीं से पनप गया। यह अविश्वास बढ़ता ही गया क्योंकि दोनों के बीच संवाद भी कम होने लगे थे।

फिर राज्यसभा की तीन सीटों को लेकर पार्टी में रणनीतियां बनने लगीं। अगले साल जनवरी में दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटें खाली हो रही हैं। अगर सब सामान्य रहा तो ये तीनों सीटें आम आदमी पार्टी को मिलनी तय हैं। इन तीन सीटों के लिए कम से कम आधे दर्जन दावेदार हैं जिनमें से कुमार विश्वास भी एक हैं। कुमार को यह लगता होगा कि मनीष को उपमुख्यमंत्री का पद मिला तो उनको राज्यसभा तो मिलना ही चाहिए। अपेक्षाएं बढ़ी जा रही थीं लेकिन केजरीवाल अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं थे।इस बीच कुमार विश्वास और बीजेपी की नजदीकियों की खबरें भी फिजां में तैरती रहीं और इन खबरों ने भी पार्टी में अविश्वास को गहरा किया। दरअसल अगर हम देखें तो केजरीवाल जी अपनी पार्टी के लोगों को संभाल कर नहीं रख पा रहे हैं। आंदोलन के जमाने के उनके साथी एक एक करके उनसे अलग होते चले गए चाहे वो शाजिया इल्मी हों, शिवेन्द्र सिंह या फिर प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और योगेन्द्र यादव जैसे वरिष्ठ सहयोगी। सवाल यही उठता है कि ऐसा क्यों होता है। ऐसा इस वजह से भी होता है कि इस तरह की पार्टी में जब लोग जुड़ते हैं तो उनका कोई वैचारिक आधार नहीं होता है। वो बस किसी खास मकसद के लिए पार्टी से जुड़ते चलते हैं और वो मकसद पूरा होने और ना होने की दशा में लोगों का मोहभंग होता चलता है। आम आदमी पार्टी के साथ भी कमोबेश वही हो रहा है। दूसरी वजह होती है सत्ता की चाहत। इसके बारे में क्या कहा जाए ये तो साफ ही है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि आम आदमी पार्टी में नंबर टू होने की इस लड़ाई में कुमार को विजय मिलती है या मनीष बने रहते हैं ।      

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