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Monday, November 20, 2017

अराजक नहीं होती कलात्मक आजादी

गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के पहले विवाद की चिंगारी भड़काने की कोशिश की गई, जब दो फिल्मों को इंडियन पेमोरमा से बाहर करने पर जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया। दरअसल पूरा विवाद फिल्म सेक्सी दुर्गा और न्यूड को इंडियन पेनोरमा से बाहर करने पर शुरु हुआ है। जूरी के अध्यक्ष ने इस बिनाह पर इस्तीफा दे दिया कि उनके द्वारा चयनित फिल्म को बाहर कर दिया गया। सेक्सी दुर्गा फिल्म के निर्माता इस पूरे मसले को लेकर केरल हाईकोर्ट पहुंच चुके हैं और उन्होंने आरोप लगाया है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने गैरकानूनी तरीके से उनकी फिल्म के प्रदर्शन को रोका है। लेकिन गोवा में आयोजित होनेवाले फिल्म फेस्टिवल से जुड़े लोगों के मुताबिक कहानी बिल्कुल अलहदा है। उनका कहना है कि जूरी ने बाइस फिल्मों के प्रदर्शन की संस्तुति कर दी जबकि नियम बीस फिल्मों के दिखाने का ही है। इस कारण दो फिल्म को बाहर करना ही था। यहां यह सवाल उठ सकता है कि इन दो फिल्मों को ही क्यों बाहर का रास्ता दिखाया गया। यह संयोग भी हो सकता है और अन्य वजह भी हो सकती है। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती है।  
अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजन से जुड़े लोगों ने एक बेहद दिलचस्प कहानी बताई। उनके मुताबिक सेक्सी दुर्गा को मुंबई के एक फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन की इजाजत मंत्रालय ने नहीं दी थी और उनका नाम रिजेक्टेड फिल्मों की सूची में रखा गया था। बताया जाता है कि उसके बाद निर्माताओं ने इस फिल्म का नाम एस दुर्गा रख दिया और सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट लिया। जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म को सर्टिफिकेट दे दिया तो उसका प्रदर्शन मुंबई के फिल्म फेस्टिवल में हुआ। जब गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन की बारी आई तो अनसेंसर्ड फिल्म जूरी के पास भेजी गई। जूरी ने अपने विवेक से फैसला लेते हुए इस फिल्म को इंडियन पेनोरमा में सेलेक्ट कर लिया। जब ये बात खुली तो मंत्रालय ने इसको प्रदर्शन की इजाजत नहीं दी। इस तरह की कई कहानियां इस फिल्म को लेकर चल रही हैं। अब चूंकि मामला अदालत में है तो सबको अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए। लेकिन जनता को एस दुर्गा के नाम से फिल्म दिखाने का उपक्रम करना चालाकी ही तो है, पहले प्रचारित करो कि फिल्म का नाम सेक्सी दुर्गा है और फिर उसको एस दुर्गा कर दो। और फिर अपनी सुविधानुसार सरकार, आयोजक या अन्य संगठनों को कठघरे में खड़ा कर दो।
दूसरी फिल्म न्यूड के बारे में कहा जा रहा है कि वो पूरी नहीं थी इसलिए भी उसके प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई। लेकिन फिल्म न्यूड की कहानी को लेकर हिंदी की लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने बेहद संगीन इल्जाम लगाया है। मनीषा का आरोप है कि न्यूड फिल्म की कहानी उनकी मशहूर कहानी कालंदी की नकल है। उन्होंने लिखा कि- जिस न्यूड फिल्म की चर्चा हम सुन रहे हैं, उन रवि जाधव जी से मेरा लंवा कम्युनिकेशन हुआ है। उनके स्क्रिप्ट राइटर कोई सचिन हैं। फिल्म की कहानी मेरी कहानी कालंदी की स्टोरी लाइन पर है। जहां मेरी जमना का बेटा का फेमस फोटोग्राफर बनता है, वहां एक बिगड़ैल व्यक्ति बन जाता है। मेरी जमना की मां भी वेश्या है, पर वो वेश्या ना बनकर न्यूड मॉडल बनती है और उसका बेटा शक करता है कि मेरी मां भी किसी गलत धंधे में है। पीछा करता है, स्टूडियो में झांकता है, अपनी मां को न्यूड पोज में देखता है। प्रोफेसर है एक जो जमुना को सपोर्ट करता है। जब ये बना रहे थे तो मुझे पता चल गया था। मैंने रवि जाधव से संपर्क किया था। रवि जाधव पूरी चतुराई से ये बताने लगे कि जे जे आर्ट्स से उनका पुराना रिश्ता है। वो उस गरीब न्यूड मॉडल को जानते हैं। यह उऩकी किसी लक्ष्मी की स्टोरी है. पर ट्रेलर पोल खोल गया। मनीषा के इन आरोपों पर अभी फिल्मकार का पक्ष आना बाकी है। इस मामले का निपटारा भी ऐसा प्रतीत होता है कि अदालत से ही होगा क्योंकि हिंदी लेखिका मनीषा ने भी अदालत जाने का मन बना लिया है।इन दिनों हिंदी साहित्य में चौर्यकर्म पर खुलकर बहस हो रही है।    
ये तो हुई इन फिल्मों से जुड़ी बातें लेकिन इस संबंध में मेरा ध्यान अनायास ही फिल्मों के नाम और उनके पात्रों पर चला जाता है। हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी है, कलात्मक आजादी भी है लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब कलात्मक आजादी की आड़ में शरारतपूर्ण तरीके से काम किया जाता है। कहा जाता है कि दीपा मेहता की फिल्म फायर मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की कहानी लिहाफ की जमीन पर बनाई गई है। अब यहां देखें कि लिहाफ के पात्रों का नाम बेगम जान और रब्बो है लेकिन जब फायर फिल्म बनती है तो उनके पात्रों का नाम सीता और राधा हो जाता है। ये है कलात्मक आजादी का नमूना। इस तरह के कई उदाहरण मिल जाते है। अब इसमें अगर एक समुदाय के अनेकों लोगों को शरारत लगता है तो उनकी बात को भी ध्यानपूर्वक तो सुना ही जाना चाहिए।  
ऐसे में यह भी विचार करना चाहिए कि जब भी कोई अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए ज्यादा स्वतंत्रता की अपेक्षा करता है तो स्वत: उससे ज्यादा उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार भी अपेक्षित हो जाता है । मकबूल फिदा हुसैन के उन्नीस सौ सत्तर में बनाए गए सरस्वती और दुर्गा की आपत्तिजनक तस्वीरों के मामले में दो हजार चार में दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस जे डी कपूर ने एक फैसला दिया था। जस्टिस कपूर ने आठ अप्रैल दो हजार चार के अपने फैसले में लिखा- इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के करोड़ो हिंदुओं की इन देवियों में अटूट श्रद्धा है- एक ज्ञान की देवी हैं तो दूसरी शक्ति की । इन देवियों की नंगी तस्वीर पेंट करना इन करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तो है ही साथ ही उन करोड़ों लोगों की धर्म और उसमें उनकी आस्था का भी अपमान है ।
शब्द, पेंटिंग, रेखाचित्र और भाषण के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा हासिल है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य है । कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है । इन मनोभावों और आइडियाज की अभिव्यक्ति को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । लेकिन कोई भी इस बात को भुला या विस्मृत नहीं कर सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है । अगर किसी को अभिवयक्ति का असीमित अधिकार मिला है तो उससे यह अपेक्षित है कि इस अधिकार का उपयोग अच्छे कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी देवताओं के खिलाफ विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हे अपमानित करने के लिए । हो सकता है कि ये धर्मिक प्रतीक या देवी देवता एक मिथक हों लेकिन इन्हें श्रद्धाभाव से देखा जाता है और समय के साथ ये लोगों के दैनिक धर्मिक क्रियाकलापों से इस कदर जुड़ गए हैं कि उनके खिलाफ अगर कुछ छपता है, चित्रित किया जाता है या फिर कहा जाता है तो इससे धार्मिक भावनाएं बेतरह आहत होती है। अपने बारह पन्नों के जजमेंट में विद्वान न्यायाधीश ने और कई बातें कही और अंत में आठ शिकायतकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी क्योंकि धार्मिक भावनाओं को भड़काने, दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने आदि के संबंध में जो धाराएं (153 ए और 295 ए) लगाई जाती हैं उसमें राज्य या केंद्र सरकार की पू्र्वानुमति आवश्यक होती है, जो कि इस केस में नहीं थी । ( जस्टिस कपूर के जजमेंट के चुनिंदा अंशों के अनुवाद में हो सकता है कोर्ट की भाषा में कोई त्रुटि रह गई हो लेकिन भाव वही हैं )
अब सवाल यही कि जब संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर साफ तौर पर बता दिया गया है तो हर बार उसको लांघने की कोशिश क्यों की जाती है। क्या कलाकार की अभिव्यक्ति की आजादी आम आदमी रो मिले अधिकार से अधिक है। इसपर हमें गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसी शरारतों से ही कुछ उपद्रवी तत्वों को बढ़ावा मिलता है कि वो भावनाएं आहत होने के नाम पर बवाल कर सकें। लेकिन जिन फ्रिंज एलिमेंट की गम निंदा करते हैं उनको जमीन देने के लिए कौन जिम्मेदार है इसपर विचार करना भी आवश्यक है। कलात्मक आजादी के नाम पर किसी को भी किसी की धार्मिक भावनाओं के साथ खेलने की इजाजत ना तो संविधान देता है और ना ही कानून तो फिर ऐसा करनेवालों को अगर फिल्म फेस्टिवल से बाहर का रास्ता दिखाया गया है तो गलत क्या है।


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