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Tuesday, February 20, 2018

'कथ्य पर विमर्श को नहीं थोपती'


   मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की ऐसी लेखिका हैं जिन्होंने लगातार अपने लेखन की चौहद्दी का अतिक्रमण किया है। हाल ही में उन्होंने बिरजू महाराज पर अपनी किताब पूरी की है। इसके पहले मानसिक रोग को केंद्र में रखकर उन्हों उपन्यास लिखा था जो खासा चर्चित हुआ था।  उऩसे हिंदी साहित्य के परिदृश्य और उनके लेखन पर मैंने उनसे बात की । 


1.   कहानी से शुरु करके उपन्यास और अब एक कलाकार पर पूरी किताब, लेखक क तौर पर कैसे विषयों के वैविध्य को संभाल पाती हैं
 उत्तर : मैं बहुविध विषयों से जुड़ी रही हूँ। विज्ञान की स्नातक होकर, हिंदी में एम. . फिर एम. फिल. किया, कथक में विशारद साथ चलता रहा। मनोविज्ञान मेरी रुचि का विषय रहा सो इसमें स्वअध्ययन मैं करती आई हूं। मुझे लगता है, ज्ञान का एक पात्र होता है जिसे एकत्र हो छलकना होता है, अभिव्यक्ति के माध्यम से पहले कहानी लिख पाना श्रमसाध्य काम लगता था, फिर कहानी का फलक छोटा लगने लगा तो उपन्यास लिखे। फिर लगा कुछ अलग भी लिखा जाए, तब बिरजू महाराज के समूचे नृत्य को तकनीकी ढंग से विश्लेषित करती किताब लिखी, जो शीघ्र प्रकाशित होगी। अब मैं मेघदूतकॉरीडोर परिकल्पना पर यात्राएं कर रही हूं रामगिरी से मानसरोवर तक की, साथ - साथ यात्रावृत्तांत लिख रही हूँ। जब जुनून हो तो बहुत कुछ मुनासिब हो ही जाता है।
2.   हिंदी कहानी पर अगर बात करें तो इस वक्त विषयगत नवीनता का अभाव दिखता है, आपको क्या वजह लगती है 
उत्तर : मैं पुरानी हिंदी कहानी की बात करूं तो ऐसा नहीं था। वह समय था जब राजनैतिक, आंचलिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, नागरिक जीवन की कहानियां लिखी जाती थीं। विज्ञान कथाओं का भी द्वार खुला था। कहानी में शिल्पगत विविधताएं भी थीं। आज का परिदृश्य देख मुझे यही लगता है कि नए लेखक पढ़ते कम हैं, वे साहित्येतर कुछ नहीं पढ़ते। यही वजह है कि वे किसी पुरातन विषय पर लिखकर सोचते हैं, पहले किसी ने नहीं लिखा। शिल्प का बासीपन भी हिंदी कहानी को बोझिल बना रहा है। उस पर जीवनानुभव के बिना बहुत कुछ डैस्क पर बैठ कर लिखे जाने पर ऐसा होता है। इस कमी के चलते हम नई प्रवृत्तियों वाला अपना कथा-समय नहीं गढ़ पा रहे। वरना पुराने कहानीकारों को देखें वे निरंतर यात्राएं करते थे, आपसी संवाद उन्हें प्रेरित करता था कि वे स्वयं को प्रतिष्ठित करने से पहले अपना रचना - समय तो प्रतिष्ठित करें, जिस की पीठिका पर उनके समय की कथा प्रवृत्तियाँ उभर कर आएं।
3.   हिंदी कहानी में डिटेलिंग का भी अभाव नजर आत है वो क्यों।
उत्तर- सतही डीटेलिंग तो बहुत है आज की हिंदी कहानी में, मगर एक सतत बहुपरतीय बारीकी का अभाव है। इस मामले में मुझे छोटी क्रिस्प उर्दू कहानियां ज़्यादा पसंद हैं। डीटेलिंग हो तो गुलेरी जी की ‘ उसने कहा था’, राजेंद्र यादव की ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, कमलेश्वर की ‘राजा निरबंसिया’, मन्नू जी की ‘यही सच है’ या मृदुला गर्ग की ताज़ा कहानी ‘जूते का जोड़ – गोभी का मोड़’ जैसी हो।
4.   इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में लंबी कहानियों का दौर चला लेकिन अब लंबी कहानियां कम लिखी जा रही हैं , आपको इसकी क्या वजह लगती है।
उत्तर : मैं यह नहीं मानती कि हमारे समकालीन यह चुनौती नहीं ले सकते, मैंने भी लंबी कहानियां लिखी हैं, कई समकालीनों ने भी। मनोज रूपड़ा लिखते आए हैं। हां, संपादकों का दबाव रहता है पत्रिका के पन्नों को लेकर।

5.   आपने अपने उपन्यास शिगाफ में कश्मीर को विषय बनाया, जब आपने लिखना शुरू किया था तो आपके दिमाग में क्या था या कैसे ये विषय सूझा।
उत्तर : मैं अवंतिपुर रही हूं। वह मेरे दांपत्य जीवन की शुरुआत हुई थी और आतंक के दौर की भी। तब मैं लेखक नहीं थी, मगर कश्मीर घूमने का उत्साह था। उसी दौर में एक बसस्टॉप पर वरिष्ठ वायुसेना अधिकारी को बस का इंतजार करते हुए गोली मार दी गई थी और तब से वह स्टेशन हमारे लिए एक बंद किला बन कर रह गया था मैं कश्मीर में होकर भी कश्मीर को देखने का ख्वाब लिए लौट आई थी। कश्मीर का मुद्दा मेरे लिए समझ आने वाला गुंजल था। बरस बीते, लिखना शुरू हुआ। पहलगाम में वर्ष 2005 जून में साहित्य अकादमी की एक अनुवाद कार्यशाला हुई जिसमें मैं भी आमंत्रित थी। आतंक का ब्रेक टाईम था, टूरिस्ट बसों पर यदाकदा बम फेंके जाते थे। कभी कभी श्रीनगर का लाल - चौक दहल जाता था। अमरनाथ यात्रा चल रही थी, राज्य में रेडअलर्टसा था। माहौल में तनाव जाहिर था, मगर हमारे लेखक मित्र आजुर्दा का आग्रह और उत्साह था कि यह कार्यशाला संपन्न हुई। आते-जाते मुझे अवंतिपुर बसस्टैंड का वह पेड़ दिखा, जिस पर गोलियों के निशान तब तक थे। मेरा मन अनमना हो गया। हम आठ भाषाओं के लेखक, अनुवादक और साहित्य अकादमी के सदस्य  पहलगाम में जम्मू एंड कश्मीर टूरिज्म की कॉटेजेज़ में ठहरे हुए थे। प्रो.आज़ुर्दा के कॉटेज में अकसर सब इकट्ठा होते, शायरीकविताओं का माहौल रहता। उन्ही दिनों एक स्वर्गीय कश्मीरी पंडित प्रोफेसर की बेटी विदेश में बस जाने के बाद श्रीनगर आई थी घूमने, पुराना सब देखने। वे लोग प्रो. आजुर्दा से भी मिलने आए। चाय के बीच अचानक कहीं से यह सवाल उछला- आप लोग चले क्यों गए थे? मरहूम कश्मीरी पंडित प्रोफेसर की बेटी कुछ देर बाद चुप रह कर बोली- सब तो जा रहे थे। उसके चेहरे की पीड़ा ने मुझे कहीं हिला दिया। बस उसी समय मेरे उपन्यास की प्रॉटोगॉनिस्ट अमिता ने जन्म ले लिया था।
6.       हिंदी में जिस तरह से स्त्री विमर्श हो रहा है उसपर कुछ लेखकों को आपत्ति है, आपका स्त्री विमर्श को लेकर क्या रुख या स्टैंड है ।

उत्तर : हिंदी में हम लोग अभी उस परिपक्वता को हासिल ही नहीं हुए हैं कि हम लेखन संग एक्टिविज्म की बात कर सकें। हम हमेशा विमर्श के मूल-मुद्दे से उखड़ जाते हैं। हर विमर्श का राजनैतिक ध्रुवीकरण हो जाता है और इन विमर्शों से किसी को कोई लाभ हो नहीं पाता। किंतु अगर स्त्री अपने परिवेश के उठ कर अपनी आज़ादी और हर किस्म की बराबरी की मांग उठाती है, या अपने अंतरंग संसार के घाव, अतृप्तियां, असमानता को उघाड़ती है तो वह साहस की बात है। इसलिए हिंदी जगत को स्त्री की हर खुलती आवाज़ का स्वागत करना चाहिए, इसे देह विमर्श, फैशनेबल फेमिनिज्म जैसे जुमलों में रिड्यूस नहीं करना चाहिए। हां दूसरी तरफ मैं यह भी मानती हूं कि स्त्री का अंतरंग बाज़ार की आपूर्ति का विषय नहीं सो अगंभीर चौंकाऊ चीजों से हमें बचना चाहिए। मेरे अपने कथा संसार में अपने अस्तित्व को लेकर सजग स्त्रियां जगह पाती रही हैं।

6.   फिक्शन में विमर्श होने से कथा बाधित होती है, इससे आप सहमत हैं असहमत ?  
उत्तर : सहमत। मैं कथाकार हूं और कथ्य पर मैं जबरन विमर्श को नहीं थोप सकती। हम सब दीर्घ या सूक्ष्म तौर पर मानव जीवन को कथ्य बनाते हैं। ऐसे में किसी पात्र को सहज जीवन प्रवाह से विपरीत पॉलिटिकली सही करना कथा को बाधित करता है। सहज जाग्रत किरदार अपने साथ कोई जागृति की किरण ले आए तो बात अलग है।

7.   हिंदी साहित्य के लिए सोशल मीडिया के विस्तार को आप किस तरह से देखती हैं, क्या इससे सकारात्मकता आई है या रचनात्मकता का विकास हुआ है।
उत्तर : सच कहूं तो मिश्रित असर हुआ है, यह विश्लेषण की विषयवस्तु है। सकारात्मकता के नज़रिए से देखें तो हम सब हिंदी लेखक एक जगह जुटे हैं, जहां सहज ही, मिनटों में सूचनाओं का आदानप्रदान कर लेते हैं। हम पाठकों से रूबरू हैं। प्रकाशकों के लगातार संपर्क में हैं, आलोचकों की आपकी लेखनी, वैचारिकता, राजनैतिक रुझान, स्टैंड पर निगाह है। नए लेखक, नए मंच उभर रहे हैं। हम सब आपस में एक क्लिक की दूरी पर हैं। नकारात्मक नज़रिए से देखें तो वैचारिक गुटों की खोखली राजनीति, अवसरपरकता अपने पूरे नंगेपन से सामने रही है। गुटों की भीतरी टूटन और अंतत: लेखक के अकेले होने, रचने का सच सामने रहा है। एक क्लिक की आभासी निकटता का खोखलापन। सबसे बड़ी विडंबना कई लेखकों के वैचारिक मुखौटे ढीले होकर पाठकों के सामने ही लटक गए हैं।

9.   सोशल मीडिया ने लिखनेवाले को एक ऐसा मंच दे दिया जहां किसी तरह का चेक नहीं है, यह साहित्य के लिए कितना अहितकर है।

उत्तर- इंटरनेट ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में मैं जब नया ज्ञानोदय में हिंदी और इंटरनेट पर कॉलम लिखती थी। तब ही मैंने यह चिंता जताई थी कि जहां नेट हर किसी के भीतर की ‘छपास’ को तृप्त कर सकता है, वहीं संपादक नामक फ़िल्टर यहां नहीं होने वाला है। यहां अच्छा पढ़ना भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा है। गंभीर साहित्य की अपनी धारा होती है, अगंभीर, अकलात्मक और दिशाहीन साहित्य वहां अपने आप पीछे छूट जाता है। इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए।

10. आलोचना खासकर कथा आलोचना से आप संतुष्ट हैं 

उत्तर : नहीं। यह सच हम सब जानते हैं कि रचनात्मक आलोचना सिरे से गायब है। बहुत कम आलोचक हैं जो सरोकारों के साथ निष्पक्ष आलोचना कर रहे हैं। बुरी किताबों पर महान आलोचना पढ़ कर रहा,सहसा विश्वास उठ जाता है। जिन पर आलोचक लगातार लिख रहे हैं, वे पाठकों को औसत लगते हैं, जिनकों पाठकों का प्यार मिलता है उनसे आलोचक चिढ़े रहते हैं। तो मन में यह सवाल उठता है कि क्या कथा साहित्य को आलोचना की अब जरूरत भी है?

11. नई पीढ़ी के लेखकों के लिए कुछ कहना चाहेंगी।

उत्तर- पहली,अपना नया - पुराना हिंदी कथा साहित्य पढ़ लेना, फिर लेखक होने के बारे में दावा करना। दूसरी– जब तक बहुत ही नया न हो कहने को, तब तक कलम मत उठाना। औसत लेखकों का एक हुजूम है जो एक जैसी रचनाएं लिख रहे हैं।

12.   दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर पर आपकी क्या राय है।

उत्तर : मैं जानती हूं बेस्टसेलर को लेकर बहुत स्वागत और विरोध हुआ। मुझे यह प्रयास अच्छा लगा कि हिंदी में सबकी नींद खुली कि हिंदी में भी बेस्टसेलर किताबें हो सकती हैं। जहां आमतौर पर प्रकाशक किताब की तीन सौ पांच सौ - प्रतियां छाप कर भी, अंतत: किताबें डंप कर देते हैं। अब वे भी प्रतियोगिता में आने की कोशिश कर रहे हैं। हिंदी लेखक में शुरू से एक ऊंघ रही है, बाज़ार से बेरुख़ होने की, जिसे हमने हिंदी का स्वाभिमान नाम दिया, मगर फायदा इसका प्रकाशक ने उठाया है। किताब को तो बाज़ार से ही निकलना है, तो हम क्यों धारा के विपरीत बहने वाली मछलियों की तरह व्यवहार कर भालुओं का शिकार हों?
  

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